गुप्ता जी के ढाबे पर चाय पीने के बाद हम लौट लिये। आगे हथौड़ा चौराहा मिला। चौराहे पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी की मूर्ति लगी है। चौराहे का नाम भी नेताजी के नाम पर है। लेकिन लोग जानते इसे हथौड़ा चौराहे से ही है। हथौड़ा बुजुर्ग गांव के पास होने के कारण शायद इसका नाम हथौड़ा चौराहा पड़ा। हथौड़े के नाम से केदारनाथ अग्रवाल जी की कविता याद आ गई- ’एक हथौड़े वाला घर में और हुआ।’ मेहनत करके जीविका कमाने वाले घर में किसी बच्चे के पैदा घर के लोगों के भाव बताती कविता देखिये:
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ!
हाथी-सा बलवान,
जहाजी हाथों वाला और हुआ!
सूरज-सा इंसान
तरेरी आँखों वाला और हुआ!
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ!
माता रही विचार,
अंधेरा हरने वाला और हुआ!!
दादा रहे निहार,
सबेरा करने वाला और हुआ।।
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ!
जनता रही पुकार
सलामत लाने वाला और हुआ
सुन ले री सरकार
कयामत ढाने वाला और हुआ!!
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ!
संयोग कि आगे ही एक हथौड़े वाले कुनबे से मुलाकात हुई। सड़क किनारे सिलबट्टे रखे हुये थे। लाल पत्थर के सिलबट्टों पर छेनी हथौड़े से निशान बना रहा था एक युवा। हमारी उपस्थिति से बेखबर वह नौजवान निस्संग भाव से सिलबट्टे बना रहा था। सिलबट्टे पर छेनी के निशान बनते जा रहे थे। सिलबट्टा मसाला पीसने के लिये तैयार हो रहा था। लाल पत्थर के चौकोर टुकड़ों के किनारे गोल करता जा रहा था।
पता चला कि वे लोग सिलबट्टे बनाने के अलावा मजदूरी, पुताई और कई दीगर काम भी करते हैं। हर वह काम जिसमें पेट भरने का जुगाड़ बनता रहे। मजदूरी की बात करने पर बताया –“200 रुपये मिलती है दिहाड़ी । कभी मिलती है, कभी नहीं मिलती। इसलिये यह काम भी चलता है।“
शाहजहांपुर में अकुशल मजदूर की न्यूनतम मजदूरी 331.31 रुपये है। दिहाड़ी 200 रुपये। घोषित न्यूनतम मजदूरी और नियमित दिहाड़ी के बीच का अन्तर न जाने कब पटेगा।
हम लोगों की बातचीत सुनकर उस कुबने की महिलायें कहने लगीं-“आप लोगों की बोली से लग रहा है शाहजहांपुर के नहीं हैं आप लोग। हिमाचल की तरफ़ के हैं।“
बच्चियों से पढाई की बात पूछने पर वे और साथ के लोग भी हंसने लगे। छूट गयी पढाई सबकी। एक बच्ची हमारी बातचीत से बेपरवाह वहीं चुपचाप सर झुकाये बरतन मांजती रही। बरतनों का पानी मिट्टी से होते हुये आगे चलकर थककर एक गढ्ढे में आराम करने के लिये जमा होता रहा।
चलते समय पता नहीं क्या हुआ, क्या समझा उन लोगों ने हमारे बारे में लेकिन वे सब इकट्ठा होकर हमसे कहने लगीं-’अंकल जी, हमको कालोनी अलॉट करा दीजिये।’
अब हम क्या कहते? इधर-उधर की बात कहकर मुंह छिपाते हुये सामने देखने लगे।
सामने एक आदमी साइकिल के कैरियर पर तेल का पीपा रखे हुये तेल बेंच रहा था। एक महिला एक प्लास्टिक की बोतल लेकर आई। उसमें तेल नपने से डालकर साइकिल के कैरियर पर रखे इलेक्ट्रानिक तराजू पर तौलकर बेंचा जा रहा था।
तेल बेंचते भाई जी से बात हुई तो पता कि वे अध्यापक हैं। प्राइवेट स्कूल में। कोरोना काल में स्कूल बन्द हो गये हैं। मजबूरन घर चलाने के लिये तेल बेच रहे हैं। किसी तरह गुजारा चल रहा है। कोरोना काल में हर असंगठित क्षेत्र में रोजगार के ऐसे ही बुरे हाल हुये हैं। ’पढें फ़ारसी, बेंचे तेल’ मुहावरा भी शायद ऐसे ही किसी कठिन समय में बना होगा।
आगे सड़क किनारे एक आदमी गेरुआ कपड़े पहने बैठा था। उसके चेहरे पर रोजगार की चिन्ता के कोई निशान नहीं थे। बाबागिरी ने उसकी चिन्ता हर ली थी।
रोजगार की बात लिखते हुये अभी एक वीडियो सुनते जा रहे थे। एक पन्डित जी एक लड़के से बता रहे थे-’ जो नौकरी आप चाहते हैं वह जल्दी ही मिलने वाली है। जल्दी नौकरी के लिये एक शिव मन्दिर में नियमित एक दिया चालीस दिन तक जलाइये। कार्य सिद्ध होगा।’
वापस आते हुए सिटी पार्क कालोनी देखी। शहर की सबसे अमीर कालोनी। बढ़िया घर। बाहर पत्थर के सफेद घोड़े स्टेच्यू मुद्रा में खड़े । उचके हुए। इतने खूबसूरत घोड़े पत्थर बनकर अहिल्या बने खड़े थे। कोई राम नहीं आएंगे इनके उद्धार के लिए।
लौटते हुये आशीष जी की नर्सरी देखने गये। पेड़ लगाने का जुनून आशीष को ’पेड़ पुरुष’ में तब्दील कर दिया है। हर पल हरियाली के बारे में सोचते रहे हैं। कम से कम खर्चे में अधिक से अधिक पेड़ लगाने के जुगाड़ भिड़ाते रहते हैं।
नर्सरी से लौटकर सब अलग-अलग होकर लौट लिये। हम आफ़ीसर्स कालोनी होते हुये वापस आये। अधिकारियों के बंगलों के बाहर उनके नामपट्ट लगे हुये थे। इसी कालोनी में पहले हमारे कई मित्र रहते थे। नियमित आना-जाना रहता था। उन बंगलों को पहचानते हुये आगे बढे।
एक बंगले के बाहर एक बुजुर्ग जाते दिखे। पीछे की तरफ़ किये उनके हाथ की उंगलियों में सिगरेट फ़ंसी हुई थी। सिगरेट सुलग रही थी, उससे धुंआ निकल रहा था। सिगरेट का कश लेने की बजाय पिछवाड़े की तरफ़ किये सुलगाते चले जा रहे बुजुर्ग शायद सिगरेट से कुछ नाराज से दिखे। लग रहा था धोती सुलगाने की मंशा से पीछे किये हैं सिगरेट। सिगरेट बेचारी अपनी मानहानि से और तेजी से सुलग रही थी। खर्च होती जा रही थी। धुंआ-धुंआ होती जा रही थी।
रास्ते में ’लालू समोसा कार्नर’ दिखा। दुकान वाले भाई जी बड़े-बड़े मिर्चे बेसन में लपेटकर कड़ाही में तलने के लिये डालते जा रहे थे। मिर्च तीखा होता है। अकले शायद इतने स्वाद लेकर न खाया जाये। लेकिन बेसन में लिपटकर और तले जाने के बाद सारा तीखापन हवा हो जाता है। उसके खाने पर होने वाली प्रतिकिया – ’सी-सी-सी, कड़वा है, पानी लाओ’ से बदलकर ’यम्मी-यम्मी, स्वादिष्ट, टेस्टी, और लाओ’ में बदल जाती है। संगत के असर कोई अछूता नहीं रहता।
दुकान 22 साल पुरानी है। दुकानदार का नाम भी लालू है। लालू जी से प्रेरणा ली है क्या दुकान का नाम रखने में पूछने पर मुस्करा दिए भाई जी। एक बेसन में लिपटा मिर्च और डाल दिया कड़ाही में।
आगे एक बंगले के बाहर एक घोड़ा दम्पति एक दूसरे से मुंह फ़ुलाये खड़ा दिखा। शायद दोनों में सुबह-सुबह कुछ कहा-सुनी हो गयी हो। मन किया उनको समझा दें। लेकिन फ़िर आपसी झगड़े में दखल देने के इरादे को स्थगित रखते हुये आगे बढ गये।
कामसासू काम्प्लेक्स में कुछ कामगार काम से लगे थे। एक बुजुर्ग अपने बेटे के साथ सिलाई करने आते हैं। ३०० रुपये अकेले की कमाई से घर का खर्च पूरा नहीं होता तो बेटा बोला – ’हम भी साथ चलेंगे कमाई करने। पढ़ाई छूट गयी। सिलाई चालू हो गयी।’ हर कामगार के घर की कमोबेश यही कहानी है।
घर में दो बहने हैं। मां हैं। बच्चे ने उनकी परेशानी देखी। पिता के साथ लग लिया कमाई में। कल उसके बच्चे भी शायद ऐसा ही करें। पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसे ही होता रहता है।
बच्चे का नाम बताया- फ़ैसल। हमने नाम का मतलब पूछा –’ बोले पता नहीं।’ हमने गूगलिया के खोजा –’फ़ैसल माने निर्णयात्मक।’ बताने के बाद बुजुर्गवार का नाम पूछा । बोले –’आसिम।’ आसिम मतलब असीम और सबकी रक्षा करने वाला भी। हमने बताया नाम तो खुश हो गये बुजुर्गवार। बोले –’डिपो में सब लोग हमारी बात मानते हैं। हम भी सबका ख्याल रखते हैं।’
चलते हुये धूप में बतियाते रहे वहां लोगों से। बुजुर्गवार असीम बाहर निकलकर आये और हमारी तरफ़ मुखातिब होकर बोले-’ आप बहुत नेकदिल इंसान हैं।’
फ़तवे वाले अंदाज में यह कहते हुये बुजुर्गवार की दाढ़ी धूप में चमक रही थी। हमने शरमाते हुये एतराज टाइप किया तो बुजुर्गवार ने- ’अब जो कह दिया तो कह दिया’ वाले अंदाज में मेरी बात मानने से इंकार कर दिया। अपने नाम का मतलब सार्थक करने का जुनून उनके चेहरे पर सवार था। वे हमारी रक्षा करने पर उतारू थे। हमको नेकदिल साबित करने पर अड़े हुये थे।
सारी बातें मन में दोहराते हुये हम खरामा-खरामा साइकिलियाते हुये घर लौट आये।
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