पिछले हफ़्ते एक शादी के सिलसिले में दिल्ली जाना हुआ। नोयडा में रुकना! गाजियाबाद स्टेशन से नोयडा जाते हुये देखा दोपहर को एटीएम के बाहर लम्बी लाइन लगी थी। जगह कम होने के चलते गुड़ी-मुड़ी हुई सी लाइन। कानपुर और गाजियाबाद एक सरीखे से ही लगे।
नोयडा से दिल्ली की 50 किमी का सफ़र तय करने में ढाई घंटे लगे। सड़क भले चकाचक बन जाये लेकिन ट्रैफ़िक फ़ुल जाम मय। नया हाईवे भले लखनऊ से दिल्ली साढे तीन घंटे में पहुंचाने का दावा करे लेकिन लगता है नोयडा से दिल्ली की दूरी समय के हिसाब से ऐसी ही रहेगी।
जहां रुके थे सुबह वहां टहलने निकले। कालोनी के बाहर सब्जी की दुकान धरे राजकुमार गुप्ता मिले। गोपालगंज, बिहार से आये थे1998 में नोयडा। जंगल था तब सब यहां। अब जगह मिलना मुश्किल। 18 साल में देखते-देखते नोयडा एकदम्मे बदल गया। पहले खुद आये, फ़िर परिवार लाये। थोड़ी जमीन लेकर मकान बना लिये हैं पास के ही सेक्टर में। खुद आठवीं पास है। बेटा बीए में पढ़ता है। बिटिया भी स्कूल जाती है। उन दोनों को सिर्फ़ पढाने में लगाये हैं। काम-धाम से नहीं जोड़े।
हर तरह की सब्जी धरे हैं दुकान पर। गाजियाबाद से लाते हैं सब्जी। घरों में भी डिलीवरी देते हैं। आसपास के लोग फ़ोन करके आर्डर देते हैं। वे घर पहुंचा देते हैं। साथ में लड़के को रखे हैं। 5000 रुपया महीना देते हैं उसको। नोटबंदी के चलते थोड़ा बिक्री में फ़र्क पड़ा लेकिन अब पेटीएम ले लिये हैं।
जब आदमी प्रवासी हो जाता है तो उन बदलावों को भी सहजता से स्वीकार कर लेता है जिसको अपने घर में रहते हुये शायद उतनी जल्दी न स्वीकारता। बिहार का आदमी जब नोयडा पहुंचता है तो हर तरह के बदलाव को फ़ौरन स्वीकार कर लेता है। यही अगर बिहार मतलब घर में रहते होते गुप्ता जी तो अभी तक भुगतान के लिये वैकल्पिक तरीका अपनाने में समय लगाते।
नोयडा/दिल्ली में सेवा प्रदाता ज्यादातर बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं। एक दिन की हड़ताल कर दें तो बैठ जाये दिल्ली/नोयडा ! लेकिन प्रवासी आदमी हड़ताल के लिये थोड़ी आता है। काम के लिये आता है।
बिहार जाते रहते हैं गुप्ताजी। इस बार छ्ठ पर जा नहीं पाये रिजर्वेशन के चलते। यहीं नोयडा में एक तालाब किनारे मनी छठ।
पास में ही रजाई भरने की दुकान पर सोनू मिले। मुरादाबाद के रहने वाले । गर्मी में कूलर का धन्धा करते हैं। जाड़े में रजाई भरने का। मतलब साल भर मौसम की मार से बचाने का काम करते हैं।।दिल्ली में सीखे एक दुकान पर कूलर का काम। रजाई का काम अपने बहनोई से सीखे। आठ-दस साल पहले आये थे दिल्ली। पास के ही सेक्टर में किराये पर रहते हैं।
रजाई अगर रुई, कपड़ा खुद का हो तो डेढ सौ रुपये में बना देते हैं। दुकान से लेने पर छह औ से सात सौ रुपये की पड़ती है रजाई। तीन से साढे तीन किलो तक रुई लगती है एक रजाई में। रुई भी अलग-अलग तरह की। डेढ सौ से सौ रुपये किलो तक की। जैसी मन आये भरवा लो। बात करते, काम करते रहे सोनू। हम तो ठेलुहा सो बतियाते रहे।
लेकिन आज तो हमको जाना है भाई दफ़्तर। हम चलें। आप मजे करो। शुभ दिन !
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