मांगने वाले लाइन से बैठे हैं |
कल सबेरे निकले टहलने। अगले पहिये में हवा कुछ कम थी। लेकिन चल चकाचक रही थी। जरा भी नखरे नहीं। हमारी साइकिल गऊ है इस मामले में। कोई दूसरी सवारी होती तो उलाहना देती कि हफ़्ते भर से छुआ तक नहीं, आज सवार होने आ गये।
मोड़ पर फ़ुटपाथ पर रहने वाला परिवार झोपड़ी के बाहर बैठा था। मां, बेटिय़ां और लड़का शायद। बीच घेरे में पत्थर के टुकड़े रखे थे। शायद ’गुट्टा’ खेलने के लिये। आपस में चुहल टाइप करते बतिया रहे थे।
स्कूल की चहारदीवारी के गेट पर छुटके से बोर्ड पर लिखा था-’ कृपया यहां गाड़ी पार्क न करें।’ बताओ भला सड़क से छह फ़ुट ऊपर कौन गाड़ी खड़ी करेगा आकर।
सड़क पर ढलान थी। साइकिल सरपट उतरती चली गयी। उतरने मतलब नीचे गिरती। नीचे गिरने में कोई ताकत थोड़ी लगानी पड़ती है। ऊर्जा का रूपान्तरण होता है बस्स। स्थितिज ऊर्जा से गतिज ऊर्जा में। इसीलिये दुनिया भर में तमाम लोग उतरते चले जा रहे हैं। पतित होते। पतन में मेहनत नहीं लगती है न।
सामने से एक आदमी साइकिल के हैंडलों में प्लास्टिक के डब्बों में पानी भरे लिये जा रहे था। चढाई पर उचक-उचककर साइकिल चलानी पड़ रही थी उसको। पसीना-पसीना होते हुये। साइकिल पर पानी ले जाते देखकर देश में पानी की कमी के बारे में सोचने लगे। कल को पानी और दुर्लभ हो जायेगा तब शहर भर में पानी की जगह-जगह दुकाने खुल जायेंगी। ठेलियों पर पानी बिकेगा। जगह-जगह पानी के चलते-फ़िरते बाथरूम मिलेंगे। ओला-उबेर की पानी टैक्सियां चलेंगी। ओला-उबेर ट्वायलेट चलेंगे। जहां प्रेशर बढा गाड़ी बुक कीजिये, निपटिये और सुकून की सांस लीजिये।
ढलान से उतरते हुये गंगा घाट की तरफ़ मुड़ गये। सीमेंट की सड़क किनारे बस्ती गुलजार थी। एक घर के सब लोग मिलकर झोपड़ी की छत की मोमिया दुरस्त कर रहे थे। जहां उघड़ी थी वहां दूसरी मोमिया का पैबन्द लगा रहे थे। लकड़ियां रखकर बरसाती उड़ने से बचने का इंतजाम कर रहे थे। वहीं सड़क पर एक बुजुर्गवार दो फ़ुट की एक मोमिया को सिलते दिखे। किसी के लिये कूड़ा हो चुकी पालीथीन को सिलकर अपने काम की बनाते हुये। बुजुर्गवार को तसल्ली से मोमिया सिलते देखकर हमको अपनी अम्मा की याद आई जो गर्मियों की दोपहरी में तमाम तरह के छोटे कपड़े के सैम्पलों को सिलकर दरी, चादर जैसी चीजें बनाती रहती थीं।
दुनिया में एक का कूड़ा दूसरे के लिये काम की चीज हो जाता है।
घाट किनारे मांगने वाले लाइन से बैठे थे। ईंटों की कुर्सियों पर। कुछ लोग जमीन पर भी। एक आदमी आया। झोले से खाना निकालकर सबको देने लगा। मांगने वालों में से एक ने बंटवारे में सहयोग किया। सहयोग करने वाला एक मांगने वाले की बुराई कर रहा था- ’ रोज पांच रोटी, चावल मिलता था। आज चावल नहीं तो आठ रोटी मिली। उस पर नखरे कर रहा कि आज चावल नहीं मिले।’ यहां के पहले ’चरस’ में था। वहां भी ऐसे ही नखरे पेलता था। नये (मांगने वालों) पर रोआब गांठता था, पुरानों से झगड़ता था। भगा दिया उन लोगों ने। यहां आया तो हमने मना नहीं किया। लेकिन इसके नखरे ही नहीं मिलते।
’चरस’ से हमें लगा कि अगला चरस का लती होगा लेकिन फ़िर मालूम हुआ कि वह ’चरस’ नहीं ’चरच’ कह रहा। चरच माने चर्च। चर्च में मांगता था ये तथाकथित नखरेबाज मांगने वाला। नखरे पर उसके साथी को एतराज है। मतलब कि आप मांगने पर नखरा करने के अधिकारी नहीं रह जाते।
गंगा में नाव |
अंदर चले गये। गंगा में पानी बढ गया था। जल-स्वस्थ हो गयीं थी। जल-चर्बी चढी गंगा में नावें भी चल रहीं थीं। बाढ के पानी के साथ कूड़ा-कचरा भी बह रहा था। मटमैला पानी हड़बड़ी में भागता चला जा रहा था। उसको डर था कि कहीं रुका तो अपहरण न हो जाये। कोई कैद न कर ले पानी को।
दो बच्चियां घाट पर पानी की बढत देखती हुई आपस में बतिया रहीं थीं। कल दो ईंट नीचे था पानी। आज वो ईंट डूब गयी है।
घाट पर कुछ कमरों के बाहर बोर्ड लगा था - ’महिलाओं के कपड़े बदलने का कमरा।’ कुछ महिला शौचालय/पुरुष शौचालय वाले बोर्ड भी लगे थे। सब कमरों/शौचालयों में ताले जड़े हुये थे। लिंक के ताले जो सिर्फ़ अपनी ही चाबी से खुलते हैं। जनसुविधाओं पर शायद किसी -महंत का कब्जा होगा।
बाहर फ़िर वही लाइन से बैठे भिखारी। मंदिर से निकलते ही एक आदमी ने उनके पास खड़े होकर पूछा-’कितने लोग हो?’ एक ने पहले पन्द्रह। फ़िर बोला- बारह। उस आदमी ने जेब से सिक्के निकालकर गिनती बताने वाले को थमा दिये। उसने सबमें बराबर-बराबर बांट दिये। कोई घपला नहीं हुआ। यही काम किसी सरकारी विभाग को दिया जाता तो भीख-घोटाला हो जाता।
प्लास्टिक के बोर्ड को साफ करता बालक |
एक झोपड़ी के सामने दो बच्चियां चारपाई पर बैठी स्टील के ग्लास में चाय पी रहीं थीं। उसके बगल में एक बच्चा एक प्लास्टिक के साइनबोर्ड को पानी से साफ़ कर रहा था। साइनबोर्ड हुंडई सर्विस सेंटर का था। शायद सर्विस सेंटर के बाहर लगा हो उसको उतारकर कोई लाया हो। बच्चे की देखा-देखी एक और बच्चा दूसरे सिरे से उसको साफ़ करने लगा। बोर्ड पर पानी के चलते वह फ़िसल रहा था बार-बार। एक बार कुछ ज्यादा फ़िसल गया। लद्द से गिर पड़ा बोर्ड पर ही। रोने लगा। उसको रोते देखकर चारपाई पर बैठी बच्ची ने ग्लास की चाय का आखिरी घूंट लिया और ग्लास जमीन पर धरकर उठकर छोटे बच्चे की पीठ पर एक धौल जमाया। छुटका और जोर से रोने लगा। छुटके के बाद उसने जिम्मेदारी से सफ़ाई में जुटे बड़के की पीठ पर दो हाथ जमाये और वापस चारपाई पर आकर बैठ गई। मतलब घुन के साथ गेहूं भी पिस गया। बड़ा, सफ़ाई करता बच्चा भी बुक्का फ़ाड़कर छुटके के साथ ’रोने की जुगलबंदी’ करने लगा। स्वच्छता अभियान बाधित हो गया। अच्छी मंशा से शुरु किये जाने वाले तमाम अभियान इसी तरह बाधित होते रहते हैं।
ठेले पर सोता बालक, छत को बरसाती से ढंकते लोग और सड़क पर गुजरती जिंदगी |
आगे एक महिला कांक्रीट की सड़क को आंगन की तरह इस्तेमाल करती हुई अपनी धोती धो रही थी। हैंडपम्प के पानी में एक आदमी नहा रहा था। धोती रगड़ने-फ़ींचने से निकलता हुआ साबुन सड़क से होते हुये पास की नाली तक जा रहा था।
इस बीच वह भिखारी आते हुआ था जिसकी आलोचना कर रहे थे लोग। हमें लगा नाराजगी में भिखारी-दल का बहिष्कार करके आया है। लेकिन पूछने पर बताया कि उसको कपड़े धोने हैं इसलिये वापस जा रहा था। कुछ वैसे ही जैसे लोग जरूरी काम होने पर सोशल मीडिया से कट जाते हैं। काम होने पर फ़िर जुड़ जाते हैं।
लौटते हुये सोचा कि शायद झोपड़ी के बाहर लोग अभी भी गुट्टा खेलते दिखें। लेकिन वहां अब कोई नहीं था। सब शायद काम पर जा चुके थे।
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