1. सारे मूल्यों में क्रांति हो गयी। पहले समारोहों में फ़ूलमाला पहनते खुशी होती थी। अब वह गर्दन में लटका फ़ालतू बोझ मालूम होती है। सांस्कृतिक क्रांति ने फ़ूलों की सुगन्ध छीन ली है और मैं माला पहनते हुये हिसाब लगाता रहता हूं कि अगर फ़ूल की जगह नोट होता तो इस वक्त कितने रुपये मेरे गले में लिपटे होते।
2. आदमी एक पार्टी के टिकट पर विधायक बनता है और फ़िर जिस पार्टी की सरकार बनने वाली होती है, उसी में चला जाता है।
3. भक्त मन्दिर निर्माण के लिये चन्दा करता है और उसमें से अपना गुसलखाना भी बनवा लेता है।
4. लड़का प्रेम करके लड़की से ’आदर्श विवाह’ कर लेता है और अपने बाप को उसके बाप के पास दहेज मांगने भेज देता है।
5. आबकारी अफ़सर साहित्य-प्रेमी हो, तो साहित्य का भी विकास होता है और आबकारी का भी।
6. जैसे दिल्ली की अपनी अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डालर , पौण्ड ,रुपया, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं।
7. अंग्रेज बहुत चालाक थे। भरी बरसात में स्वतन्त्र करके चले गये। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे , जो प्रेमिका का छाता भी लेता जाये। वह बेचारी भीगती बस-स्टैण्ड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है।
8. गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलती है, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपड़ा नहीं है।
9. दंगे से अच्छा गृह उद्योग तो इस देश में कोई दूसरा नहीं है।
10. इसे देश में जो जिसके लिये प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिये प्रतिबद्ध इस आन्दोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारिता पूर्वक खाने लगते हैं और आन्दोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुये हैं।
11. शरीर जब तक दूसरों पर लदा है, तब तक मुटाता है। जब अपने ही ऊपर चढ जाता है, तब दुबलाने लगता है। जिन्हें मोटे रहना है, वे दूसरों पर लदे रहने का सुभीता कर लेते हैं –नेता जनता पर लदता है, साधु भक्तों पर, आचार्य महत्वाकांक्षी छात्रों पर और बड़ा साहब जूनियरों पर।
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