टाटमिल चौराहा |
हमने अपनी याददाश्त की पीठ ठोंकी। पिछले दिनों कई बार जरूरी चीजें भूलने के कारण डांट खा चुकी है ’याददाश्त’ । कल तारीफ़ पाने की खुशी ’याददाश्त’ के चेहरे पर साफ़ चमक रही थी। याददाश्त बेचारी लजाकर मुंडी में सिमट गयी। लाज-लाल ’याददाश्त’ की फ़ोटो अगर लगाते फ़ेसबुक पर तो खचिया भर टिप्पणियां, लाइक आते क्यूट, स्वीट, ऑसम घराने के।
प्रदूषण प्रमाणपत्र बनवाने के लिये बालक को पुराना वाला कागज दिया। बालक ने कागज देखकर कागज बना दिया। प्रदूषण का कागज कागज देखकर ही बनता है। गाड़ी थोड़ी देखी जाती है। गाड़ी इस बीच रानी बिटिया की तरह चुपचाप खड़ी रही- मुंह दिखाई के समय नई बहुरिया की तरह संकोच चेहरे पर धरे हुये। सत्तर रुपये में गाड़ी छह महाने के लिये प्रदूषण मुक्त हो गयी।
लौटने के लिये गाड़ी को सड़क पर लाने के लिये मोड़े। गाड़ी सड़क के लम्बवत ही हो पायी थी कि एक साइकिल सवार अचानक गाड़ी के आगे रुक गये। जब वे रुके तो हम भी रुक गये। साइकिल सवार बीच सड़क पर जेब टटोलकर कुछ निकालने लगे। हमें लगा कि कुछ जरूरी सामान याद आ गया होगा उसको खोजकर आश्वश्त होना चाहते हैं। यह भी लगा कि शायद मिल जाने पर वे भी अपनी याददाश्त की पीठ ठोंके। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे जेब देर तक टटोलते ही रहे।
बम्पर विहीन वाहन |
जब हमने गाड़ी घुमाकर सड़क पर सीधी कर ली तो देखा भाईसाहब फ़ाइनली सड़क के किनारे पहुंचकर जेब से लाइटर निकालकर बीड़ी सुलगा चुके थे। मतलब जो उनका अचानक रुकना था वह अचानक बीड़ी पीने की तलब उठने पर बीड़ी सुलगाने की इच्छा के चलते था। मैं उनके बीड़ी-प्रेम से बहुत प्रभावित हुआ।
सड़क पर अचानक रुककर बीड़ी पीने की इच्छा होने पर बीच सड़क पर खड़े होकर तसल्ली से बीड़ी सुलगाने की यह सामान्य सी लगने वाली यह घटना देखने में भले साधारण सी लगे लेकिन इसको हल्के में लेना ठीक नहीं होगा। इससे साफ़ पता लगता कि देश का आम आदमी तसल्ली से जी रहा है। अपनी मनमर्जी से बीच सड़क पर खड़ा होकर बीड़ी सुलगा रहा है। इसका मतलब देश के आम आदमी के परेशान होने का जो हल्ला किया जा रहा है वो सब झूठ है। देश का आम आदमी बीच सड़क पर अपनी साइकिल रोककर , सडक पर आती-जाती गाड़ियों से बेपरवाह, तसल्ली से बीड़ी पी रहा है। मजे में है आम आदमी।
यह लिखते हुये हमारे दिमाग के व्यंग्यकार वाले हिस्से ने सुझाया कि चलते-चलते अचानक बीच सड़क पर रुककर बीड़ी पीने की इस घटना को अचानक हुई ’नोटबंदी’ से जोड़ दो तो घटना का फ़लक बड़ा हो जायेगा। हमने सुझाव देने वाले व्यंग्यकार को बड़ी जोर से हड़काया - "तेरी तो ऐसी की तैसी। बड़ा आया फ़लक बड़ा करने वाला। लगता है टीवी देखते हुये तुम्हारे दिमाग में भी प्रतिक्रिया का स्तर जनप्रतिनिधियों जैसा दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है।"
हमारी हड़काई से दिमाग का व्यंग्यकार बेचारा घुटनों में मुंड़ी घुसाकर गुड़ी-मुड़ी होकर बैठ गया। बुदबुदाते हुये बोला-’हमारे कहने का मतलब गलत तरीके से समझा गया।’ हमें व्यंग्यकार की बेवकूफ़ी पर लाड़ सा आया। लेकिन हमने प्यार जाहिर नहीं किया। जाहिर करते तो वह फ़िर कोई और बेवकूफ़ी की बात करने लगता- मंच से भाषण करते नेता की तरह।
टाटमिल चौराहे पर रुकने का सिग्नल था। सिग्नल मतलब कोई ऐसा नहीं कि लाल बत्ती दिख रही हो। गाड़ियां रुकी थीं तो हम भी रुक गये। लेकिन हम चौराहे से कुछ कदम पीछे ही रुके रहे। पीछे रुकने की कारण यह था कि चौराहे पर गाड़ी खड़ी करते ही कोई आदमी आकर गाड़ी पोंछने लगता है। हमारे न न करते हुये भी वह गाड़ी का शीशा और खिड़की तो पोंछ ही डालता है। लगता है कि गाड़ी पर एकदम सर्जिकल कर रहा है। कभी-कभी आधी गाड़ी ही पोंछता है कि बत्ती हरी हो जाने के चलते हम गाड़ी स्टार्ट कर देते हैं। गाड़ी पोंछने के बावजूद अक्सर ही हम उसको कुछ पैसे नहीं देते (एकाध बार को छोड़कर)। यह न देना कई कारणों का गठबंधन है । इसमें उसका जबरियन सेवा देना, पैसे फ़ुटकर न होना, इसको ठीक न समझना जैसे बहाने शामिल हैं। लेकिन जब भी बिना पैसे देते हुये फ़ूटते हैं तो सेकेंड के बहुत छोटे हिस्से तक यह तो लगता है कि कित्ते चिरकुट हैं। किसी की मेहनत, भले ही वह जबरियन कर रहा हो, के पैसे मारकर फ़ूट लिये हैं।
लगता तो यह भी है कि देश के चौराहे में गाड़ी पोंछने के लिये लपकते हुये इन लोगों के लिये कोई काम नहीं उपलब्ध करा पाये हम लोग।
चौराहे की बात से ही याद आया कि एक दिन फ़जलगंज चौराहे के पास खरामा-खरामा जा रहे थे फ़ैक्ट्री। इतने में एक गाड़ी वाला बगल से आया। बायीं तरफ़ से उसने हमारी गाड़ी को ओवरटेक किया। इतनी तेजी में था वह कि हमारा अगला बंपर गाड़ी से उड़ा दिया। कैशलेश एकोनामी के दौर में हमारी गाड़ी ’बंपर लेस’ होकर बीच सड़क पर खड़ी हो गयी। हमने शांतभाव से आगे भागती गाड़ी की तेजी देखी। बंपरविहीन गाड़ी जीवनसाथी विहीन घर की तरह बेरौनक लग रही थी। बंपर हालांकि खुद राणा सांगा हो चुका था। लेकिन उसके चलते गाड़ी की इज्जत बची हुई थी। बंपर विदा होते ही रेडियेटर नंगा दिखने लगा। बेचारा शर्मा रहा था लेकिन अब क्या किया जाये। लग रहा था बीच सड़क रेडियेटर की चड्ढी उतार दी हो किसी ने। हमने उतरकर बंपर उठाया और वहीं चौराहे पर किनारे धर दिया।
शाम को लौटते देखा बंपर जहां रखा था उससे थोड़ा और दूर सुरक्षित रखा था। इस बीच हमने यह भी कल्पना कर ली थी कि कोई मेरा बंपर उठाकर ले गया होगा। उसमें लगी नंबर प्लेट को किसी गाड़ी में लगाकर कोई वारदात करेगा और नंबर से प्लेट के आधार पर पुलिस हमारी तलाश में घूमने लगेगी। यह ख्याल आने पर हमने अपनी अकल को इतना तेज डांटा था (प्लेट और बंपर साथ न लाने के लिये) कि बेचारी रुंआसी हो गयी थी। बंपर वहां देखकर अकल बेचारी ने संतोष की सांस ली। हमने उसको वात्सल्य की नजरों से देखना चाहा तो वह दिखी नहीं। कुछ देर बाद देखा कि अपना स्टेट्स ’फ़ीलिंग सैड’ से बदलकर ’फ़ीलिंग रिलैक्स्ड’ करने चली गयी थी।
बंपर को चौराहे पर पुलिस वाले भाई साहब ने ठीक से रख दिया था। कहा भी -’हमने किनारे रख दिया था कि जिसका होगा ले जायेगा।’ हमने उनको धन्यवाद दिया। बंपर को गाड़ी में धरा और घर आ गये। भागते भूत को लंगोटी कैसी लगती है मुझे पता नहीं लेकिन हमें टूटते बंपर के लिये गाड़ी की नंबर प्लेट ही भली लगी।
आज सुबह जब उठे तो कोहरा छाया हुआ था। कोहरे के चंगुल में सारी दिशायें ओस के आंसू रो रहीं थीं। अब सूरज भाई कोहरे के खिलाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक कर रहे हैं। उजाला कोहरे पर ’रोशनी चार्ज’ करते हुये उसको तितर-बितर कर रहा है। सुबह हो रही है। सुहानी भी है। आपको मुबारक हो।
#रोजनामचा
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पुलिया तो नहीं पर झाकर कट्टी तो कानपुर में भी है, कभीकभार तो लिख लिया करो. वक़्त बहुत कम है, हमारी उम्र अब 70 पार कर गयी है. कुछ भूत बहुत तंग करते हैं.
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