1. जो दिशा पा लेता है, वह घटिया लेखक होता है। सही लेखक दिशाहीन होता है। ऊंचा लेखक वह जो नहीं जानता कि कहां जाना है, पर चला जा रहा है।
2. दिशा आज सिर्फ़ अन्धा बता सकता है। अन्धे दिशा बता भी रहे हैं। सबेरे युवकों को दिशा बतायेंगे , शाम को वृद्धों को। कल डाक्टरों को दिशा बतायेंगे , तो परसों पाकेटमारों को। अन्धा दिशा-भेद नहीं कर सकता, इसलिये सही दिशा दिखा सकता है।
3. बड़ी अजब स्थिति है। दुखी होना चाहता हूं, पर दुखी होने का मुझे अधिकार ही नहीं है। मुझे लगता है, समाजवाद इसी को कहते हैं कि बड़े की हार पर बड़ा दुखी हो और छोटे की हार पर छोटा। हार के मामले में वर्ग-संघर्ष खत्म हो गया है।
4. कुछ लोग मातमपुर्सी करके खुश होते हैं। लगता है भगवान ने उन्हें मातमपुर्सी ड्यूटी करने के लिये ही संसार में भेजा है। किसी की मौत की खबर सुनते ही वे खुश हो जाते हैं। दुख का मेकअप करके फ़ौरन उस परिवार में पहुंच जाते हैं।
5. जनतन्त्र झूठा है या सच्चा यह इस बात से तय होता है कि हम हारे या जीते? व्यक्तियों का ही नहीं पार्टियों का भी यही सोचना है कि जनतन्त्र उनकी हार-जीत पर निर्भर है। जो भी पार्टी हारती है, चिल्लाती है- अब जनतन्त्र खतरे में पड़ गया। अगर वह जीत जाती तो जनतन्त्र सुरक्षित था।
6. लाउडस्पीकर का नेता-जाति की वृद्धि में क्या स्थान है, यह शोध का विषय है। नेतागीरी आवाज के फ़ैलाव का नाम है।
7. जनता भी अजीब है। वह आवाज देती है, पर वोट नहीं देती।
8. लोग जनता की आवाज कैसे सुन लेते हैं। किस ’वेव लेंग्थ’ पर आती है यह? मैं भी जनता में रहता हूं, बहरा भी नहीं हूं, पर जनता की आवाज मुझे कभी सुनायी नहीं पड़ती।
9. ’कान्फ़्रेन्स’ शब्द ’ सम्मेलन’ से लगभग 10 गुना गरिमावाला होता है, क्योंकि ’सम्मेलन’ छोटे पढानेवालों का होता है और ’सेमिनार’ तथा”कान्फ़्रेन्स’ बड़े पढानेवालों का।
10. ज्ञान आदमी को हमेशा इसी बेवकूफ़ी से बचाता है कि वह अपने को ज्ञानी न समझे।
11. इस देश में सामान्य आदमी के खून का उपयोग फ़ूलों को रंग और खुशबू देने के काम आ रहा है। कुछ और काम उस खून से नहीं हो रहा है।
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