Sunday, May 27, 2018

चीजें दुनिया से खत्म नहीं होतीं, सिर्फ जगह बदलती हैं

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, मुस्कुराते लोग, लोग खड़े हैं, बच्चा और बाहर
सुबह की उजास सी अनन्या अपने भाई के साथ
सुबह घर से निकलते ही बच्चे आते दिखे। गलबहियां। बहन-भाई हैं। सुबह की उजास से प्यार बच्चे दुकान से कुछ सामान लेकर लौट रहे थे। बहन अनन्या एल के जी में पढती है। फ़ोटो खिंचाने को कहा तो फ़ौरन तैयार हो गये। देखकर खुश भी।
बाहर ही चौकीदार अभय सिंह डंडे के सहारे चलते हुये मिले। पान की दुकान के पास। हमने दुकान वाले से पूछा -’इनके पैसे कम कर दिये आप लोगों ने।’
दुकान वाले ने कहा-’ऐसा तो नहीं। महीना होने पर मिलेगा पैसा।’
अभय सिंह ने दुकान वाले को बताया कि साह्ब ने हमारी तीन फ़ोटो खींची है। फ़िर बताया-’ हमारे साहब बता रहे थे कि नेट पर तुम्हारी फ़ोटो छप गयी। प्रधानमंत्री तक पहुंच जायेगी।’
हमने कहा-’ प्रधानमंत्री जी तक पहुंचेगी तब तो लफ़ड़ा हो जायेगा।’
कान्फ़ीडेन्स के साथ बोले-’ क्या लफ़ड़ा होगा? कोई लफ़ड़ा नहीं। बुलायेंगे तो चले जायेंगे। रोजगार मांग लेंगे अपने लिये।’
हम पलटकर सड़क की तरफ़ देखने लगे। एक मोटरसाइकिल वाला तौलिया में सिलेंडर लपेटे आगे लिये जा रहा था। गोदबच्चे की तरह। सिलेंडर को बच्चे की तरह गोद में समेटे हुये मोटर साइकिल सवार ऐसा लग रहा था गोया कोई जमा हुआ मठाधीश अपने पालक-बालक को गोद में उठाकर स्थापित कर रहा हो। अपने बुढापे का इंतजाम कर रहा हो।
घर के बाहर पेड़ के नीचे आलथी-पालथी मारकर बैठी एक बच्ची इम्तहान के पहले की आखिरी वाली पढाई कर रही थी। अगम पाण्डेय औरैया से बीटीसी का इम्तहान देने कानपुर आई थी। उसके साथ आये अभिभावक ने बताया -’एमएससी की है बच्ची ने। सेलेक्शन हो गया था लिखित में। लेकिन सपा सरकार में सेलेक्शन हुआ नहीं। सब खास लोगों का हुआ। जनरल की कोई सुनवाई नहीं।’
पुरानी सरकार के इम्तहान में ’धड़ल्ला नकल अभियान’ का जिक्र किया। हमने पूछा इस बार तो नहीं हुई नकल। बोले-’ फ़ूलपुर चुनाव में हार से घबड़ा गई सरकार। सबको नम्बर बढा कर पास कर दिया। 23 नंबर को 53 बना दिया। सब सरकारें एक जैसी हैं आजकल।
देर हो गयी थी आज निकलने में। फ़ोन किया तो पता चला पंकज बाजपेयी अपने ठीहे के पास दुकान वाले से एक पीस बर्फ़ी खाकर घर चले गये हैं। देर तक हमारा इंतजार करने के बाद। यह कहते हुये-’भैया आयेंगे तो उनको ऊपर भेज देना, हम वहां इंतजार कर रहे हैं।’
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं
पंकज बाजपेयी अपने ठीहे पर
तिवारी की दुकान पर पंकज बाजपेयी के लिये जलेबी, दही, समोसा तौलवाते हुये हमने दो बार मोबाइल ऊपर की जेब में रखना चाहा। दोनों बार मोबाइल सटाक से जांघ के पास तक पहुंचकर हाथ में आ गया। पता चला जिसे शर्ट समझकर उसकी ऊपरी जेब में हम मोबाइल धर रहे थे वह शर्ट न होकर बिना जेब वाली टी-शर्ट थी। दो बार मोबाइल के जमीन में गिरकर टूटने के संभावित नुकसान से बचत हुई। खुद को चपतिया के सावधानी का नारा बुलन्द किया और आगे बढे।
पंकज बाजपेयी वापस लौट चुके थे अपनी ठीहे पर। गये वहां तो जीने में बैठे अखबार बांच रहे थे। आल्थी-पालथी मारे बैठे। मानो कोई फिटनेस चैलेंज एक्सेप्ट कर लिए हों। हमको देखते ही ’अटेंशन’ हो गये। जलेबी, दही, समोसा लिया। कहा -’वो हलवाई केवल एक बर्फ़ी देता है। बिस्कुट भी नहीं देता।’
हमने कहा -’ अब देगा। कह देंगे।’
बोले-’ अच्छा।’
बगल के घर में एक लड़की सफ़ाई कर रही थी। हमने पूछा -ये कौन हैं, क्या नाम है इनका?’
बोले -’खुशबू। खुशबू नाम है।’
खुशबू के घर वाले पंकज के लिये चाय-पानी नाश्ता का इंतजाम करते हैं। खाना बगल के घर से आता है। वही शायद पंकज के घर वाले या दूर के रिश्तेदार हैं। फ़िलहाल उसमें ताला लगा था।
चलते हुये बोले-’ तुम चिन्ता न करना। हमारे रहते तुमको कोई छू नहीं सकता। तुम्हारी सुरक्षा की गारंटी हमारी है।’
चलते समय चाय के लिये पैसे लेना नहीं भूले। सीढी के ऊपर से वाई-फ़ाई प्रणाम भी किया। बोले-’ भाभी जी को हमारे चरण स्पर्श कहना। हमने कहा- ’कह देंगे। कर भी लेंगे।’
लौटते हुये चटाई मोहाल से होते हुये आये। सड़क किनारे कुछ बच्चे मिट्टी में कंचे खेल रहे थे। कूड़े में ही कंचों के ’पिच्चुक (होल)’ बनाये उसमें कंचे उंगली तानकर घुसाने की कोशिश में मशगूल बच्चे।

तमाम लोग अपने बचपने को याद करते हुये कंचे खेलने, टायर चलाने और दीगर तमाम चीजों को याद करते हुये कहते हैं -’ अब वो बचपन नहीं रहा। वे चीजें खतम हुईं।’ लेकिन बच्चों को कंचे खेलते देख एक बार फ़िर मुझे लगा कि तमाम चीजें दुनिया में खत्म नहीं होतीं, सिर्फ़ जगह बदलती हैं। एक के जीवन से दूर हो जाती हैं। लेकिन कहीं और उसी तरह गुलजार रहती हैं।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर
चटाइयों की दुकान
वहां छोटी-छोटी चारपाइयां सड़क किनारे पड़ीं थीं। कम ऊंचाई वाले दरवाजों से लोग अंदर-बाहर आ-जा रहे थे। एक अधेड़ उमर का आदमी एक बच्चे को अपने हाथ में अल्युमिनियम का कटोरा लिये मारने के लिये दौड़ाता दिखा। बच्चा सरपट निकल गया। अधेड़ अपने हाथ में कटोरा और मुंह लिये खड़ा रहा। उसका गुस्सा बिना उतरा रह गया। उसके गुस्से को देखकर हमको खोया-पानी वाले मिर्जा का गुस्सा याद आ गया।
“ मिज़ाज, ज़बान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट,पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था।’
सड़क किनारे एक चटाई की दुकान पर खड़े होकर ताकने लगे। एक ग्राहक फ़ोल्डिंग वाली चटाई ले जा रहा था। मेरा सामने दुकान वाले ने रोलर लगाय़े। आठ सौ रुपये लिये। जमीन को छुआते हुये बोहनी की। ग्राहक को विदा किया और चटाई बीनने लगा।
उसने बताया कि चटाई बीनने की बांस की खपच्चियां असम से आती हैं। गर्मी में काम अच्छा चलता है। बाकी दिनों में ठण्डा रहता है मामला।
चटाई बीनने की जगह और उसके घर के बीच की नाली कीचड़ और पालीथीन से बजबजाते हुये स्वच्छता अभियान के बारह क्या पन्द्रह-सोलह और बीस तक बजा रही थी। गन्दगी के साम्राज्य में स्वच्छता बेचारी कहीं कोने में दुबकी खड़ी होगी। दिख नहीं रही थी।
चटाई बिनाई के बारे में ज्यादा बात करने की हमारी कोशिश को दुकान वाले के इस डायलाग से झटका लगा -’हमारे पास फ़ालतू टाइम नहीं यह सब बताने के लिये। चटाई लेना हो तो बताओ।’ यह उसकी भलमनसाहत ही रही कि उसने अपनी निगाहों का हिन्दी अनुवाद (वर्ना अपना रास्ता नापो) नहीं सुनाया।
हम आगे बढ लिये। एक जगह एक आदमी अपने कान का मैल निकलवा रहा था। सड़क पर गुम्मों के पीढे पर बैठा मैल निकलवाते हुये अपनी नींद भी पूरी करते जा रहा था। एक कान का स्वच्छता अभियान पूरा होने के बाद उसने दूसरा काम ’कनमैलिय ’ के हवाले किया और फ़िर बैठे-बैठे सो गया। मैल निकालवे वाले उसकी नींद में खलल डाले बिना उसके काम में सींक-सलाई टहलाता रहा।
एक जगह दुकान के बाहर मैनिक्विन की दुकान थी शायद। बाहर प्लास्टिक के कपड़े डोरियों पर लहराते हुये एक बारगी लगा कि यहां भीकोई कपड़े दिखाते हुए सहज रहने का चैलेंज एक्सेप्टेड वाला अभियान चल रहा हो।
बांसमंडी में एक ट्रक बांस उतर रहे थे। लोग उसको ठीहे से लगा रहे थे। आगे पटरी पर तमाम रेहड़ी वाले कपड़े बेंचने के लिये दुकान सजा रहे थे। पटरे वाले जांधिया, अंगौछा , बनियाइन और तमाम चीजें। रेहड़ी वालों से आगे जाकर Shashi Pandey जी की बात याद आई- 'रेहडी वालो की गठरी में बहुत व्यंग्य होता है।'
मन किया लौटकर दो-चार किलो व्यंग्य तौलवा लें लेकिन आलस्यवश लौटने का जब तक फ़ाइनल करते तब तक कत्तई दूर पहुंच गये थे। फ़िर आगे ही बढ गये।
एक बार फ़िर लौटते में तिवारी स्वीट्स पड़ा तो हम भी जलेबी खाने उतर गये। एक बार फ़िर मोबाइल बिना जेब वाली टी शर्ट की ऊपरी जेब में डालने की कोशिश की। ऐन टाइम पर नीचे गिरते मोबाइल को संभालने का सुकून मिला।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं
अनूप जैन पैर में घाव लिए पूड़ी खाते हुए
दुकान के बाहर एक रिक्शे वाला पास की ही ठेलिया से दही बड़े खरीदकर पास की पूड़ी खाने में मशगूल हो गया। पता चला कि कल हसन मशाले वालों ने पूड़ी , सब्जी और लड्डू बांटे थे। उसमें से सब्जी और लड्डू तो खत्म हो गये थे रात को ही। पूड़ी बची थीं। उसे ठिकाने लगा रहे थे रिक्शेवाले भाई अनूप जैन।
पचास की उमर के आसपास के अनूप जैन का घर-परिवार नहीं। बसा भी नहीं। बोले-’ बिना काम-धाम वाले और बिना घर-परिवार वाले को कौन अपनी लड़की देगा।’
रिक्शे की गद्दी पर पांव धरकर पूड़ी खाते हुये उनकी टांग में कई घाव दिखे। करीब आठ-दस ठीक हो गये थे। एक बचा था और ताजा था। बोले-’इलाज करा रहे हैं। ठीक ही नहीं होता। दर्द करता है लेकिन रोजी के लिये रिक्शा तो चलाना ही है।’
बताया कि प्रधानमंत्री तक को अपने काम के लिये चिट्ठी लिखी। कहीं कोई जबाब नहीं आया। किसी जगह कोई सुनवाई नहीं।
जिसे देखो वही आजकल सारी आशायें प्रधानमंत्री से ही लगाये बैठा है।
लौटकर घर आ गये। दिन आधा हो गया और हमारी तो कायदे से सुबह भी न हो पायी। वो कविता है न:
सबेरा अभी हुआ नहीं है
पर लगता है
यह दिन भी सरक गया हाथ से
हथेली में जकड़ी बालू की तरह।
अब सारा दिन
फ़िर
इसी एहसास से जूझना होगा।
चला जाये अब। आप भी मजे करिये। चैन से रहिये। मस्त-बिन्दास। अपन भी अब फिटनेस चैलेंज एक्सेप्ट करते हुए सोने का मूड बना ही लिए हैं।



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