1. हिन्दी साहित्य में लंगोट का पक्का होने तथा लंगोट रक्षा की पुरानी परम्परा है। एक पवित्र परम्परा के तहत जोर इस बात पर है कि रचना चाहे कमजोर हो, पर लंगोट की पक्की हो।
2. रचना में अश्लीलता न आने पाये , इस पर हिन्दी साहित्य के वयोवृद्ध किस्म के बुजुर्गों तथा जवानों की नजर है। इस चक्कर में रचना का कचरा होता हो, तो हो!
3. हिन्दी कहानी, कविता या लेखों में अश्लीलता कहीं से प्रवेश न कर जाये, इसके लिये हिन्दी के पुरोधा किस्म के साहित्यकार रात-रात भर ड्यूटी पर जागते हैं, किसी कुंवारी, जवान बेटी के बाप की तरह।
4. कच्ची लंगोट के साथ हिन्दी साहित्य के अखाड़े में उतर रहे हो? इधर ब्रह्मचारी चाहिये।
5. हिन्दी में लंगोटी-युग , हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारम्भ से जमा हुआ है।
6. हिन्दी में अश्लील रचनायें नहीं चलेंगी। इसके लिये हिन्दी के पाठ्कों को अंग्रेजी साहित्य देखना होगा। हम स्वयं भी वही देखते हैं।
7. बदमाशी और भारतीय संस्कृति साथ-साथ चलतीं रहें। हिन्दी कहानी पारिवारिक बनी रहे तथा अपनी मां-बहनों को पढ़वाने लायक रहे( दूसरों की मां-बहनों को पढ़वाने लायक साहित्य अंग्रेजी से लेकर हम स्वयं उन्हें देकर आयेंगे)
8. हिन्दी कहानी की नायिका नितान्त चरित्रवान रही है। कोई उस पर उंगली नहीं उठा सकता। वह नायक को भी हाथ नहीं धरने देती।
9. क्रांतिकारी प्रेम नहीं करता और हिन्दी में कई वर्षों से घनघोर क्रांति चल रही है।
10. हिन्दी कहानी की नायिका चिरकुंआरी है। वह चरित्रवती है। हिन्दी कहानी का नायक चरित्रवान है। जहां तक लेखक का सम्बन्ध है, वह तो बीसों बार लड़कियों से पिटने के बावजूद चरित्रवान है ही। हिन्दी साहित्य का हेडआफ़िस चरित्रवान एंड चरित्रवान लिमिटेड जैसा हो गया है।
11. हिन्दी साहित्य में रहना है तो लंगोट को मजबूत रखें। कसकर बांधे। बांधकर रखें।
12. कलम की लंगोट ढीली हुई, कि हमने हिन्दी से बाहर किया।
ज्ञान चतुर्वेदी के लेख ’हिन्दी साहित्य में लंगोट रक्षा’
यह लेख ज्ञानजी के व्यंग्य संकलन ’खामोश ! नंगे हमाम में हैं’ में संकलित है। यह संकलन पहली बार राजकमल प्रकाशन से 2002 में आया। 2015 में पेपरबैक संस्करण आया। ’हम न मरब’ में प्रयुक्त गालियों पर लिखे दिलीप तेतरबेे Dilip Tetarbe जी के लेख और बाद में Suresh Kant जी की इस बारे में की आलोचना के जबाब शायद ज्ञान जी ने पहले ही तैयार कर रखे थे।
यह लेख ज्ञानजी के व्यंग्य संकलन ’खामोश ! नंगे हमाम में हैं’ में संकलित है। यह संकलन पहली बार राजकमल प्रकाशन से 2002 में आया। 2015 में पेपरबैक संस्करण आया। ’हम न मरब’ में प्रयुक्त गालियों पर लिखे दिलीप तेतरबेे Dilip Tetarbe जी के लेख और बाद में Suresh Kant जी की इस बारे में की आलोचना के जबाब शायद ज्ञान जी ने पहले ही तैयार कर रखे थे।
किताब आन लाइन खरीदने का लिंक ये रहा http://rajkamalprakashan.com/…/khamosh-nange-hamam-mein-hai…
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