कल सुबह आर्मी गेट पर इकट्ठा होना था। सुबह साढ़े सात बजे। इस गेट से ही हम रोज आते-जाते हैं। कार से। कार पर महाप्रबन्धक या निर्माणी की गाड़ी का बोर्ड लगा होता है। गेट पर तैनात जवान गाड़ी देखते ही गेट खोल देते हैं। हम निकल जाते हैं। लेकिन कल साइकिल पर थे। लेकिन न तो साइकिल पर और न अपन के चेहरे पर महाप्रबन्धक लिखा था। गेट पर तैनात जवान ने सवालिया निगाहों से कहा –’इधर से जाना मना है।’ हमने बताया-’हम फ़ैक्ट्री के महाप्रबन्धक हैं, रोज इधर से ही जाते हैं।’
जवान ने बताया –’लेकिन हम तो आपको नहीं पहचानते ।'
इससे यह सीख मिली कि आप क्या हो और अपने को क्या मानते हो यह हमेशा जरूरी नहीं होता। जो मायने रखता है वह यह कि लोग आपको क्या मानते हैं, किस रूप में जानते हैं।
बहरहाल, हमने बताया तो गेट खुल गया। बाहर जाना था इसलिये खुल गया जल्दी। अन्दर आना होता तो शायद कुछ देर और बतियाना होता। उसी समय मन किया कि एक बोर्ड चेहरे पर भी लगवा लें, महाप्रबन्धक का। कोरोना काल में ऐसा करना आसान भी है। मास्क पर लिखवा लें-’ महाप्रबन्धक, आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर।’
गनीमत है कि ऐसे बेवकूफ़ी के आइडिये जितनी तेजी से आते हैं दिमाग में उससे ज्यादा तेजी से गायब हो जाते हैं।
बाहर साइकिल साथी इन्तजार कर रहे थे। अगल-बगल के पार्कों में लोग क्रिकेट और दीगर चीजों में मशगूल थे। हम लोग मऊ की तरफ़ चल दिये।
रास्ते में धूप खिली हुई थी। सूरज भाई धूप की सर्चलाइट हमारे चेहरे पर मार रहे थे। आंखें धूप से तर-बतर हो गयीं। सड़क पर भी धूप जगर-मगर कर रही थी। सड़क का हर टुकड़ा जगमगा रहा था। कोने के मैदान में लोग बास्केट बाल खेल रहे थे।
मऊ की तरफ़ जाने वाली सड़क पर गढ्ढे किसी खूबसूरत चेहरे पर चेचक के दाग की तरह खिले हुये थे। साइकिल का पहिला एक चक्कर पूरा करने में चार गढ्ढों से होकर वापस आता। ऊपर नीचे होते हुये उसकी झल्लाहट हमको साइकिल की गद्दी और हैंडल की मार्फ़त साफ़ पता चल रही थी। सड़क के गढ्ढों से बेखबर हम आगे बढते रहे।
आगे एक जगह दीवार पर हिंदी और अंग्रेजी में लिखा था -'दीवार फांदने वाले को गोली मार दी जायेगी। यह चेतावनी पढ़कर लगा कि अनपढ़ या फिर हिंदी अंग्रेजी न जानने वाले इससे कैसे खबरदार होंगे। रात में कैसे दिखेगी यह चेतावनी।' इससे ज्यादा और कुछ सोचने का मन नहीं हुआ।
आगे अगल-बगल के खेतों के बाद बस्ती शुरु हुई। लोग अपने-अपने घरों के बाहर धूप सेंकते बतियाते बैठे थे। कुछ दुकानों के बाहर गप्पाष्टक कर रहे थे। एक बच्चा सड़क पर टहलता हुआ दिखा। उसके मां-बाप उसे पीछे से सहेजते-दुलराते हुये चल रहे थे। हमने रुककर उसको फ़ोटियाया। बच्चे को प्यारा बताया तो बच्चे के मां-बाप भी बच्चे की तरह प्यारे हो गये। नाम पूछा तो पता चला बच्चे का नाम बताया गया –तबिश। हमने बच्चे के नाम का मतलब पूछा तो बाप ने कहा –हमको पता नहीं। हमने पूछा –तुम्हारा क्या नाम? उसने बताया - मुजम्मिल। हमने मुजम्मिल का मतलब पूछा उसको वह भी नहीं पता था। मां ने नाम बताया –मदीना। वही सबसे आसान नाम। मांओं के नाम और काम वैसे भी सबसे आसान होते हैं।
बाद में पता किया तो ताबिश का मतलब होता है- स्वर्ग, मजबूत, बहादुर, जोरदार। मुजम्मिल का मतलब –लिपटे हुये। मदीना का नाम का मतलब मिला – सौंदर्य की भूमि। लोग अपने नाम का मतलब जाने बिना ही जिन्दगी निकाल देते हैं।
आगे एक बच्चा बीच सड़क पर अपनी रिक्शे टाइप की गाड़ी लिये अकेले शान और अकड़ के बोध के साथ टहल रहा था। अपनी गाड़ी को तख्ते-ताउस की तरह संभाले बच्चा बड़ा प्यारा लग रहा था। आगे एक मस्जिद के पास से कुछ बच्चे निकल रहे थे। एक बच्चा सर पर टोपी लगाये किताब सीने से लगाये सर झुकाये चुपचाप चला जा रहा था।
तमाम पक्के मकानों के बाहर की कच्ची नालियों में पानी और कीचड़ जमा हुआ था। पानी कम कीचड़ ज्यादा। गोया किसी लोकतांत्रिक सरकार का मंत्रिमंडल हो जिसमें शरीफ़ मंत्री कम, दागी ज्यादा हों। उस नाली के पानी और कीचड़ के गठबंधन में कुछ पक्षी अपना दाना-पानी तलाश रहे थे। एक पक्षी अपने हिस्से का दाना-पानी लेकर उड़ गया। उसकी उड़ान देखकर लगा कोई घपलेबाज घपला करके विदेश फ़ूट लिया हो। उड़ते हुये पक्षी के पंजे से छूटा हुआ कीचड़ जगह-जगह छितरा रहा था।
एक बड़ी होती बच्ची अपने घर की चौखट पर खड़ी शीशा हाथ में लिये अपना चेहरा देख रही थी। चेहरा देखते हुये अपने चेहरे को साफ़ भी करती जा रही थी। शायद कोई कील निकाल रही थी। उसको देखकर हमको एक पोस्ट याद आ गयी जिसमें मैंने लिखा था:
“किरण एक बच्ची की नाक की कील पर बैठकर उछल-कूद करने लगी। नाक की कील चमकने लगी। उसकी चमक किसी मध्यम वर्ग की घरैतिन को सब्सिडी वाला गैस सिलिन्डर मिलने पर होने वाली चमक को भी लजा रही है। रोशनी से बच्ची का चेहरा चमकने लगा है, आंखों और ज्यादा। आंखों की चमक होंठों तक पहुंच रही है। लग रहा है निराला जी कविता मूर्तिमान हो रही है:
नत नयनों से आलोक उतर,
कांपा अधरों पर थर-थर-थर।“
खेतों में सूरज भाई का जलवा बिखरा हुआ था। हर पौधा अपने सर पर ओस का मुकुट पहने हुये था। सूरज की किरणें ओस के बूंदों पर कूद-कूद कर हर पौधे को चमका रहीं थीं।
आगे सड़क किनारे एक कुत्ता निपट रहा था। सड़कों के किनारे कुत्तों के सुलभ-शौचालय होते हैं। पीछे की दोनों टांगे चौड़ी करते हुये सड़क पर निपटते हुये कुत्ते के चेहरे पर कब्ज-पीड़ा की झलक दिखाई दी। निपटने के बाद कुत्ते के चेहरे पर दिव्य-निपटान की आनंद पसर गया।
कुछ देर में हम कच्ची-पक्की-सड़कों के विविधता भरे रास्तों से निकलकर राजपथ पर आ गये। सड़क चौड़ी हो गयी। विविधता खत्तम। एकरसता शुरु।
आगे ओवरब्रिज के पहले एक बुजुर्ग अपने हाथ रिक्शा पर बैठे बीड़ी पी रहे थे। मुंह के बचे हुये चन्द दांत पीले थे और मैल की परतों के सहारे अपनी रक्षा करते दिखे। बुजुर्गवार 70-75 के थे। बताया –’मांगन जा रहे।’ मांगकर खाना उनका रोजगार है। अपने यहां तमाम लोग मांगने-खाने को रोजगार की तरह मानते हैं। पूरी दुनिया में बेरोजगारी बढती जा रही है। इसको एक झटके में इलाज करने का एक ही तरीका है –मांगकर खाने को भी रोजगार घोषित कर दिया जाये। दुनिया के सारे बेरोजगार एक दिन में ही बारोजगार से बेरोजगार हो जायेंगे।
हमारे साथ के अग्रवाल जी ने उस बुजुर्ग को कुछ पैसे देने चाहिये। फ़ुटकर थे नहीं तो बुजुर्ग के हिस्से में आये पचास रुपये। बुजुर्गवार ने बिना किसी अतिरिक्त उत्साह के उसे ग्रहण किया।
यहां पर अग्रवाल जी अपने पोते सार्थक के साथ अपने एक कर्मचारी के यहां के लिये निकल लिये। जाने से पहले उन्होंने हमको एक अपने द्वारा संकलित सूक्ति संग्रह भेंट किया। पुस्तक भेंट का कार्यक्रम राजपथ पर संपन्न करके अग्रवाल जी चले गये। बाकी बचे हम लोग आगे बढ गये।
पुल के ऊपर खड़े होकर हमने फ़ोटोबाजी की। इसके बाद आगे सड़क किनारे एक ढाबे में बैठकर चाय पी गयी।
ढाबे पर चाय वाले गुप्ता जी बड़े मन से पकौड़ी बना रहे थे। एक-एक पकौड़ी को कड़ाही में डालते हुये अगली पकौड़ी बनाते जा रहे थे। सारी पकौड़ियां कड़ाही में पहुंचकर फ़ुदकने लगीं ऐसे जैसे जनप्रतिनिधि लोग मंत्रिमंडल में शामिल होकर फ़ुदकने -उचकने-बयान देने लगते हैं। एक पकौड़ी कुछ ज्यादा ही उछल गयी। कड़ाही से उछलकर जमीन में आ गिरी। गर्म तेल की जगह सड़क की धूल में लोटपोट होने लगी। कभी अर्श पर थी अब फ़र्श पर।
गुप्ता जी ४२ साल से दुकान चला रहे हैं। पहले कहीं और थी दुकान। उजड़ गयी तो यहां आ गये। सडक किनारे जमा लिया ढाबा। जब आये थे तब कन्धे तक घास थी। सब साफ़ करके बनायी जगह। चलते हुये एक पांव मोटा दिखा गुप्ता जी का। पता चला फ़ीलपांव है। कोई इलाज नहीं इसका।
“कैंसर के बाद दूसरी लाइलाज बीमारी है –फ़ीलपांव”– बताया गुप्ता जी ने।
सारे कष्टों के बयान के बावजूद गुप्ता जी के चेहरे पर दैन्य भाव कहीं नहीं दिखा। वे कहते भये-“ ईमानदारी से मेहनत करने से हर समस्या का हल निकल आता है।“
चाय पीते हुये हमने इधर-उधर के फ़ोटो भी लिये। बगल के सरसों के खेत को अपनी यात्रा का भागीदार बनाया। तब तक अग्रवाल जी भी सार्थक के साथ हमारे साथ वापस जुड़ गये। हम वापस हो लिये।
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