Friday, April 19, 2019

अधभरे पेट की दास्तान



कल रात फुटपाथ पर दो बुजुर्ग बतियाते दिखे। हम भी शामिल हो गए गुफ्तगू में। एक गेरुआ कपड़ों में , दूसरे धवल वस्त्र धारण किये।
'गेरुआ बुजुर्ग' का ठिकाना है यह। फुटपाथ पर बिस्तर। साथ में कुछ सामान। बगल में काली मोमिया। शायद बरसात से बचाव का साधन।
'कहाँ के रहने वाले हैं ?' पूछने पर हमको प्रतापगढ़, गोरखपुर, बनारस, उन्नाव, जौनपुर तक टहला दिया। कुछ तो बुजुर्ग अस्पष्ट आवाज और बहुत कुछ ट्रैफिक का शोर, समझ में नहीं आया कि कह क्या रहे हैं। लब्बोलुबाब यही निकला कि इधर ही डेरा है आजकल।
नाम पूछने पूछने पर पूछा -'असली बताएं कि नकली?'
हम बोले-'दोनों बताओ।'
दोनों नाम बताने की चुनौती स्वीकारते हुए बांह आगे की कहा -'पढ़े लिखे लगते हो। लेव पढ़ लेव।'
बांह में नीली स्याही से नाम गुदा था -'धनपत।' हमको मुंशी प्रेमचंद याद आये जिनका नाम धनपतराय था।
हमने कहा अब दूसरा नाम भी बता दो। बोले -'भगत।'
मुंशी जी की ही कहानी याद आई 'मन्त्र'। कहानी के पात्र भगत जी झाड़-फूंक का काम करते हैं। डॉक्टर चड्ढा के बच्चे की जान बताते हैं।

बात बात में पता चला कि यहीं सोते हैं। यह भी कि शाम को 'पेटपूजा' नहीं हुई। साथ वाले धवल बुजुर्ग पास में झाड़ी बाबा के पास कहीं खा कर आये हैं। कोई खिला देता है। हमने पूछा-'जहाँ से खाकर आये वहीं से इनको भी खिला लाओ।
इस पर सफेद कपड़ों वाले बुजुर्ग बोले। डर लगता हैं। कम दिखता है। अंधेरे में कोई गाड़ी कुचल न जाये इस डर से अब नहीं जाएंगे। हमने कहा -'बगल के होटल से खा लो। पैसे हम दे देंगे।' इस पर कुछ बोले नहीं भगत जी।
हमने पूछा कब से नहीं खाये? तो बोले-'कल से नहीं खाये।' कहकर चुप हो गए।
हम और साथ के बुजुर्ग चल दिये। हम पैदल चल रहे थे। हमारे साथ में सफेद कपड़े वाले बुजुर्ग बैठे-बैठे सड़क पर हथेलियों के बल आगे बढ़ रहे थे। बताया कि किसी गाड़ी ने ठोंक दिया था। सीधे खड़े होने और चलने से मोहताज हो गए हैं। नाम बताया -नंदकिशोर।
पता चला कि नंदकिशोर की पत्नी रहीं नहीं। बच्चे हैं नहीं। उम्र करीब 50-60 । घिसटते हुए आगे बढ़ते हुए होटल के सामने याद दिलाकर बोले -'यहां से भेज देव खाना भगत के लिए।'
हमने होटल वाले से कहा -'भगत के लिए दो रोटी दाल भेज दे।'
होटल वाले बोले -'वो दो रोटी नहीं खाता। पांच रोटी खाता है। दाल नहीं अंडा होगा। '
हमने कहा -'ठीक है पांच भेज दो। अंडा भी। कित्ते पैसे हुए हम दे देंगे।'
उसने 15 रुपये लिए। पाँच रोटी और अंडा के लिए इतने कम रुपये मुझे ताज्जुब लगा। लेकिन अच्छा भी लगा कि 15 रुपये में भलाई का पुण्य खाते में जुड़ गया।
आगे नन्द किशोर अपनी गली में मुड़ कर रुके थे। नुक्कड़ वाले से कुछ ले रहे थे। हमने कहते सुना -'छोटा वाला देना।' हमें लगा कि शायद 'पौवा-पाउच' खरीद रहे हों। दिमाग दूसरे के बारे में खराब आसानी से सोच लेता है। लेकिन फिर पता चला कि मसाले की पुड़िया खरीद रहे हैं।
हम दोनों अपने-अपने रस्ते आगे बढ़ गए। हमको बाजार जाना था।

रास्ते मे हम सोचते रहे कि चुनाव लड़ने वाली पार्टियों ने किसी न किसी तरह हर एक को अगले कुछ सालों में घर देने का वादा किया है। क्या भगत और नन्दकिशोर जैसे लोग भी इस लिस्ट में हैं जिनको घर देने की बात कहती हैं पार्टियां? क्या इनको भी कुछ हजार मिलेंगे घोषणाओं के हिसाब से ?
इसका जबाब शायद 'नहीं' में ही है। आने वाले वर्षों में भी इनके हाल ऐसे ही रहने हैं।
लौटते हुए मन किया कि भगत जी के हाल देखते हुए चलें। खाना मिला कि नहीं भगत को। इससे ज्यादा यह चिंता थी कि देखें 15 रुपये के पुण्य खाते में चढ़ा कि नहीं।
भगत जी सर तक चादर लपेटे सो रहे थे। 'खाना मिला कि नहीं' पूछने पर बोले-'रोटी ठंडी थी। अंडा बहुत कम था। पेट नहीं भरा।'
हमारे पुण्य को ग्रहण सा लग गया। हमने कहा -'और कुछ खा लेव जिससे पेट भर जाए (और पुण्य की एंट्री हमारे खाते में हो जाये)। इस पर भगत जी -'अब कल ही भरेगा पेट' कहते हुए करवट बदलकर लेट गए।
हम भी घर लौट आये। भूख तेज हो गयी थी।
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