Thursday, March 26, 2020
मुसीबत का मुकाबला डटकर करो
कमरे में खिड़की खोलते ही अनगिनत किरणें बिना मास्क खिलखिलाते हुए बिस्तर, कुर्सी, फर्श पर पसर गयीं। हम उनको दूरी बनाकर रहने को कहते हैं कि भाई दूरी बनाकर रखो। कोरोना से डरो। वे और पास आकर चमकने लगती हैं।
हम सूरज भाई से कहते हैं अरे भाई समझाओ अपनी इन बच्चियों को। कोरोना से बचकर रहना है। दूरी बनाकर रहना है।
सूरज भाई हंसते हुए कहते हैं -'कोरोना इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ये जन्मजन्मांतर ऐसे ही खिलखिलाते रहेंगी। कोरोना इनसे बचने के लिए देश-देश मारा-मारा घूम रहा है। इनकी संगत में रहो तुम भी बचे रहोगे।'
हम क्या बोलें सूरज भाई ऊपर आसमान में चमकते हुए ड्यूटी बजा रहे हैं। पूरे आसमान में छाए हुए हैं । उनके यहां न लाकडाउन न वर्क फ्रॉम होम। जलवा है सूरज भाई का। हो भी क्यों न ! लाखों-करोड़ों डिग्री टेम्परेचर रखते हैं सूरज भाई। पूरी धरती उनके सामने ऐसी जैसे स्विमिंग पूल में कोई कम्पट। उनके लिए क्या कोरोना, क्या फोरोना।
हम सूरज भाई के साथ सेल्फी लेने की सोचे कि जलवेदार हस्ती के साथ फोटो खिंचा कर अपलोड कर दें। डरेगा कोरोना। लेकिन सूरज भाई ने टोंक दिया कि ऐसे भूत बनके सेल्फी न लो। जरा नहा-धोकर राजा बाबू बनकर आओ तब फोटो खिंचवाओ। उजड़े-उखड़े मुंह फोटो खिंचायोगे तो लोग समझेंगे कि कोरोना के डर से कवि हो गए हो।
हम बोले ठीक। आते अभी नहाकर। सूरज भाई बोले -'हम भी आते जरा रोशनी, गर्मी और उजाले की सप्लाई देखकर।'
ऊपर उठते हुए सूरज भाई कह रहे थे -'चिंता न करो। मुसीबत का मुकाबला डटकर करो। सफाई से रहो, दूरी बनाओ। मस्त रहो। दम बनी रहे, घर चूता है तो चूने दो।'
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Wednesday, March 18, 2020
हम युद्द और शांति में देश की रक्षा तैयारियों में सहयोग कर रहे हैं- Hari Mohan
देश के रक्षा उत्पादन में आर्डनेन्स फैक्टरियों की अहम भूमिका रही है | आर्डनेन्स फैक्टरियों का 218 साल का गौरवशाली इतिहास रहा है भारत की सबसे पुरानी आर्डनेन्स फैक्टरी ’ गन एंड सेल फ़ैक्ट्री’ की स्थापना 1802 में काशीपुर, कोलकाता में की गई थी तब से देश की रक्षा जरूरतों के अनुसार अब तक 41 आर्डनेन्स फैक्टरियां स्थापित की जा चुकी है ।
18 मार्च 1801 में काशीपुर कोलकाता में गन एंड सेल पहली आर्डनेन्स फैक्टरी स्थापित की गई थी | इसीलिए प्रति वर्ष 18 मार्च को आयुध निर्माणी दिवस मनाया जाता है इसी संदर्भ में 15 मार्च 2020 को ओएफबोर्ड कोलकाता के अध्यक्ष एवं चेयरमैन श्री हरि मोहनजी के साथ श्रीरूद्रनाथ सान्याल संवाददाता इंडिया न्यूज़ ने साक्षात्कार लिया । साक्षात्कार का हिंदी अनुवाद आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर के वरिष्ठ हिंदी अनुवादक श्री प्रकाश चन्द्र ने किया। साक्षात्कार के मुख्य अंश यहां पेश हैं।
सवाल: श्री हरिमोहन जी किसी समय भारत में 39 आर्डनेन्स फैक्टरियां थीं अब 41 आर्डनेन्स फैक्टरियां हैं, आर्डनेन्स फैक्टरियों के इतने विस्तृत नेटवर्क का सार क्या है ?
जबाब: रक्षा उत्पादन में आर्डनेन्स फैक्टरियां देश में 1801 से विद्यमान हैं, 1801 में पहली आर्डनेन्स फैक्टरी गन एंड सेल कॉशीपुर कोलकाता में स्थापित हुई थी और 1947 तक 15 आर्डनेन्स फैक्टरियां थीं। आजादी बाद और कुछ उसके और बाद में स्थापित की गईं । इस प्रकार इस समय कुल 41 आर्डनेन्स फैक्टरियां हैं। इस समय आर्डनेन्स फैक्टरी आर्गेनाइजेशन देश की रक्षा की रीढ़ है। देश की पहली स्टील इकाई 1904 में एम0एस0एफ0 ईशापुर में स्थापित की गई। आज जो विस्तृत नेटवर्क रक्षा उत्पादन क्षेत्र में आपको दिखाई पड़ रहा है वह पूरे देश में फैला हुआ आर्डनेन्स फैक्टरियों का नेटवर्क है।
सवाल: आपके नियंत्रण में आर्डनेन्स फैक्टरियों में अभी हाल में क्या कुछ हाईलाईट् है ?
जबाब: परम्परागत रूप से आर्डनेन्स फैक्टरियां देश की रक्षा सेवा में एक संगठित सेटअप है। आर्डनेन्स फैक्टरियां देश की सुरक्षा की इंट्रीगेटेड रीढ़ हैं। इंट्रीगेटेड का अर्थ यह हुआ कि हम अपने विस्फोटक का निर्माण खुद कर रहे हैं। हम अपने हार्डवेयर का निर्माण खुद कर रहे हैं। अर्थात् अपने लिये विस्फोटक खुद बनाते हैं, स्टील खुद बनाते हैं। इस समय हम तोप आदि हथियारों के लिए खुद बना रहे हैं। जो भी हथियार हम बना रहे हैं उसकी पूरी मेटलर्जी हम ही तैयार करते हैं। तोप की बैरल्स का उत्पादन हम अपनी स्टील बनाने वाली यूनिट में कर रहे हैं। जब मैं इंट्रीगेशन शब्द का प्रयोग करता हूं तो उसका अर्थ यह है कि हमारे पास कई निर्माणियां हैं जो केमिकल्स एंड विस्फोटक की मेन्युफैक्चरिंग कर रही हैं।
हमारे पास सभी प्रकार के हार्डवेयर और एम्युनेसन निर्माणी की सुविधाएं हैं। हमारे पास सभी प्रकार के वीपेन और सभी प्रकार के रॉ-मैटेरियल बनाने की सुविधाएं हैं। हमें जो भी चाहिए होता है, ब्रास, स्टील, एल्मुनियम यह सब निर्माणियों में तैयार कर लेते हैं । हम अच्छी तरह से प्रोग्रेस कर रहे हैं, हम अच्छी तरीके से सेनाओं को युद्ध एवं शांति दोनों समय सपोर्ट करते हैं। ‘वार एंड पीस’ के कार्यक्रम में हमारी भूमिका रहती है। जब आप युद्ध का नाम लेते हैं, जब आप दुश्मन के साथ युद्ध लड़ रहे होते हैं तो आप अपने हथियारों से ही युद्ध लड़ते हैं, इसके लिए हम विभिन्न प्लेटफार्म पर ट्रेनिंग देते हैं।
युद्ध के लिए गोला-बारूद की जरूरत पड़ती है जिसकी हम आपूर्ति करते हैं। जो भी गोला-बारूद या जितनी मात्रा में हम बनाते हैं इसे आप अगले चालीस-पचास वर्षों तक प्रयोग नहीं कर सकते हैं। गोला-बारूद को केमिकल और एक्प्लोसिव से भरा जाता है, एक्प्लोसिव की अपनी सेल्फ लाइफ पांच या पन्द्रह साल तक की होती है। इसकी लाइफ सीमित होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि आप अधिक मात्रा में गोला-बारूद जमा करके युद्ध के समय प्रयोग नहीं कर सकते हैं। आपको जिस चीज की जरूरत है वह यह है कि जब युद्ध हो तो आपको अपने मोर्चे पर इसका स्टॉक सैनिको के साथ रखना चाहिए। आपको यह स्टॉक मध्य क्षेत्र में भी रखने चाहिए और जब युद्ध छिड़ जाए तो सैनिक इसका उपयोग करेंगे। यही वह क्षमता है जो आर्डनेन्स फैक्टरियों के पास उपलब्ध है। जब कहीं युद्ध होता है तो हम इन स्टॉक्स का प्रयोग करने में समर्थ होंगे और यहां तक कि हमारे पास ऐसी क्षमता और इन्फ्रास्ट्रक्चर है कि हम सेना को सीधे मोर्चे पर एम्युनिसन पहुंचाने में सक्षम हैं।
सवाल: मि0 हरिमोहन युद्ध के समय में रक्षा उत्पादन में ऐसा सेटअप तैयार करने में आप अवश्य एक्सपर्टाईज रहे हैं ?
जबाब: जब आप युद्ध के समय विषम परिस्थितियों में युद्ध कर रहे होते हैं तो उस समय आपकी राजनीतिक स्थिति का व्ययवहार भिन्न हो सकता है जिसके बारे में आप पहले से नहीं सोच सकते अधिकतर स्थितियों में अधिकतर चीजों के लिए, विशेषकर उपभोक्ता वस्तुओं के लिए आपको आत्मनिर्भर होना चाहिए।
हमारे देश के योजनाकार और दृष्टाओं ने काफी सोच-विचार किया है और उन्होंने पर्याप्त क्षमताओं की योजना बनाई है ताकि देश युद्ध के समय जवाब देने में सक्षम हो सके। यहां तक कि हमारे पास कई एम्युनिशन फैक्टरियां हैं। एक ही एम्युनिशन के लिए हमारे पास दो फैक्टरियां हैं। एक फैक्टरी अलग जगह स्थित है और दूसरी फैक्टरी दूसरी जगह स्थिति है। मान लीजिए यदि एक फैक्टरी पर बम गिरा दिया जाता है या किसी कारणवश बन्द हो जाती है ऐसी स्थिति में हमारी दूसरी फैक्टरी हमें सपोर्ट करेगी। हम आपके साथ यह भी जानकारी साझा करना चाहते हैं कि हमने इतना अर्जित ज्ञान, तकनीक, नवाचार, इन्फ्रास्ट्रक्चर संचित कर रखा है कि 97 प्रतिशत एम्युनिशन जो हम बना रहे हैं वह पूरी तरह स्वदेशी है। कुछ ऐसे एम्युनिशन हैं जिनको हमने अभी विकसित किया है या हाल ही में उनकी तकनीक का अधिग्रहण किया है। यह संभावित आयात पर निर्भर हैं अन्यथा हम एम्युनिशन के संदर्भ में आर्डनेन्स फैक्टरी के नाम के प्रोडक्ट में स्वतः पर्याप्त हैं।
हम आपको यह भी बताना चाहते हैं कि इस देश द्वारा लड़े गए सभी युद्धों में आर्डनेन्स फैक्टरियां सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हमेशा खड़ी रही हैं।
कारगिल युद्ध के समय हमारी फैक्टरियों ने 24 घंटे काम किया है। कर्मचारी घर नहीं जाते थे, उन्हें फैक्टरी के अंदर ही खाने-पीने की वस्तुएं उपलब्ध कराई जाती थी और उन्होंने लगातार काम किया और उस समय जो एम्युनिशन का उत्पादन किया जाता था वह सीधे युद्ध के मोर्चे पर भेजा जाता था। यह स्थिति थी, यही कारण था कि हमारे जनरल मलिक, जो उस समय चीफ आफ आर्मी स्टाफ थे, ने कारगिल के समय सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि कुछ कंपनियां जिन्हें आर्डर दिए गए थे वह सप्लाई नहीं दे सकीं जबकि आर्डनेन्स फैक्टरियों ने सेना को पूरी तरह से सपोर्ट किया।
सवाल: जब हम हाईलाईट के बारे में बात करते हैं तो हम स्वदेशी डिफेंस हाडवेयर पर अथवा न्यू 100 प्रतिशत डिफेंस हार्डवेयर मेन्युफेक्चरिंग पर फोकस करते हैं, यही समय था जब आप पूरी तरीके से डीआरडीओ पर रिसर्च कार्य के लिए निर्भर थे। अब आर्डनेन्स फैक्टरियों के कारण मैं समझता हूं कि सभी 41 आर्डनेन्स फैक्टरियों के पास अपने स्वयं रिसर्च यूनिट हैं। अतः इसके बारे में बताइए ?
जबाब: 20 साल पहले तक हम विशुद्ध रूप से उत्पादन करने वाले संस्थान थे। हमारे पास केवल उत्पादन में विशेष योग्यता थी उस समय हम टेक्नालॉजी, डिजाईन, गाइडेंस या तो डीआरडीओ से लेते थे या विदेशी निर्माताओं से लेते थे। लेकिन हमने अनुभव किया कि यदि हमारे पास अपनी डिजाईन नहीं है, क्षमता नहीं है, यदि हम अपना खुद का तकनीकी विकास नहीं करते हैं तो हम आगे नहीं बढ़ सकते हम आत्मनिर्भर रक्षा उत्पादन संगठन नहीं बन सकते। वर्ष 2006 के दौरान हमने सरकार के साथ विचार-विमर्श करके एक निर्णय लिया कि हम अपना रिसर्च एंड डेवलपमेंट भी स्वयं करेंगे और हमने प्रोडक्ट डेवलपमेंट शुरू कर दिया है। हमने प्रोडक्ट्स को अपग्रेड करना शुरू कर दिया है और इसका परिणाम यह हुआ है कि हम मात्र मेन्युफेक्चरिंग संगठन से एक आत्मनिर्भर रक्षा उत्पादन संगठन बन गए हैं। अब हमारे पास अपनी खुद की डिजाइनिंग क्षमता है और तकनीकी नवाचार की क्षमता है।
आपके साथ जानकारी साझा करते हुए मैं खुश हूं कि वर्ष 2006 से 2020 के इन 14 वर्षों में जो भी उत्पादन हम कर रहे हैं उसका 25 प्रतिशत टर्नओवर स्वदेशी विकसित उत्पाद हैं और हमारा काम जारी है। हम कई क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। जल्दी ही हमारे नए से नए उत्पाद सामने आएंगे।
सवाल: मि0 हरि मोहन कृपया मुझे यह बताइए कि आप मेक इन इंडिया अभियान में डीआरडीओ के साथ कैसे कोआर्डिनेट कर रहे हैं ?
जबाब: वास्तव में आपके साथ खुलकर बात करना चाहूंगा कि आप 7 साल पीछे देखें तो हमारे पास इंडियन आर्मी, नेवी, एयरफोर्स का काफी वर्कलोड था और कभी ऐसा भी था आप जानते हैं कि हम डीआरडीओ को प्रोटोटाइप डेवलप करने में कोई रिस्पांस नहीं दे रहे थे। लेकिन दो साल पहले हमने एक निर्णय लिया कि हम पूरी तरीके से डीआरडीओ के साथ कोआपरेट करेंगे। डीआरडीओ जो भी प्रोडक्ट हमारे डोमेन में डेवलप करना चाहता है उन प्रोडक्ट्स के प्रोटोटाइप (नमूने) को हम पूरी तरीके से सपोर्ट करेंगे। हम इस सीमा तक जा रहे हैं कि जो भी नमूने डीआरडीओ बनाना चाहता है हम उसे अपनी लागत पर बनवाएंगे, इस प्रकार डीआडीओ प्रोडक्ट की लागत नीचे आएगी। होता यह है कि जो भी प्रोडक्ट वह डिजाइन करते हैं उसकी एक अलग प्रकार की क्षमता होती है लेकिन जो ज्यादा मात्रा में उत्पादन करना होता है उसकी एक अलग प्रकार की क्षमता होती है।
हां, होता क्या है कि एक पीस या दो पीस, पांच पीस प्रयोगशाला में बनाना बहुत सरल है लेकिन जब आपको एक ही पीस के हजार या लाख बनाने हों तो तकनीक पूरी तरीके से अलग होती है, तरीका भी पूरी तरीके से अलग होता है। जब आप किसी वस्तु की थोक में मेन्युफेक्चरिंग करना चाहते हैं तो उसकी तकनीक पूरी तरीके से अलग होती है। बल्क मेन्युफेक्चरिंग कम से कम लागत में होती है। देखिए एक पीस, दो पीस आप किसी भी लागत में बना सकते हैं लेकिन जब आपको हजार या लाख पीस बनाने होते हैं तो पूरी तकनीकी प्रक्रिया को आप्टिमाइज करना होता है। यह वह क्षेत्र है जिसमें हमें विशेष योग्यता है।
अतः हो यह रहा है कि आर्डनेन्स फैक्टरियों के इंजीनियर्स और डीआरडीओ के साइंटिस्ट्स प्रोडक्ट बनाने के लिए अब एक साथ मिलकर रिसर्च वर्क कर रहे हैं। उदाहरण के लिए हमने डीआडीओ के साथ संयुक्त रिसर्च करके आर्मामेंट डेवलपमेंट रिसर्च इस्टेब्लिसमेंट लैब पुणे और हमारी स्माल आर्म्स फैक्टरी कानपुर ने 5.56 एमएम x 30 जेबीपीसी कार्बाइन विकसित की है इसको विकसित करने में लगभग 7 से 8 वर्ष लगे हैं। यह युद्ध क्षेत्र का वीपेन है जोकि हमारे सामने है। इन दोनों यूनिट के साइंटिस्ट्स और प्रोडकशन इंजीनियर्स ने एक साथ मिलकर काम किया है और इस वीपेन का निर्माण किया है।
यह हथियार अद्वितीय है और अद्वितीय केलिबर का है। यह केलिबर हथियार अपने प्रकार अद्वितीय हथियार है। वीआईपी सुरक्षा एवं शार्ट रेंज बैटल के लिए यह सर्वश्रेष्ठ हथियार है। इसका प्रयोग छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा नक्सलवादियों से मुकाबला करने के लिए बहुत ही कारगर तरीके से किया जा रहा है। सीआरपीएफ भी इस हथियार का प्रयोग कर रही है। बीएसएफ ने भी इस वीपेन को लेने के लिए इच्छा जाहिर की है। अन्य कई पुलिस फोर्सेज भी इसे लेने की इच्छुक हैं। यह हथियार हमारा स्वयं विकसित किया हथियार है यह शत-प्रतिशत स्वदेशी डिजाईन से तैयार किया हथियार है।
सवाल: कुछ तात्कालिक प्राथमिकताएं क्या हैं ?
जबाब: हम आपको कुछ और विस्तार से बताते हैं। हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री ने देश से एक आह्वान किया है कि हमारे देश का 70 प्रतिशत रक्षा उपकरण जो हम प्रयोग कर रहे हैं उनको आयात किया जा रहा है। जहां तक डिफेंस इक्योजिशन की बात है यह लगभग 60 से 70 प्रतिशत इम्पोर्टेड है। कतिपय वस्तुएं ऐसी हैं जिनका हम देश में निर्माण कर रहे हैं। इनमें काफी संख्या में इम्पोर्टेड कंटेन्ट्स हैं, जैसे एयरक्राफ्ट जिसका निर्माण एचएएल में किया जा रहा है इसमें भी काफी इम्पोर्टेट कंटेन्ट्स हैं। कई तरीके के इलेक्ट्रानिक डिफेंस सिस्टम जिनको हम बना रहे हैं उनमें भी इम्पोर्टेड कंटेन्ट्स हैं। इस तरह कुल इम्पोटेड कंटेन्ट लगभग 60 से 70 प्रतिशत है।
अब हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने आह्वान किया है कि हमें डिफेंस हार्डवेयर और इक्यूपमेंट्स इम्पोर्ट करना बंद कर देना चाहिए। आइए देश में टेक्नालॉजी लाएं और देश में ही उत्पादन करें और इस दिशा में काफी काम हो रहा है। जिसका परिणाम यह हुआ है कि काफी संख्या में प्राइवेट इंडस्ट्रीज डिफेंस बिजनेस में रूचि दिखा रही हैं।
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Monday, March 16, 2020
ब्लॉगरों के अधूरे सपनों की कसक -एक अनूठी किताब
कल ' ब्लॉगरों के अधूरे सपनों की कसक' किताब मिली। सक्रिय ब्लॉगर रहीं रेखा श्रीवास्तव जी ने 2012 से ब्लॉगरों के अधूरे रह गए सपनों का रजिस्टर खोला था। दोस्तों के अधूरे रह गए सपनों को लिखने को कहा था। कुछ न लिखा, कुछ ने नहीं लिखा। आठ साल में कुल जमा 50 साथियों के अधूरे सपनों की दास्तान इकट्ठा करके किताब की शक्ल दी।
सामान्य समझा जाने वाला यह काम बड़ा झंझटी काम है। कभी लोग समझते हैं, कभी नहीं समझते। कोई लिखता है , कोई नहीं। रेखा जी की सफलता ही कही जाएगी कि उन्होंने कभी सक्रिय रहे ब्लॉगरों से उनके अधूरे सपने लिखवा लिए। इनमें से ज्यादातर सपने महिला ब्लॉगरों के हैं। इससे क्या यह समझा जाये कि स्त्रियां अपनी बातें स्त्रियों से साझा करने में ज्यादा सहज होती हैं ?
2012 में शुरू किया काम किताब रूप में 2020 में आना रेखा जी के सतत प्रयासों की कहानी ही है। इसमें उनको वंदना गुप्ता जी की हौसला अफजाई का भी सहयोग मिला।
आईआईटी कानपुर में मशीन अनुवाद परियोजना में 24 वर्ष रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्य कर चुकी रेखा जी ब्लागिंग और अन्य मंचो पर अनेक सम्मान मिल चुके हैं । उनकी गज्जब की सक्रियता देखकर ताज्जुब होता है।
किताब की भूमिका कई नामचीन ब्लॉगर्स ने लिखी है। मुझे भी कई बार कहा रेखा जी ने लेकिन तमाम जरूरी/ग़ैरजरुरी कामों में उलझा होने के कारण मुझे याद ही नहीं रह पाया कि लिखना क्या है? जब भी रेखा जी तकादा करतीं , मैं लिखने का वायदा करता। तकादे और वायदे की जुगलबंदी इतनी लम्बी खिंची की रेखा जी बोर हो गई और उन्होंने किताब छपवाने भेज दी।
जिन लोगों ने लिखा है किताब के बारे में वे हिंदी ब्लागिंग के नामचीन साथी रहे हैं। इसलिए मेरे न लिखने किताब का कुछ नहीं बिगड़ा , अलबत्ता लिखता तो मेरा नाम भी होता भूमिका लेखकों में।
साथी ब्लॉगरों के अधूरे सपनों के किस्से पढ़ना रोचक है। कोई डॉक्टर बनना चाहता था, कोई थिएयर आर्टिस्ट। कोई सिर्फ महिला होने को जीना चाहता है तो कोई पुस्तकालय खोलना चाहता था। किसी की आत्मा नृत्य से जुड़ी है तो किसी का सपना पत्रकारिता का रहा। कुछ दोस्तों के सपने चोरी भी हो गए जिनकी रपट उन्होंने पहली बार इस किताब के बहाने रेखा जी के थाने में लिखवाई। बहुत रोचक है साथियों के कसक भरे सपनों की कहानी पढ़ना।
किताब उत्कर्ष प्रकाशन दिल्ली से छपी है। शायद नेट पर भी हो। मैं खरीदने की सोचता तब तक मुझे रेखा जी ने किताब लेखकीय प्रति के तौर पर मुफ्त में भेजी है। इसके लिए उनका आभार। 148 पेज की किताब के दाम 250 रुपये हैं। इसमें रेखा जी के पैसे कितने लगे यह मुझे नहीं पता लेकिन काम उन्होंने नायाब किया है इसके लिए रेखा जी को
बधाई
। हिंदी ब्लॉगिंग पर शोध कार्य करने वाले लोगों के लिए यह किताब काफी काम आएगी। इस किताब के बाद रेखा जी अगर फेसबुक के साथियों के अधूरे सपनों की कसक का संकलन करेंगे तो उसकी भूमिका अवश्य समय पर लिख दूंगा।
किताब का नाम: ब्लॉगरों के अधूरे सपनों की कसक
सम्पादक : रेखा श्रीवास्तव
मुद्रक एवं प्रकाशक : उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ/दिल्ली
प्रकाशक की वेबसाइट :utkarshprakashan.in
पृष्ठ संख्या: 148
किताब का मूल्य : 250
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अधूरे सपने की कसक
(रेखा श्रीवास्तव जी की किताब 'ब्लॉगरों के अधूरे सपनों की कसक' बारे में आज पोस्ट । इस किताब में अपन की सपन-बयानी यहां पेश है)
हमको जब से अपने अधूरे सपने को बयान करने को कहा गया तब से हम खोज रहे हैं कि कोई सपना दिख जाये तो पकड़ के उसको बयान कर दें। लेकिन अभी तक कोई सपना मिला नहीं। परेशान हैं। लगता है हम सपना देखने वाले जमात के नहीं हैं। ऐसा कोई सपना नहीं याद आता जिसको पूरा करने की कसक मन में हो। इसलिये इस आयोजन में हमारी रिपोर्ट ’निल ’ मानी जाये।
वैसे सपने की जब भी बात चलती है तो मुझे रमानाथ अवस्थी जी की पंक्तियां याद आती हैं:
रात लगी कहने सो जाओ, देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का, रोना और तड़पना
इस परिभाषा के हिसाब से हमने सपने कभी नहीं देखे जो हमको रोते, तड़पाते हों। हम भरपूर नींद लेने वाले रहे हमेशा। अपनी क्षमता के हिसाब से हमें वह सब मिला जिसके हम हकदार हो सकते थे। समय, समाज हमारे प्रति बहुत मेहरबान रहा।
बचपन से आजतक कई चीजें समय-समय पर आकर्षित करती रहीं। वे या तो मिल गयीं या समय के साथ उनको पाने का आकर्षण खतम हो गया। हम वैसे भी बड़ा सपना देखने वाली पार्टी के आदमी नहीं हैं। अल्पसंतोषी हैं। शायद अपनी औकात जानते हैं इसलिये कसकन से बचने के लिये बड़ा सपना देखते ही नहीं। ऐसी सवारी को लिफ़्ट ही नहीं देते जो आगे चलकर कष्ट का कारण बने।
व्यक्तिगत जीवन में- नौकरी बजाते हुये अपने घर, परिवार, इष्ट-मित्रों से पूरी तरह संतुष्ट होने के चलते आराम से जिये जा रहे हैं। कोई ऐसी इच्छा नहीं जिसे पूरी करने के लिये मन में बेचैनी हो। कोई सपन कसकन नहीं। लेकिन कुछ इच्छायें जिनको पूरा करने का मन करता है।
जब से पढ़ना-लिखना सीखा तब से हमेशा यह इच्छा रही कि मैं दुनिया भर का उत्कृष्ट लेखन पढ़ सकूं। मुझे लगता है कि यह इच्छा हमेशा बनी रहेगी। लेकिन इसमें उतनी कसकन नहीं है। यह सिर्फ़ एक इच्छा है। जो कभी पूरी भी नहीं हो सकेगी बस यह है कि इसको आंशिक रूप से पूरा कर पायेंगे।
दूसरा, अपन का देश और दुनिया घूमने का मन है। देश भी अभी पूरा घूमा नहीं है। दुनिया तो शुरु ही नहीं की। लगता है यह इच्छा भी अधूरी ही रह जायेगी। लेकिन मन में एक बात यह भी है कि किसी दिन अचानक निकल पड़ेंगे और घूम डालेंगे दुनिया। पर ऐसा होता नहीं न जी।
कभी-कभी लगता कि हमें इस दुनिया ने बहुत कुछ दिया है। जितना मिला है और जितनी क्षमतायें हैं उसके हिसाब से यह महसूस होता है कि उसको वापस करने में कोताही बरती जा रही है। तमाम किस्तें बकाया हैं। कहीं से कोई नोटिस न आये इसका मतलब यह तो नहीं कि उधार चुक गया। लेकिन यहां भी कसकन वाला भाव नहीं। लगता है कि कोई हम अकेले डिफ़ाल्टर थोड़ी हैं। उधार भी चुकता हो जायेगा। कौन अभी कहीं भागे जा रहे हैं।
महीने भर से आपको अपने सपने बयान करने का काम उधार बाकी था। रोज सोचते थे कि आज करेंगें, कल करेंगे। आपके तकादे से यह सपन-उधार कसकने भी लगा था। लेकिन आज यह कसकन भी खतम हो गयी।
अक्टूबर, 2012 में लिखी पोस्ट
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10219119783998944
Friday, March 13, 2020
आलस्य
आलस्य
दुनिया का
सबसे खूबसूरत पहलू होता है।
दुनिया में बहुत
सी चीजें सुन्दर
होती हैं।
लेकिन सबसे
सुन्दर होता है
अलसाया हुआ सौंदर्य ।
मोनालिसा की फोटो पेंटिंग
सबसे खूबसूरत इसीलिये
दिखती है क्योंकि
वह सुन्दर है साथ में अलसायी हुई भी।
आलस्य के बिना दुनिया
अधूरी है
कत्तई खूबसूरत नहीं
हो सकती आलस्य रहित दुनिया।
-अनूप शुक्ल
Wednesday, March 11, 2020
स्कूल जाते बच्चे दुनिया की सबसे खूबसूरत सैर पर होते हैं।
निर्माणी के सामने की सड़क पर सुबह सुबह स्कूल जाते बच्चे दिखते हैं। कोई अकेले सर्राटा मारता हुआ चला जाता है। कोई दोस्त से बतियाता। कोई होली के रंग के किस्से सुनाता चला जा रहा है। समूह में बच्चे आधी सड़क घेरे हुए जाते। एक लड़का धीरे-धीरे साइकिल चलाते सड़क चलते बच्चे के कंधे पर हाथ रखे बतियाते चला जा रहा है। दोनों के बीच की बातचीत निश्चित ही दुनिया की सबसे प्यारी बतकहियों में शामिल करने लायक होगी। बच्चियाँ अपनी सहेलियों के साथ खिलखिलाती हुई जा रही हैं। कोई बच्चा सड़क पर किसी नोटबुक के पन्ने पलटता जा रहा है। शायद उसका कोई इम्तहान होगा।
ई रिक्शा पर भी जा रहे हैं बच्चे। एक रिक्शे पर कई बच्चे। एक ई रिक्शा पर अकेला बच्चा भी जा रहा है। रिक्शे की सीट पर हाथ फैलाकर ऐसे बैठा है जैसे राजा लोग सिंहासन पर बैठते होंगे। अकड़ बैठकी।
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Sunday, March 08, 2020
महिला दिवस के मौके पर शिशु सदन की शुरुआत
कल का दिन हमारी निर्माणी के लिए ऐतिहासिक रहा। इस मौके पर निर्माणी में शिशु सदन की शुरुआत की गई। निर्माणी में लगभग 60-70 महिला कामगार हैं। अधिकतर सिलाई का काम करती हैं। अन्य अनुभागों की तुलना में महिला कामगार अधिक जिम्मेदारी से अपना काम करती हैं।
मार्च के महीने में उत्पादन लक्ष्य पूरा होने का दबाव रहता है। सुबह सबसे पहले काम का मुआयना करते हुए थोड़ी देर कामगारों से बातचीत करते हैं। जिसका काम कम हुआ उससे कारण पूछते हैं, ठीक से, ज्यादा भी काम करने को कहते हैं। बातचीत करते हुए लोगों की समस्याएं भी सुन लेते हैं। व्यक्तिगत और निर्माणी की भी। जो सम्भव हो उसको तुरन्त हल भी कर देते हैं। घर परिवार के बारे में बतिया लेते हैं।
अक्सर कई कर्मचारी हमारे पहले के कार्यकाल की कोई याद भी साझा करते हैं। एक दिन एक टेलर ने हमसे कहा -'आपका यह कोट हमने सिला था। जिसमें थोड़ा झोल आ गया है। कभी दीजिएगा ठीक कर देंगे।'
हमको ताज्जुब हुआ कि बीस-पच्चीस साल पहले हमारे कोट की सिलाई की याद है हमारे कामगार को।
ऐसे ही 3 मार्च को महिला कामगारों की बेंच पर भी गये। एक से पूछा -'काम कैसा चल रहा है? ओवरटाइम कितना चल रहा है आपका ?'
ओवर टाइम हमारी निर्माणियों की सेहत का बैरोमीटर है। जहां ओवरटाइम पूरा चल रहा है मतलब उस निर्माणी के हाल चकाचक हैं। जहां ओवरटाइम कम है मतलब फैक्ट्री के हाल खराब हैं।
हमारे पैराशूट फैक्ट्री के कवि-कामगार श्रवण शुक्ल जी की ओवरटाइम पर एक बड़ी लोकप्रिय हास्य कविता है:
'इतवार बुलाओ, सोमवार बुलाओ
चाहे जउने वार बुलाओ,
ओटी तुम हमका दिए रहो
प्राण हमारे लिये रहो।'
संयोग कि आयुध निर्माणियों में पिछले दिनों काम की कमी के चलते ओवरटाइम कम हुआ। पैराशूट आयुध निर्माणी में श्रवण शुक्ल जी के प्रशंसक इसका श्रेय उनकी इस कविता को देते हुए कहते हैं -'बहुत दमदार कवि हैं शुक्ल जी। उनकी कविता की ही ताकत है कि ओवर टाइम कम करा दिया।'
बहरहाल जिस कामगार महिला से काम के बारे में पूछा उसने दुःखी होकर कहा -'हमारा बच्चा छोटा है। उसको देखने वाला कोई नहीं है घर में। पिछले हफ्ते उसकी देखभाल के लिए छुट्टी लेनी पड़ी। इसीलिए काम कम हुआ। ओवरटाइम नहीं मिला।' बताते बताते महिला कामगार रुआंसी सी हो गयी।
उसकी बात सुनकर हमको अफसोस हुआ कि तीन महीने हुए निर्माणी में आये। इस दौरान हमने एक बार भी नहीं सोचा कि यहां शिशु सदन होना चाहिए। न किसी ने बताया। हमने महिला से पूछा -'अगर यहां शिशु सदन बनवा दें तो तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी?'
उसने कहा -'ऐसा हो जाएगा तो हम जिंदगी भर आपका एहसान नहीं भूलेंगे।'
कारखाना अधिनियम के अनुसार जहां महिला कामगार हो वहां शिशु सदन की व्यवस्था होना आवश्यक है। उसको बनवाने पर कोई हमारा जिंदगी भर एहसान मानने को तैयार है। ताज्जुब ही है कि जो काम हमारी ड्यूटी में है उसको पूरा कर देने पर कोई हमारा एहसान माने।
बहरहाल हम लोगों ने उसी समय तय किया कि निर्माणी में शिशु सदन खुलेगा। तुरन्त महिला कामगारों के काम की जगह एक बड़ा हाल तय किया गया। यह भी तय किया गया कि 18 मार्च को आयुध निर्माणी दिवस पर उसकी शुरुआत होगी। फौरन काम चालू हो गया। कोई कमेटी नहीं, कोई टीम नहीं -'डायरेक्ट एक्शन।' हाल की सफाई शुरू हो गयी।
कानपुर में पुरानी निर्माणी में यही काम कमेटियों के हवाले कर दिया गया था। लगभग डेढ़ साल लग गए थे उसको शुरू होने में।
बाद में सोचा गया कि हाल बहुत बड़ा है। 15-20 बच्चों के लिए इतना बड़ा हाल ठीक नहीं होगा। खर्च भी काफी होगा। इसके बाद दो कमरों वाले एक आफिस में ही शिशु सदन बनना तय हुआ। आफिस बढ़िया टाइल्स लगा, रेस्टरूम सहित, कामगारों के काम की जगह के एकदम पास।
जगह तय करने के बाद बच्चों के सामान , खिलौने लेने गए। ढेर सारे खिलौने ले आये। तैयारी हो गयी शिशुसदन की।
अब जब तैयारी हो गयी तो सोचा गया 18 मार्च का इंतजार क्यों किया जाए। शुभस्य शीघ्रम। तय हुआ कि महिला दिवस के मौके पर ही शुरआत हो। उद्घाटन की बात चली तो यह सोचा गया कि उद्घाटन किससे करवाया जाए। तय हुआ कि उद्घाटन वही करे जिसके लिए यह सुविधा है। मतलब महिला कामगार ही शिशुसदन का उद्घाटन करें।
महिला दिवस 8 मार्च को पड़ता है। 8 मार्च को इतवार। लिहाजा 7 मार्च को महिला दिवस मनाया गया। सुबह कैंटीन में केक काटने के बाद सबके साथ शिशु सदन आये। महिला कामगारों ने उद्घाटन किया। उद्घाटन का फीता उसी महिला कामगार ने काटा जिसकी मांग पर शिशु सदन शुरू किया गया। बच्चे खुश होकर खेल रहे थे। उनकी मम्मियां भी खुश। बाकी कामगार ,स्टॉफ, अधिकारी भी खुश। निर्माणी के महाप्रबन्धक होने के नाते देखा देखी अपन भी खुश।
शिशुसदन में अभी कई सुधार होने हैं। कुछ सुविधाएं भी जुड़नी हैं। वह सब भी हो जाएगा। सुविधाओं को मुहैया करवाने के लिए अपन मुसलसल कोसा (लगातार प्रयत्नशील) रहेंगे।
फिलहाल सभी महिला साथियों को महिला दिवस की
बधाई
। शुभकामनाएं।https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10219047410949663
Friday, March 06, 2020
गांधी पुस्तकालय - एक सात्विक संकल्प का पूरा होना
शाहजहांपुर आने के समय से ही गांधी पुस्तकालय जाने का मन था। चौक स्थित इस पुस्तकालय से तमाम यादें जुड़ी हैं। कई गोष्ठियां, कवि सम्मलेन और बैठकी इस पुस्तकालय में हुईं। शहर का साहित्यिक केंद्र है यह पुस्तकालय।
1948 में शुरू हुआ यह पुस्कालय चौक की जिस बिल्डिग में था वह कमजोर हो गयी थी। बुजुर्ग फर्श के झुकते चले जाने की याद जेहन में थी। पुस्तकालय के सचिव अजय गुप्त भाई साहब इसके लिए नई बिल्डिग बनवाने के लिए प्रयासरत रहे।
अजय गुप्त जी के एक गीत का अंश है:
'सूर्य जब-जब थका हारा ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो बिटियों के बाप सा लगा।'
जैसे एक पिता को अपनी बड़ी होती बेटियों के लिए सुयोग्य वर की तलाश और चिंता रहती है वैसे ही अजय जी को इस लाइब्रेरी के लिए नई बिल्डिंग बनवाने की चिंता लगी रहती थी। बेटियों को विदा करने के बाद इस काम को पूरा करने में जी जान से जुट गए। पूरा करके भी अब मान कहां रहे हैं। अब उनकी जिद इसे समृद्ध करने की है।
आज जब चलते हुए पुस्तकालय बन्द हो रहे हैं ऐसे में लाइब्रेरी के लिए नई इमारत बनवाने की बात सोचना और उस पर अमल करना जुनूनी लोगों के ही बस की बात है। यह सात्विक जुनून अजय भाई साहब में है। वे लगे रहे और लाइब्रेरी बन ही गयी।
वह कहते हैं न :
'जो सुमन बीहड़ों में, वन में खिलते हैं
वो माली के मोहताज नहीं होते,
जो दीप उम्र भर जलते हैं,
वो दीवाली के मोहताज नहीं होते।'
इस पुस्तकालय की इमारत के लिए अजय जी लगातार प्रयास करते रहे। दीपक की तरह जलते हुए अपने संकल्प को पूरा किया।
इसमें शहर के तमाम लोगों का सहयोग रहा। लोगों ने आर्थिक सहयोग दिया, सम्बल दिया, हौसला बढ़ाया और कहा -'आप करिये। काम होगा। कैसे नहीं होगा।' वही हुआ । लाइब्रेरी बनकर रही। इनमें अजय भाईसाहब की जीवन संगिनी आशा गुप्ता भाभी जी (जो कि स्वयं भी सिद्ध कहानीकार हैं) का भी भरपूर सहयोग रहा। वो हौसला नहीं बढ़ाती तो संकल्प मूर्तिमान होता न होता, कहना मुश्किल।
लाइब्रेरी में 30000 के करीब पुस्तकें हैं। कई दुर्लभ हस्तलिखित पत्रिकाएं हैं और शानदार भवन है। लाईब्रेरी में करीब 70 बच्चे नियमित आते हैं। सब कुछ निशुल्क ।
यह सारा प्रयास आपसी सहयोग से हो रहा है। मित्र , शुभचिंतक किताबें , आर्थिक सहयोग देकर लाइब्रेरी को समृद्ध कर रहे हैं। आप भी अपना सहयोग देकर इस सार्थक काम में भागेदारी कर सकते हैं। लेखक साथी अपनी किताबें भेज सकते हैं।
आप किताब या सहयोग जो भी देंगे उसका लाइब्रेरी के फेसबुक पेज पर उल्लेख किया जाएगा।
दुनिया में तमाम तरह के वायरस होते हैं। कुछ अच्छे कुछ बुरे। इंसान की प्रवृत्ति के अनुसार उस पर असर करते हैं। अजय गुप्त भाई साहब की लाइब्रेरी देखकर हम भी उनके जुनून की चपेट में आ गए। अपनी इस्टेट लाइब्रेरी चालू तो हो ही गई है। अब गांधी पुस्तकालय देखकर उसको समृध्द करने की ललक भी उठ रही है।
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Thursday, March 05, 2020
जो भी है इसी जनम में है, जिन्दगी के पार कुछ नहीं
परसों कवि अजय गुप्त जी से मिलना हुआ। चौक स्थित उनकी दुकान पर शाहजहांपुर के साहित्यकारों की नियमित बैठकी होती है। परसों मुलाकात हुई तो उनकी 'गांधी लाइब्रेरी' देखने गए। अजय गुप्त भाई साहब का सपना एक लाइब्रेरी बनाने का था। उनके सात्विक संकल्प को पूरा होते देखना मेरे लिए अद्भुत अनुभव था। उसकी कहानी अलग से। गांधी लाइब्रेरी में ही शाहजहांपुर के गीतकार बृजेश मिश्र जी ने जो गीत सुनाया वह आप भी सुनिए। आपको अच्छा लगेगा।
जो यहां करो वहां मिले
इस कथा में सार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
कल्पना में कुछ भी सोच लो
सत्य है वही जो दीखता,
एक पल की जब खबर नहीं
उस जनम का है किसे पता।
जितना भी मिले तुरन्त ले
प्यार में उधार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
चांदनी चकोर को भली
चोर के लिये भली कहां,
आदमी की सोच भिन्न है
कुछ भला बुरा नहीं यहां।
ज्ञान चक्षु हों जिसे मिले
उसको अंधकार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
राग, रंग, रूप, रस सभी
भोग हेतु सृष्टि में रचे,
त्याग कर भी जो इन्हें चले
काल पाश से कहां बचे।
जिन्दगी को मौज से जियो
मुक्ति का विचार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
जो जनम-मरण के बीच में
पाप-पुण्य खोजते रहे,
मोतियों को पा नहीं सके
डूबने से जो डरे रहे।
पतझरों में भी जो खिले सके
फ़िर उसे बहार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
कर्म भाग्य का भविष्य है
कर्म ही से शीत-ताप है,
जिसमें सुख मिले वो पुन्य़ है
जिसमें क्षोभ हो वो पाप है।
प्यार आत्मा की प्यास है
इसमें जीत-हार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
बृजेश मिश्र, शाहजहांपुर।
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