कल सुबह घूमकर लौटे तो साढ़े नौ बजे गए थे। नहाते-नाश्ता करते 11 हो गए। किधर निकला जाए घूमने यह सोचा गया। पहले सोचा गया न्यूयार्क पर धावा बोला जाए लेकिन फिर तय हुआ कि 'स्टेच्यू आफ लिबर्टी' देखने चलें।
Saurabh हमको उस जगह तक छोड़ने आये जहां लिबर्टी द्वीप जाने की फेरी मिलती है। टिकट खिड़की पर महिला अपने मोबाइल पर कुछ देख रही। खिड़की पर बुलाये जाने पर आगे आने( कम इन कॉल) की सूचना का बोर्ड लगा था। यह नहीं कि पहुंच गए और हाथ घुसा दिया -'मैडम दो टिकट स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी।'
टिकट लिए। एक टिकट का दाम $18.95 । फेरी कुछ देर बाद ही थी। चल दिये फेरी की तरफ। रास्ते में चलाने को सायकिल भी मिल रहीं थी। लेकिन समय कम था इसलिये चलाये नहीं।
टिकट अपने फॉरेक्स कार्ड से लिये। खर्च की शुरुआत हुई। टिकट मिल गया तो यह तसल्ली हुई कि कार्ड चल रहा है।
जहां टिकट मिलता है वहीं सामने एक पुराना संरक्षित रेलवे स्टेशन भी था। एक कई पटरियां जैसे हावड़ा रेलवे स्टेशन दिखता है। लेकिन पटरियां उखाड़ दी गयीं थी तो अगर वहां लिखा न हो और बाहर इंजन न खड़ा हो तो यह समझना मुश्किल होता कि यहां कभी स्टेशन भी था। बिना पटरियों का पुराना स्टेशन किसी ऐसे बुजुर्ग जैसा दिख रहा था जिसके सब दांत उखाड़ दिए गए हों।
फेरी न्यूयार्क हार्बर के मुहाने से चलती है। फेरी के लिए जाते समय जो प्लेटफार्म बना है उस पर से गुजरते हुए नीचे से गुजरते हुए पानी की तेज आवाज सुनकर ऐसे लगता है मानो समुद्र को गैस बीमारी हो और वह मिर्च-मसाले वाला खाने के बाद बहुत तेज डकार ले रहा हो।
दुमंजिला फेरी पर नीचे खाने-पीने की दुकान, निपटान घर भी थे। दुकान के अलावा वाला काम मुफ्त वाला था तो सबसे पहले वही निपटाया। ऊपर बैठने के लिए सीट थीं। उनपर बैठते ही फोटो बाजी शुरू कर दी।
पानी में पक्षी उड़ रहे थे। लेकिन इलाहाबाद के संगम की तरह यहां उनको दाना डालने की सुविधा नहीं थी। लिखा भी था वहां -'पक्षियों को खाना न ख़िलाएं। ' एक गौरैया भी फुदकती दिखी वहां।
फेरी चल दी। अगल-बगल न्यूयार्क की ऊंची इमारतें दिख रहीं थीं। कुछ ही देर में 'स्टेच्यू आफ लिबर्टी' दिखने लगी। पास से। लोग अलग-अलग एंगल से फोटोबाजी में जुट गए। हमने भी कम दुरुपयोग नहीं किया कैमरे । वैसे कैमरे में यादें सुरक्षित भले रहें लेकिन इसके चलते बहुत कुछ देखने से छूट जाता है।
बताते चलें कि 'स्टेच्यू आफ लिबर्टी' दुनिया में आजादी के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक मानी जाती है। फ्रांस के लोगों द्वारा अमेरिका के लोगों को उपहार के रूप में दी गयी प्रतिमा। 28 अक्टूबर, 1886 को स्थापित यह प्रतिमा 40 मीटर ऊंची है। जमीन से लेकर ऊपर तक ऊंचाई 93 मीटर। तांबे की इस प्रतिमा की बनाने में कई साल लगे। पैसे की कमी होने पर लोगों ने चन्दा दिया। 120000 से अधिक लोगों ने चन्दा दिया। इसमें बहुत से लोगों का चन्दा 1 डॉलर से कम था।
स्टेच्यू आफ लिबर्टी के दाएं हाथ में स्वतंत्रता की मशाल, बाएं हाथ में रोमन में अमरीकी आजादी की तारीख 4 जुलाई, 1776 लिखा है। पैरों में टूटती जंजीर के टुकड़े प्रतीक रूप में यह दिखाते हैं कि स्वतंत्रता की देवी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ते हुए आगे बढ़ रही हैं।
विश्व की धरोहरों में शामिल इस स्मारक को 2009 में 32 लाख लोग देखने आए।
फेरी रास्ते में एक जगह रुकी। हमको लगा आ गए। लेकिन वह एक म्यूजियम था। हमें लगा कि कहीं म्यूजियम देखने के चक्कर में फेरी छूट न जाये। पूछा भी तो कुछ पता नहीं चला। लिहाजा बैठे रहे चुपचाप। लोग देखकर आ गए। हमारे हाल 'मैं बपुरा बूढ़न मरा, रहा किनारे बैठ' जैसे रहे ही रहे। अब लग रहा कि दौड़कर देख आना चाहिए। लेकिन कोई नहीं, अगली बार।
कुछ देर में फेरी लंगर उठा। मोटे-मोटे रस्से खुलकर वापस फेरी में धर दिए गए। रस्से उठाने वाले लोगों में महिलाएं भी थीं। उतनी ही फुर्ती से रस्से उठाते हुई जितनी तेजी से आदमी उठा रहे थे। लैंगिग भेदभाव नहीं देखने को मिला मेहनत के मामले में यहाँ। महिलाएं छुई-मुई नहीं समझी जाती यहां।
लिबर्टी आई लैंड पर मूर्ति के पास पहुंचकर खूब देखा मूर्ति को। खूब फ़ोटो खिंचाई। ख़ूबम खूब कैमरे का उपयोग किया। सब तरह के पोज से फोटो खींचकर आगे बढ़े। ऊपर जाने के लिये। लेकिन गार्ड ने बताया कि टिकट केवल नीचे घूमने के लिए और म्यूजियम देखने के लिए है। हम बिना किसी हील-हुज्जत के वहीं मौजूद म्यूजियम की तरफ बढ़ गए।
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