“जब कोई काम करना हो तो समझो कि मृत्यु तुम्हारे केश पकड़कर अपनी दिशा में घसीटती ले आ रही है, इसलिये उस कार्य को करने में विलंब मत करो; किन्तु जब कोई विद्या सीखनी हो कि तुम अजर और अमर हो. कोई देर नहीं हुई है, अभी भी सीखी जा सकती है।“
इंडिया टुडे के दिसंबर अंक ('व्यंग्य विशेषांक') में श्रीलाल शुक्ल जी के बारे में लिखे संस्मरण में कहानीकार संपादक अखिलेश ने श्रीलाल जी द्वारा सुनाये इस श्लोक का जिक्र किया। इस आत्मीय संस्मरण के अलावा और भी बेहतरीन संस्मरण और व्यंग्य सामग्री है इस अंक में।
काम करने में विलंब न करने की बात से अनगिनत काम आकर खड़े हो गये सामने। हमको करो, पहले हमको करो। कुछ काम तो धमकी भी देने लगे –’हमको नहीं करोगे पहले तो तुम्हारे खिलाफ़ प्रदर्शन करेंगे।’
जब एक साथ कई काम हल्ला मचाते हैं तो कृष्ण बिहारी 'नूर' साहब का यह शेर बहुत सुकून देता है:
मैं जिन्दगी पर बहुत एतबार करता था
इसीलिये सफ़र न कभी सुमार करता था।
मतलब आराम से किये जायेंगे काम। अभी करना है, आराम से करना है और कभी नहीं करना है इन खानों में बंटे हुये हैं काम। अक्सर इसमें गड्ड-मड्ड हो जाती है। अभी किये जाने वाले काम कभी नहीं किये जाने वाले खाने में पहुंच जाते हैं। कभी न किये जाने वाले काम फ़ौरन किये जाने वाले काम की दराज में जमा हो जाते हैं। बड़ी आफ़त है, बवाल है।
लिखने-पढने के कामों में एक सबसे जरूरी काम अटका हुआ है अमेरिका यात्रा के किस्से लिखने का। साल भर पहले जब वापस आये थे तो तय किया था कि फ़ौरन किताब निकाल देंगे। नाम भी तय हो गया- ’कनपुरिया कोलम्बस।’ कवर पेज भी बन गया। किताब मुकम्मल होने में बस तीन लेख और लिखने थे। इसके बाद छापाखाने जाने थी किताब। लेकिन मामला एक बार टला तो टल ही गया।
इसके अलावा व्यंग्य की जुगलबंदी पर कम से कम एक किताब बनानी है। दो साल ’व्यंग्य की जुगलबंदी’ के बहाने जो लेख लिखे गये उनमें कुछ लेख चुनकर किताब बनाने का विचार है। देखिये कब होता है। करीब महीने भर का काम है।
“काम तो जब होंगे तब होंगे। अभी तो सबसे जरूरी काम दफ़्तर के लिये निकलने का है- निकलो फ़टाक से”- कहते हुये सूरज भाई सामने से झऊवा भर रोशनी हमारे मुंह पर मारते हुये बोले। गुलाल की तरह सामने से फ़ेंकपर मारी हुई धूप किरन-किरन बिखर गयी। घर पूरा जगमगा गया। किरन-किरन से नंदन जी की गजल याद आ गयी:
मुझे स्याहियों में न पाओगे मैं मिलूँगा लफ़्ज़ों की धूप में
मुझे रोशनी की है जुस्तज़ू मैं किरन-किरन में बिखर गया।
किरन-किरन में बिखर गये इंसान के हाथ में सबके लिये रोशनी की दुआ करने के सिवाय क्या होता है। वही कर रहे हैं।
मेरी पसंद
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तेरी याद का ले के आसरा, मैं कहाँ-कहाँ से गुज़र गया,
उसे क्या सुनाता मैं दास्ताँ, वो तो आईना देख के डर गया।
मेरे जेहन में कोई ख़्वाब था ,उसे देखना भी गुनाह था
वो बिखर गया मेरे सामने सारा गुनाह मेरे सर गया।
मेरे ग़म का दरिया अथाह है , फ़क़त हौसले से निबाह है
जो चला था साथ निबाहने वो तो रास्ते में उतर गया।
मुझे स्याहियों में न पाओगे ,मैं मिलूँगा लफ़्ज़ों की धूप में
मुझे रोशनी की है जुस्तज़ू मैं किरन-किरन में बिखर गया।
-कन्हैयालाल नन्दन
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221196401673088
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