पप्पू की चाय की दुकान |
सबेरे-सबेरे सड़क गुलजार हो रही थी। पप्पू की दुकान पुराने ठिकाने से उखड़ गयी थी। दो दिन पहले। कल देखा बगल की फ़ुटपाथ पर उसने अपना तम्बू तानकर भट्टी सुलगा ली थी। बोला-’ कुछ तो करना पड़ेगा। कहीं तो दुकान लगानी पड़ेगी। कोई नौकरी तो है नहीं अपनी।’
नौकरी वाला आदमी होता तो नौकरी छूटने पर सालों मुकदमा लड़ता। सारी जिन्दगी इसी में खर्च कर देता। अपना कोई काम शुरु करने के पहले हताश , निराश सा हो जाता। सुरक्षा आदमी की जिजीविषा को मुलायम बनाती है। परसाई जी की बात याद आई:
''हड्डी ही हड्डी, पता नहीं किस गोंद से जोड़कर आदमी के पुतले बनाकर खड़े कर दिए गए हैं। यह जीवित रहने की इच्छा ही गोंद है।'
हमको फ़ोटो लेते देखकर बोले-’आप किसी प्रेस में काम करते हैं तो बढिया काम करते।’
उसको क्या पता कि खराब काम करने वाला कहीं भी रहे, खराब काम करने से उसे कोई रोक नहीं सकता।
सामने से अजय सिंह लाठी के सहारे टहलते, उचकते आ रहे थे। काम कैसा चल रहा है पूछने पर बोले-’ चौकीदारी के 5000/- देने की बात हुई थी दुकानदारों से। अब कहते हैं 100/- हर दुकानदार देगा। मतलब कुल जमा 1700/- रुपया महीना। न्यूनतम मजदूरी से दस गुने कम पर काम कराना चाह रहे हैं लोग।
हमने कहा-’तुम तो 5000/- रुपया बता रहे थे महीने के।’
बोला-’ हां लेकिन अब फ़िसल गये। कहते हैं- दुकानदारी ही नहीं हो रही।’
हर आदमी अपनी बात से मुकर रहा है। सरकारें अपने वादे से दायें-बायें हो रही हैं। वादाखिलाफ़ी अपने देश का राष्ट्रीय चरित्र हो रहा है।
हमसे बोला- ’आप कोई काम में लगवा दो।’
हमने कोई वादा किये बिना आगे बढ गये। हम किसी को काम दिलवाने लायक भी नहीं हैं।
कार पर बकरी का कब्जा |
आगे एक बकरी सड़क किनारे खड़ी कार की छत पर खड़ी हुई थी। देखकर लगा कि ’कार सेवा’ के लिये बिना बहुमत की चिन्ता ग्रहण किये खुद ही शपथ ग्रहण कर ली है। ऊपर चढकर इधर-उधर कूदने-फ़ांदने लगी। कार की छत की दुनिया में इधर-उधर दौरा करने लगी। लग रहा था कि कार की छत के हाल ठीक करके ही मानेगी। अलग-अलग मुद्राओं में पोज देते हुये वह कार की छत पर टहलती रही। कुछ देर टहलते हुये बोर होने के बाद वहब बैठ गयी। कार की छत पर उगे एंटीना को चबाने लगी। ऐसा करते हुये वह लोकतंत्र की सरकारों की नुमांइदों की तरह लग रही थी जो अपनी संस्थाओं के संसाधन खा-पीकर उनको खोखला करते रहते हैं।
कुछ देर छत पर टहलने के बाद वह कार के शीशे पर ऊछलने लगी। मुझे लगा शीशा टूट जायेगा लेकिन शीशा भी देश की तरह मजबूत निकला। किसी तरह अपने को बचाने में सफ़ल रहा।
अबकी बार, पुरानी कार, बकरी की सरकार |
थोड़ी देर में वहां एक दूसरी बकरी आ गयी। वह भी कार के शीशे पर चढ गयी। ऐसा लगा मानो बकरी का बहुमत खत्म हो जाने से उसकी सरकार पर ख्तरा आ गया हो। उसके खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ हो और छत पर चढी बकरी को शीशे पर खड़ी बकरी ने बाहर से समर्थन टाइप दे दिया हो। बकरी की बहुमत सरकार की जगह पर अब छत पर गठबंधन सरकार चल रही थी। शुरुआत में हसीन भी लग रही थी।
आगे एक और कार खड़ी थी। मुक्त अर्थव्यवस्था की तरह कार की खिड़की, दरवाजा, आगा, पीछा सब खुला हुआ था। कार के हाल किसी विकासशील देश की तरह दिख रहे थे जिसको विकसित देशों ने विकास के नाम पर विनिवेश के नाम पर खोखला कर दिया हो।
मुक्त अर्थव्यवस्था की शिकार कार |
दायीं तरफ़ एक पेड़ एकदम सूखा खड़ा था। मैं यह तय नहीं कर पाया कि उसे मार्गदर्शक पेड़ कहूं या फ़िर समाज की संवेदना का मूर्तिमान रूप। आप अपने हिसाब से तय कर लीजियेगा।
आगे सड़क किनारे फ़ुटपाथ पर एक रिक्शेवाला अपने रिक्शेपर शहंशाहों की तरह लेटा हुआ सो रहा था। पुराने समय में जैसे योद्धा लोग घोड़े की पीठ पर नींद पूरी कर लेते थे उसी अंदाज में अपनी नींद पूरी करते हुये। दुष्यन्त कुमार का शेर याद आ गया:
सो जाते है फुटपाथ पर अखबार बिछाकर,
मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।
मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।
रिक्शे पर सोता रिक्शे वाला |
माल रोड पर वन वे ट्रैफ़िक होता है। सुबह के समय चौराहे पर सिपाही नहीं था। मौके का फ़ायदा उठाकर सवारियां वन वे को टू वे बनाते हुये आ जा रही थीं।
लौटते हुये एक कालोनी में घुस गये। सोचा सड़क आगे मिलेगी। कई लोग अपने घर के सामने की सड़क गीली कर रहे थे। कालोनी खत्म हो गयी। सड़क की जगह दीवार मिली। आखिरी मकान के सामने हमको धर्मवीर भारती की कहानी का शीर्षक याद आया-’ बन्द गली का आखिरी मकान’।
आखिरी मकान से हम वापस लौटे। एक मकान के सामने अमलतास का पेड़ खिल-खिलाकर सुबह का स्वागत कर रहा था। सुबह हो गयी थी।
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