आलोक पुराणिक के व्यंग्य लेखन में फ़िल्मों के जिक्र अक्सर रहते हैं। उनमें भी राखी सावंत, मल्लिका सेहरावत और सन्नी लियोनी फ़ुल जोरदारी से आती हैं आलोक पुराणिक के लेखों में। बाजार, फ़िल्म और लेखन के इसी तामझाम से जुड़े कुछ सवाल-जबाब बांचिये आलोक पुराणिक से:
सवाल1 : आपके लेखन में फिल्मों के जिक्र खूब रहते हैं। लगता है फिल्में खूब देखी बचपन में। पहली पिक्चर कब देखी? कौन सी देखी। कैसे देखी।
जवाब-फिल्मों की बहुत गंभीरता से लेता हूं बचपन से ही। अब भी लगभग हर फिल्म मैं देखता हूं, लगभग इसलिए कि कुछ फिल्में छूट जाती हैं। फिल्म कैमरे की अभिव्यक्ति है, कैमरे बहुत ही सशक्त माध्यम है अभिव्यक्ति का। मैं अब कैमरे को ज्यादा गंभीरता से लेने लगा हूं। खैर, पहली फिल्म जो मुझे याद है-वह है दो बूंद पानी- स्कूल से दिखाने ले गये थे, तब मैं पांच छह साल का रहा होऊंगा। पीतल की मेरी गागरी-यह गीत मेरी स्मृति में पहला फिल्मी गीत है। 1979 यानी जब मैं कक्षा मैं नौ में था, तब से फिल्में व्यवस्थित तौर पर देखीं। घर से कोई बंधन नहीं रहा। मैं आठ साल का था, तब पिता नहीं रहे, मां काम भर का भरोसा करती थीं कि चलो ठीक ही है लड़का, तो फिल्म देखने पर बंदिश नहीं थी। आगरा में महालक्ष्मी और बसंत सिनेमा टाकीज में मैंने सैकड़ों फिल्में देखी हैं। फिल्में बहुत जरुरी हैं हर उस व्यक्ति के लिए जो अपने वक्त के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीति को समझना चाहता है। रचनात्मक व्यक्ति के लिए फिल्में एक सबक हैं कि कैसे रचनात्मकता को तरह तरह से स्वर दिये जाते हैं। मैं तो कामर्स पढ़ाते वक्त, स्टाक बाजार पढ़ाते वक्त फिल्मों को सुझाता हूं कि ये ये फिल्में देख लेना। फिल्में अर्थशास्त्र भी बताती हैं पहले फिल्मों में उद्योगपति टैक्सटाइल मिल का मालिक होता था, फिर शाहरुख के जमाने से हीरो साफ्टवेयर इंजीनियर होने लगे। यह फिल्म नहीं अर्थशास्त्र का आख्यान है, साफ्टवेयर ने टेक्सटाइल को बहुत पहले पीट दिया है।
सवाल 2. यादगार पिक्चरें जिनको फिर फिर देखना चाहते हैं। किस कारण यादगार हैं?
जवाब-गाईड,मौसम, दीवार, शोले, परिंदे-सब अलग-अलग कारणों से। गाईड अपने वक्त से बहुत आगे की फिल्म थी और यह कामयाब हुई। संबंधों की जटिलता को अलग तरह से व्य़ाख्यायित करती है यह फिल्म। मौसम बिलकुल ही अलग विषय की फिल्म थी- बाप के सामने बेटी अपना तन परोस रही है, बाप को पता है, बेटी को नहीं पता कि यह उसका बाप है। कमलेश्वर और गुलजार की जोड़ी ही यह काम कर सकती थी, इतने संवेदनशील विषय को थोड़ा भी कम परिपक्व बंदा हाथ लगाता तो फिल्म छिछोरी हो जाती। दीवार अपने वक्त की आर्थिकी राजनीति को पेश करती है। ईमान से दो वक्त की रोटी मुश्किल है और बेईमान के लिए मुंबई का पूरा आकाश है। शोले तो खैर टैक्स्टबुक पिक्चर है, किस तरह से चरित्र गढ़े जाते हैं। किस तरह से डायलाग गढ़े जाते हैं। क्या है, जो लंबे समय तक दिलो-दिमाग पर छाया रहता है। परिंदे कम चर्चित फिल्म है-विधू विनोद चोपड़ा की, इसमें नाना पाटेकर का किरदार दिमाग पर छा जाता है। नदिया के पार -यह फिल्म में कई बार देख चुका हूं, और हमेशा देख सकता हूं। सहजता से बड़ी कामयाबी कैसे मिलती है, यह फिल्म बताती है। हालांकि राजश्री वालों ने लगभग इसी थीम पर बाद में कई फिल्में बनायीं, पर नदिया के पार की बात अलग है।
सवाल 3. पसंदीदा हीरो और हीरोइन कौन हैं? हिरोइन की किस अदा पर फिदा हैं?
जवाब-अमिताभ बच्चन का जो असर हमारी पीढ़ी पर है, वैसा असर किसी का किसी भी पीढ़ी पर ना होगा। 11-12 साल की उम्र से अमिताभ बच्चन की फिल्में देखना शुरु किया-डान, मुकद्दर का सिकंदर, सुहाग, सिलसिला-अमिताभ बच्चन अल्टीमेट हैं, उन जैसी वैरायटी किसी के पास नहीं है। उनकी आवाज, डायलाग डिलीवरी कमाल है। अभिनेत्री मुझे तब्बू बहुत शानदार लगीं, पर उन्हे फिल्म जगत में वह सब नहीं मिला, जिसकी वह हकदार थीं। कलाकार का नसीब भी एक बात होती है।
सवाल 4: आपके व्यंग्य लेखन में फिल्मों की जानकारी का कितना योगदान है।
जवाब-फिल्में अर्थशास्त्र समाजशास्त्र राजनीति को एक हद तक समझाती हैं, समाज की नब्ज पर हाथ रखती हैं। समाज के तापमान का एक हद तक पता फिल्मों से चलता है। इसलिए आप कह सकते हैं कि फिल्मों का मेरे रचनाजगत में महत्वपूर्ण योगदान है।
सवाल 5: कभी किसी व्यंग्य उपन्यास/ लेख पर फ़िल्म बनने की संभावना देखते हैं ?
जवाब-राग दरबारी का सीरियलीकरण होना शुरु हुआ था, पर वह ज्यादा हो नहीं पाया। राग दरबारी अपने आप में फिल्म या सीरियल का स्त्रोत है, ज्ञान चतुर्वेदीजी के काम पर कैमरा चलना शुरु हो गया है। अगर आप मेरे काम और कैमरे का रिश्ता पूछें तो कारपोरेट पंचतंत्र की कहानियां सीरियल का रुप ले सकती हैं।
सवाल 6: आपके लेखों में राखी सावंत, मल्लिका सहरावत और सन्नी लियोनी का जिक्र अक्सर आता है। इसका क्या कारण है?
जवाब-राखीजी, मल्लिकाजी और सन्नीजी के अभ्युदय के पीछे एक आर्थिक, सांस्कृतिक,राजनीतिक परिवेश है, जो बदल रहा है। सन्नीजी आसमान से नहीं आ जाती हैं, वह तब आती हैं जब उनके लिए माहौल तैयार हो। सन्नीजी अभी केरल में गयी थीं, उनकी लोकप्रियता का वहां आलम यह था कि थोड़ी दूर चलना भी उनके लिए मुश्किल हो गया। अपने समाज का विद्यार्थी होने के नाते मेरी रुचि हर उस व्यक्तित्व में है, जिसकी बात समाज सुन रहा है या जिससे समाज किसी भी तरह से प्रभावित हो रहा है। सन्नीजी मूलत कनाडा में रहनेवाली ऐसी अभिनेत्री थीं कि जिनका एक संबंध भारत से भी रहा। अब वह भारत में सुपर स्टार हैं। बाबू आलोक नाथ के संस्कारी भारत में पूर्व पोर्न स्टार सन्नी लियोनी सुपर स्टार , यह विसंगति समझने के लिए सन्नीजी को समझना होगा। विसंगति पकड़ना व्यंग्यकार की ड्यूटी है। देखिये इंसान मूलत पाखंडी जीव है और भारतीय परम पाखंडी हैं, क्योंकि अतीत का महान विरासत का बोझ भी उन्हे ढोना है और नये जमाने की मौज भी उन्हे लेनी है। राम नामी चोला ओढ़कर सन्नी लियोनी की पोर्न फिल्म भी देखनी है। राम रहीम जैसे बलात्कारी बाबा ठीक इसी जमीन से उगते हैं। पाखंड को समझना व्यंग्यकार का काम है। सन्नी लियोनीजी धार्मिक बाबा राम रहीम से ज्यादा सम्मानित हैं। सन्नीजी का जिक्र बार-बार इसलिए होता है कि उनके बहाने इस समाज के पाखंड को उधेड़ना ज्यादा आसान हो जाता है।
सवाल 7-राखी सावंत और सन्नी लियोनी में तुलना करने को कहा जाए तो कैसे देखते इनको।
जवाब-वही जो लोकल और ग्लोबल का फर्क है। सन्नीजी की मार्केटिंग ज्यादा दुरुस्त है, वैसा ब्रांड राखीजी ना बना पायीं। राखीजी ब्रांडिंग, मार्केटिंग का वह असर नहीं समझ पायीं, जिसका इस्तेमाल सन्नीजी बखूबी बरसों से कर रही हैं।
इसके पहले की बातचीत बांचने के लिये इधर पहुंचिये https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212457436844429
सवाल-जबाब के बारे में अपनी राय बताइये। आपको आलोक पुराणिक से कोई सवाल पूछने हों तो मुझे इनबॉक्स में भेजें या फ़िर मेल करें anupkidak@gmail.com
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