सड़क किनारे चूल्हा। जहां चार कामगार मिल जाएं, वहीं चूल्हा हो गुलजार। |
सबेरे-सबेरे बंदरों के दर्शन हुये। मंगलवार के नाते शुभ माना जाना चाहिये। बजरंगबली के समर्थक हैं बंदर। कीर्तन याद आ गया-
’बजरंगबली मेरी नाव चली,
जरा बल्ली दया की लगा देना।’
जरा बल्ली दया की लगा देना।’
बजरंगबली ने कीर्तन सुनकर अपने स्वयंसेवकों को भेजा होगा। वे दया की बल्ली अपने साथ लाना भूल गये। यहीं पर दया की बल्ली बनाने के लिये लकड़ी का इंतजाम कर रहे हैं। वे कूदकर-कूदकर हर पेड़, हर डाली हिला रहे हैं। न जाने किस पेड़ से ’दया की बल्ली’ के लिये ठीक लकड़ी मिल जाये। इस चक्कर में वे हर पेड़ को तहस-नहस कर रहे हैं।
सारे छोटे पौधे ’दया की बल्ली के लिये लकड़ी खोज अभियान’ में कुर्बान हो चुके हैं। वे कुछ कह भी तो नहीं सकते। पौधे बोल नहीं पाते। बोल भी पाते होते तो क्या बोलते? आदमी तो बोल पाता है। दुनिया भर में न जाने कितनी जगह चुपचाप कुर्बान होता रहता है। बोलता नहीं इस डर से कि कोई उसको ’दया की बल्ली’ लगाने के अभियान में बाधा पहुंचाने के आरोप में अंदर न कर दे।
बगीचों को बंदरों के हवाले करके हम आगे बढे। नुक्कड़ पर ’पप्पू की चाय की दुकान फ़िर उजड़ गई थी। ओवरब्रिज बनने के लिये खम्भे गडने के लिये सड़क खुद रही है। वह किनारे गुमटी में पान मसाले के पाउच लिये बैठी है। अपने बजरंगबली को याद कर रही होगी। बजरंगबली भी हलकान हो जाते होंगे। किसके-किसके लिये दया की बल्ली लगायें।
खुद के लिए रोटी सेंकते और सड़क के कैशरोल में जमा करते कामगार |
शुक्लागंज की तरफ़ जाने वाली सड़क गुलजार हो चुकी थी। लेकिन कुछ लोग औंधे पड़े सोये हुये थे। एक आदमी दरी ओढे सो रहा था। तमाम लोग सोये हुये अंग-प्रदर्शन कर रहे थे। किसी का पेट खुला था, किसी का सीना किसी की जांघ। किसी हीरोइन के इन पोज के फ़ोटो लिये जाते तो लाखों लोग अब तक देख चुके होते। लेकिन वस्त्र विहीन लोगों के फ़ोटो सूट थोड़े होते हैं।
आगे पुल पर गंगा नदी को बहुत देर देखते रहे। एकदम दुबला गयी हैं। हड्डी दिखने की तर्ज पर बालू साफ़ दिख रही था। आदमी लोग पूरी नदी को पैदल पार करते दिखे। बीच-बीच में बालू के टीले बन गये हैं। अपनी जीवनदायिनी नदी की ऐसी-तैसी करना कोई हमसे सीखे। क्या पता कल गंगा को खत्तम करके परसों हम लोग भी गर्व करते हुये डींगे हांके-’ हमारी गंगा का पानी अमृत सरीखा था।’ लेकिन जब गंगा ही नहीं रहेगी तो गर्व करने को क्या हम बचेंगे?
ठेलिया पर सोलर पैनल, बैटरी और सूप में भिंडी। बगल में चारपाई पर औंधा लेटा आदमी |
लौटते हुये एक झोपड़ी के सामने ठेलिया पर सोलर पैनल धरा दिखा। पता चला हफ़्ते भर पहले लिया है। एक पंखा और एक बत्ती आराम से चल जाती है। 2000 रुपये का लिया है। घर के कई लोग उसको चलाना जानते हैं। बुजुर्ग विस्तार से बताते हैं उसके बारे में। बहुरिया इस बीच एक सूप में भिंडी धोकर सुखाने के लिये रख गयी है ठेलिया पर। बच्ची बताती है इसको ठीक से नहीं रखेंगे तो काम नहीं करेगा। हफ़्ते भर में सब लोग ’सोलर पैनल एक्सपर्ट’ हो गये हैं।
2000 रुपये का सोलर पैनल देखकर हमें लगता है कि ये राजनीतिक पार्टियां चुनाव में लैपटॉप और स्मार्टफ़ोन बांटने की बजाय सोलर पैनल क्यों नहीं बांटते। बाजार का गणित होगा पक्का। मोबाइल में जो मुनाफ़ा और मजा होगा वह सोलर पैनल में कहां।
एक जगह सड़क पर मिट्ठी के चूल्हे में रोटी सेंकते दिखे लोग। हम आगे निकल गये थे। लेकिन चूल्हे को देखने की ललक में साइकिल मोड़कर वापस वहां पहुंचे। एक आदमी रोटी थाप रहा था, दूसरा चूल्हे में सेंक रहा था। मोटी रोटी शक्ल से सोंधी लग रही थी। फ़ूली रोटी को सेंकने के वह वहीं सड़क के ’कैशरोल’ में जमाता जा रहा था।
चूल्हे की आग दुनिया की सबसे खूबसूरत आग होती है। सबसे खतरनाक पेट की आग होती है। दुनिया का सारा झंझट पेट की आग बुझाने के लिये होता है। जिस दिन पेट की आग खत्म हो जायेगी, उस दिन शायद दुनिया की बाकी आगों की दुकान भी बन्द हो जाये।
रोटी बनाने वाले सीतापुर से आये हुये मजदूर हैं। रिक्शा चलाने आये हैं कानपुर। आते हैं , हफ़्ते-दस दिन रिक्शा चलाते हैं। फ़िर चले जाते हैं। सीतापुर में रिक्शा नहीं चलाते। अपने शहर में शरम आती है। रिक्शा का किराया 60 रुपया है। दस रुपया रोज सोने की खटिया का किराया। निपटने के लिये सुलभ शौचालय। इसीलिये कुछ दिन सीतापुर रहकर -कानपुर चलो का नारा लगाकर चले आते हैं।
’घर में भी कभी ऐसे खाना बनाते हो?’ हमने उनसे पूछा।
’घर मां काहे बनैबे, हुवन मेहरिया है। हियन की बात अलग। हुवन सुविधा है तो काहे बनैबे?’ - तवे से रोटी उतारकर चूल्हे में सेंकते हुये आदमी ने कहा और सब खिलखिलकर हंस पड़े। घर में बाल-बच्चे हैं। एक ने तो बाग-बगीचे भी होने की बात कही।
और बातें करते लेकिन देर हो रही थी। लौट लिये। लौटते हुये देखा - ’एक आदमी खटिया बीन रहा था। दूसरी आदमी कूड़े का ढेर जला रहा था। ढेर के पास आग से बेपरवाह मुर्गे मिट्टी से दाना चुग रहे थे। एक पैर कटा लड़का बैसाखी बगल में धरे खटिया पर सोते अपने दोस्त को जगाते हुये बतिया रहा था। जबरियन टाइप जगाते हुये शायद वह कविता सुना भी रहा हो:
’उठो लाल अब आंखे खोलो।’
उठाने के लिये तो वंशीधर शुक्ल की भी कविता है:
’उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहां जो सोवत है।’
अब रैन कहां जो सोवत है।’
लेकिन यह हमारी खाम-ख्याली है। अब कवितायें जगाने का काम कहां करती हैं। अब तो बाजार की लोरियों का समय है। अच्छे खासे जागते हुये आदमी को सुला दें।
बाजार को अपनी बुराई सहन नहीं हुई। उसने फ़ौरन हमारे दिमाग में डायलाग ठेल दिया:
आयोडेक्स मलिये,
काम पर चलिये।’
काम पर चलिये।’
हम उससे जिरह करते हैं- ’अबे हमको चोट लगी नहीं है तो हम आयोडेक्स क्यों मलें?’
बाजार हमको समझाता है:
चोट-वोट का हमको नहीं पता लेकिन- ’काम पर चलना होगा ,तो आयोडेक्स मलना होगा।’
हम चौंक गये कि यह तो ’भारत में रहना होगा, तो वन्देमातरम कहना होगा’ घराने का आवाहन है। हम जब तक वन्देमातरम कहने के लिए पोजिशन लें तब तक एक और उत्पाद आ गया- ’विक्स की गोली लो, खिच-खिच दूर करो।'
हमने बाजार को हड़काने की सोची कि तुम्हारी विक्स की गोली के चक्कर में हमारा वन्देमातरम बोलना स्थगित हो गया। लेकिन फिर चुप हो गए। सब जगह तो आज बाजार के आदमी हैं। उससे क्या पंगा लेना।
हमें लगा कि देर किये तो पूरा का पूरा घुस जायेगा दिमाग में। हम फ़ूट लिये। एफ़.एम पर गाना बज रहा था-
’कभी आर, कभी पार
लागा तीरे नजर।’
लागा तीरे नजर।’
मन किया हम भी गायें साथ में। लेकिन तब तक एक दोस्त का अपनापे भरा ताना याद आ गया - ’सुरीली अम्मा का बेसुरा बेटा’
हम चुप हो गये। अम्मा भी याद आ गयीं। मुस्कराते हुये कहती हुई- ’ बाबूजी, आज आफ़िस नहीं जाना क्या?’
हम लपककर दफ़्तर के लिये तैयार होने निकल लिये। आप मजे से रहना। हमेशा खुश।
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