सुबह-सुबह दरवाजा खोला। पेड़ सावधान मुद्रा में ('सावधान मुद्रा में' की जगह - 'सहमें से' पढ़ें) सर झुकाये खड़े हैं। कोई हिलडुल नहीं रहा है। हर पेड़ शराफ़त का इश्तहार लग रहा है। शायद सुबह की धूप के इन्तजार में ऐसा हो। रात भर कोहरे की रजाई ओढे-ओढे ठंढा गये होंगे। धूप मिले कुछ तो हिल-डुल हो।
इतवार को भी ऐसा ही रहा होगा। लेकिन हम देखे बिना निकल गये। आर्मी गेट पर पहुंचना था सुबह 730 पर। इस बार हम समय पर पहुंच गये। बाकी लोगों का इंतजार किया गया। लोग अगल-बगल के मैदानों में क्रिकेट खेल रहे थे। टहल रहे थे। हवाखोरी कर रहे थे।
चलने के पहले आर्मी गेट के सामने फ़ोटो लिया गया। फ़ोटो लेने के पहले मास्क धारण कर लिया। घर वाले बिना मास्क देखते हैं फ़ोटो तो बहुत सुनाते हैं। बचाव जरुरी है।
इस बार मंजिल थी पुवायां रोड की तरफ़ का त्रिलोकी धाम मंदिर। पटेल रोड होते हुये निकले। पटेल रोड़ राणा सांगा बनी हुई थी। जगह-जगह गड्डे। काफ़ी दिनों से यह हाल है इस सड़क का। बजट के अभाव में रिपेयर नहीं हो पायी। देखिये कब होती है।
पुवायां मोड़ पर खड़े होकर साथियों का इंतजार किया। दो दुकानें खुली थीं। बकिया बंद थी। एक आदमी टहलता हुआ आया। दो रुपये की सिक्का दिखाकर उसी तरह का सिक्का देने के लिये इशारा किया। हकलाते हुये बोलने की कोशिश करने वाला गूंगा था। हम लोगों ने टाल-मटोल की तो वह और शिद्दत से मांगने लगा। ऐसे जैसे उसकी उधारी खाये हों हम। आशीष जी ने जेब टटोलकर एक सिक्का निकाला। उसने बाकियों की तरफ़ भी इशारा किया। सबने मोबाइल में मुंह छिपा लिया। मोबाइल भी आजकल बचाव का बड़ा साधन बन गया है। कहीं शरण न मिले तो मोबाइल की गोद में मुंह छिपा लो। वह टहलता हुआ चला गया।
साथियों के आने के बाद हम आगे बढे। कुछ दूर चलने के बाद पुवायां रोड से उतरकर नियामतपुर गांव की तरफ़ वाली सड़क पर उतर गये। गांव में एक घर के बाहर तमाम भेंड़ें इकट्ठा थी। कुछ उंघ रही थीं, कुछ अलसाई हुई सी बैठी थीं, कुछ जुगाली कर रहीं थीं। एक मेमना अपनी मां के थन में मुंह लगाये दूध पी रहा था। दूध पीते-पीते अपने मुंह से अपनी मां के थन को धक्का सा भी देता जा रहा था। जो भी बना हुआ दूध है, आज ही पी लिया जाये। पता नहीं कल मिले, मिले, न मिले।
आगे जिला सम्भागीय परिवहन कार्यालय मिला। ट्रान्सपोर्ट का सारा काम अब यहीं होता। लाइसेंस बनना भी आनलाइन। फ़ीस भी आनलाइन। ड्राइविंग टेस्ट भी आनलाइन। बेचारे बिचौलियों की मरन। कमाई का साधन गोल। क्या पता और कोई जुगाड़ बनाया हो उन लोगों ने।
वहीं पर एक चहारदीवारी के अन्दर तमाम बोरों में अनाज और उनके ऊपर मचान दिखा। हमने वहां से गुजरते आदमी से कन्फ़र्म किया –’यह गेहूं खरीद केन्द्र है?’ उस आदमी ने हमारे चेहरे को घूरते हुये बताया –’नहीं,यह धान खरीद केन्द्र है।’ बाहर धान के दाने बिखरे हुये थे। उस आदमी के चेहरे पर जो भाव था उसका अनुवाद –’शुक्र है कि बोरे देखने के बावजूद यह नहीं पूछा –’क्या यह गन्ना खरीद केद्र है? बोरे में गन्ने हैं क्या?’
थोड़ी दूर पर ही एक मन्दिर दिखा। मंदिर हाल कुछ साल पहले ही पक्का बना। जिला पंचायत अध्यक्ष् के प्रयास से। उनके भाई वहीं दिखे। बात करने पर बताया कित्ती जमीन है उनको भी पता नहीं। जमीन-जायदाद का काम अध्यक्ष जी ही देखते। उनहिन को पता। बच्चे की एक दुकान है। खाने-पीने को मिल जाता है। खेत सब बंटाई पर। हमने पूछा – ’घर में इत्ती जमीन के बावजूद परचून की दुकान?’ इस पर बोले-’ अब घर में सब लोग थोड़ी न नेतागिरी करेंगे। कुछ काम धन्धा तो करना ही पड़ेगा न ! ’
66 साल के बुजुर्ग खेत से काम करके आ रहे थे। हाथ की मिट्टी और डीजल के निशान भी दिखाए।
नियामतपुर से लौटते हुये त्रिलोकीधाम मंदिर देखते हुये वापस आये। मन्दिर अभी बन रहा है। हाई वे पर है। आगे चलकर खूब चलेगा। आजकल जमीन पर कोई धर्मस्थल डाल लेना सबसे फ़ायदे का हिसाब है।
लौटते हुये एक जगह चाय पी गयी। एक महिला मुंह धोती से ढंके सर पर रखे तसले में गोबर लिए चली जा रही थी। सर पर मैला ढोना कानूनन अपराध है। लेकिन गोबर ढोने में पाबंदी नहीं अभी।
जहां चाय बन रही थी वहीं सामने , सड़क पार , एक बुजुर्ग महिला गेंहू बीन रही थी। गेहूं के दानों से भूसा अलग कर रही थी –जैसे कोई शुद्ध व्यंग्य का हिमायती किसी अपने व्यंग्य लेख से हास्य के अंश निकालकर बाहर कर रहा हो।
बुजुर्ग महिला गेंहू बीन रही थी। उसके बगल में बैठा बच्चा भी पहले कुछ सहयोग करता दिखा। बाद में मस्तियाने लगा। दूसरा बच्चा वहीं बगल में कपड़े धो रहा था।
बात करने पर पता लगा कि दस किलो गेहूं राशन का मिलता है। लॉकडाउन के बाद दस किलो मुफ़्त भी मिलना शुरु हुआ। कितने दिन मिलेगा –पता नहीं।
पता चला बुजुर्ग महिला बच्चों की दादी है। बेटा कुछ दिन पहले नहीं रहा। ठेकेदारी पर काम करता था। सफ़ाई का काम । उसके बाद कुछ दिन उसकी पत्नी काम पर लगी। इसके बाद ठेकेदार ने निकाल दिया। दूसरे को रख लिया। कमाई का एक आसरा था , खत्म हो गया। अब वह आसपास के दुकानों के बाहर सफ़ाई करते हुये जो मिल जाता है उससे गुजारा करती है।
ठेके की प्रथा ने मजदूरों का शोषण बेइन्तहा बढ़ाया है। न्यूनतम मजदूरी खाते में लेकर उससे एक बड़ा हिस्सा खुद रखकर भुगतान करते ठेकेदार। ठेका बदलने पर हर ठेकेदार अपनी मर्जी से मजदूर रखता है। पुराने बदल देता है। नये मजदूर से ठेके पर रखने के पैसे अलग से लेता है। हर काम नियम के अनुसार करते हैं लोग, शोषण भी नियम का पालन करते हुये ही होता है।
बच्चों ने अपने पिता के बारे में बताया-’दारू बहुत पीते थे। नहीं रहे।’
बच्चे अपने पिता के दारू पीने और उनके न रहने की बात जिस निस्संग भाव से बता रहे थे उससे लग रहा था कि उनको पिता के न रहने का या तो एहसास नहीं या फिर शायद उनके सम्बन्ध ऐसे रहे होंगे कि बाप के रहने न रहने से फर्क नहीं पड़ता।
मां ने बताया-’हमको तो पता नहीं। ठेके पर काम करता था। वहीं से पी-पाकर आता होगा। घर में कभी नहीं पी। हमको तो पता भी नहीं चला। लोग कहते हैं कि पीता था।’
बच्चे पढने नहीं जाते। कहते हैं –’स्कूल नहीं जायेंगे। कमायेंगे।’
दादी कहती हैं-’ मास्टर जी बहुत कहते हैं स्कूल भेजो। बच्चे पढ़-लिख जायें। लेकिन बच्चे स्कूल नहीं जाते।’
बच्चों के नाम अर्जुन, कर्ण हैं। पिता का नाम था मनोज कुमार। न जाने कितने अर्जुन-कर्ण ऐसे पिता के न रहने पर स्कूल छोड़कर कमाने की बात करते हुये पिताओं की गति को प्राप्त होते रहते हैं।
चाय पीकर हम वापस लौट आये।
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