शाम टहलने निकले। अधबने पुल के बगल की संकरी सड़क को रौंदते हुये निकल रहे थे। धूल-गिट्टीलुहान सड़क उस सरकारी दफ़्तर के कर्मचारी सरीखी हो रही थी जहां लोग रिटायर होते जा रहे हों और काम बढता जा रहा हो! पुराना और नया काम दोनों बचे हुये लोगों पर लादा जा रहा हो।
पुराने लोगों के रिटायर होने और उनकी जगह नए लोगों के न आने से दफ़्तरों की कार्यक्षमता और कामचोरी की काबिलियत दोनों में बढोत्तरी की संभावनायें रहती हैं। लोग काम करने वाले हुये तो कार्यक्षमता बढती लगती है। कामचोरी करने वाले लोग हुये तो कम लोग ज्यादा लोगों का काम टाल सकते हैं।
सड़क पर एक सांड खरामा-खरामा टहल रहा था। आती-जाती भीड़ से बेपरवाह। उसको देखकर लगा गोया किसी लोकतंत्र में भ्रष्टाचार , कानून व्यवस्था से बेपरवाह, तसल्ली से टहल रहा हो। सांड की पूंछ गोबर से सनी हुई थी- शहर के स्वच्छता अभियान को ठेंगा दिखाती हुई। सांड़ की पीठ पर परिवार नियोजन की चिन्ह की तरह बने छोटे तिकोन से खून निकल रहा था। किसी ने अपने चाकू या त्रिशूल की हो शायद।
तिराहे पर रिक्शे से एक सवारी उतरी। सड़क पर उतरकर लड़खड़ाई। सर सड़क की तरह झुक गया। हमे लगा नागिन डांस करेगा। लेकिन सड़क पर कोई बैंड नहीं था। लिहाजा वह सड़क को प्रणाम करने की मुद्रा में सर झुका। सर झुका तो बाकी का शरीर भी सड़क की तरफ़ झुक गया। अंतत: पूरा शरीर ही सड़क से जुड़ गया। चारो खाने चित्त। पीठ सड़क से जुड़ी, पेट आसमान की तरफ़।
कुछ देर बाद उसने उठने की कोशिश की। लड़खड़ाया , भहराकर गिर गया। फ़िर कोशिश की। फ़िर धराशायी हुआ। फ़िर उठने की कोशिश की। लगता है बचपन में पढी हुई कविता उसके दिमाग में बार-बार हल्ला मचा रही थी:
"कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।"
गिरते हुये उठने की कोशिश में बार-बार हाथ किसी सहारे की तलाश वाली मुद्रा में रहता। चुनावी मौसम में टुटपुंजिया पार्टियों के नेता जिस तरह किसी गठबंधन के लिये बेकरार रहते हैं वैसे ही वह बार-बार किसी सहारे की तलाश में था। हम कुछ देर तक बगल में खड़े उसका सागर की लहरों की तरह गिरना-उठना-गिरना देखते हुये बोर से हो गये। बोरियत दूर करने के लिये उसके उठे हुये हाथ को थाम लिया।
हमारे हाथ थामते ही उसने उठने की कोशिश बन्द कर दी। उठाने का कम हमको सौंप दिया। हम उसको उठाने की कोशिश करें तो वह बार-बार गिरने लगा। अंतत: हमारे साथ कुछ और हाथ जुड़े और उसको खड़ा कर दिया। हमारी कोशिश का विरोध वह बार-बार टेढा होकर गिरने की कोशिश करके करने लगा। लेकिन बहुमत के आगे उसकी एक न चली। उसको खड़ा होना पड़ा।
गिरे हुये आदमी को खड़े करते ही हमने उससे सवाल पूछने का अधिकार बिना बताये हासिल कर लिया। तथाकथित भलाई करने वाले भलाई करने के बाद आमतौर पर बहुत बुरा सलूक करते हैं। जिसके साथ भलाई करते हैं उसको पूरी तरह अपने कब्जे में लेने की फ़िराक में रहते हैं।
हमने सीधे-सीधे पूछा- ’इतनी क्यों पी लेते हो कि सड़क पर चल नहीं पा रहे।’ उसने मेरे सवाल की मासूमियत पर फ़िदा हुये बिना जबाब दिया-’ मैं पीता नहीं हूं लेकिन आज रिश्तेदारी के चक्कर में फ़ंस गया।’
’मैं पीता नहीं हूं , पिलाई गयी है।’ घराने का जबाब सुनकर हमारे पास कुछ करने को नहीं था। दारू पिये हुये आदमी के साथ जो दंगा न कर रहा हो कुछ किया भी तो नहीं जा सकता है। वैसे भी किसी को दारू पीने से रोकना मतलब गाय सेस कम करना है। गो सेवा में बाधा पहुंचाना है। कौन बबाल मोल ले।
हमारा हाथ थामे-थामे उसने पूछा -’इस समय मैं कहां हूं? यह कौन जगह है?’
हमने बताया तो उसने हमारा हाथ थामे थामे कहा- ’हमको जयपुरिया क्रासिंग के पास हमारे घर पहुंचा दो।’
हमारे हाथ में उसकी पकड़ मजबूत होती जा रही थी। हमने कई रिक्शे रोके। कोई रुका नहीं। सबको अपने अड्डे पहुंचने की जल्दी थी। आखिर में एक भला रिक्शेवाला रुका। उसने उसको लादा। चला गया।
आदमी तो लद गया। बैठ गया सीधे। लेकिन उसके भीतर की दारू ने उसको बताया कि सीधे क्यों बैठे हैं जहांपनाह? शहंशाह की तरह तख्तनशीं होइये। सीधे बैठने से लोगों में आपका रुआब कम होगा। अंदर की दारू की बात मानकर वह रिक्शे की सीट को पर उसी अंदाज में पसर गया जिस अंदाज में कभी तख्तेताउस शहंशाह लोग पसरते होंगे।
लौटकर घर आते हुए सोच रहे थे कि गरीब आदमी के रिश्तेदार कितने भले होते हैं जिनके चक्कर में फंसकर आदमी दारू पीता है जिसके सेस से गायों की रक्षा होती है। देश में पी हुई दारू देश की ही सड़कों पर उलट देते हैं। अमीरों के रिश्तेदार तो लूटपाट कर फूटफाट लेते हैं। देश में लूटा हुआ पैसा विदेश में फूंकते हैं। सफेद दूधिया पैसे को काला कलूटा बना देते हैं।
सुबह देखा एक कुतिया अपने बच्चों को दूध पिला रही थी। ये पिल्ले हमारे लिए चाहे जो हों , उसके तो नजदीकी रिश्तेदार हैं।
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