बड़े दिन बाद कल निकले। जगह-जगह दरबान तैनात। कुछ मुस्तैद, कुछ मोबाइल में डूबे हुए। मानो मोबाइल में कोई एप लगा हो जिससे आते-जाते लोगों को देखते हुए निगरानी की जा रही हो। टोंकने पर मासूम से बहाने, अभी बस जरा देख रहे थे। स्मार्ट फोन इंसान को बेवकूफ, कामचोर और लापरवाह बना रहे हैं। जिसको देखो सर झुकाए डूबा हुआ है मोबाइल में।
मैदान में बच्चे खेल रहे थे। ज्यादातर क्रिकेट। उचकते हुए गेंदबाजी,बल्लेबाजी कर रहे थे। सड़क किनारे तमाम लोग बैठे योग कर रहे थे। पेट फुलाते, पचकाते कपाल भाती और दीगर आसन चालू थे। पास कुछ कुत्ते टहलते हुए योग करने वालों को देख रहे थे कुछ इस अंदाज में मानो कह रहे हों-'हमारी ऐसे ही दौड़ते-भागते कसरत हो जाती है हमको क्या जरूरत योग-फोग करने की।'
सड़क पर एक आदमी सीधा आता दिखा। उसका एक हाथ चप्पू की तरह आगे-पीछे चल रहा था। सड़क पर नाव की तरह चल रहा हो मानो। दूसरा हाथ सीधा, एकदम सीधा राष्ट्रगान मुद्रा में अकड़ा हुआ लटका था। उसके पीछे खड़खड़े पर एक आदमी निपटान मुद्रा में बैठा निकल गया। शायद कोई सामान लादने जा रहा हो।
कामसासू काम्प्लेक्स में रहने वाले लोगों में से कुछ मशीनों पर बैठकर काम करने लगे थे। सुबह सात बजे काम शुरू करके कुछ लोग रात ग्यारह बजे तक सिलाई करते हैं। आम आदमी को पेट की आग बुझाने के लिए बहुत पसीना बहाना बहाना पड़ता है। अनगिनत , अनजान लोग ऐसे ही जिंदगी गुजार देते हैं। इनकी कहानी कहीं दर्ज नहीं होती। बेनाम, गुमनाम लोगों का जिक्र हमेशा आदि, इत्यादि में ही होता है।
कामसासू काम्प्लेक्स के बाहर दो बच्चे लकड़ियां फेंककर ऊपर फंसी पतंग और उससे लगा मंझा हासिल करने की कोशिश कर रहे थे। कई बार की कोशिशों के बाद भी पतंग फंसी नहीं तो हमने भी सहयोग किया। हम असफल रहे। लेकिन बच्चे लगे रहे। अंततः लकड़ी में मंझा फंस ही गया। बच्चे खुशी-खुशी चौवा करते हुए मंझा लपेटने लगे। बच्चो के चेहरे पर -'कोशिश करने वालों की हार नहीं होती' का इश्तहार चिपका हुआ था।
बातचीत की तो पता चला कि वे तीन और पांच में पढ़ते हैं। लॉकडाउन के चलते स्कूल बंद चल रहै हैं। बतियाते हुए भी बच्चों का पूरा ध्यान पतंग और मंझे की तरफ लगा हुआ था। हमको एक बार फिर केदार नाथ सिंह जी की कविता याद आ गई:
हिमालय किधर है?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर-उधर - उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है?
मोड़ पर एक घर में एक कूरियर वाला कोई सामान डिलीवर कर रहा था। सुबह सात बजे कूरियर की डिलीवरी। कितना तकलीफ देह होगा उसके लिए। लेकिन निकलना पड़ा होगा उसको भी। समाज जैसे-जैसे अनेक लोगों के लिए आधुनिक और आरामदेह होता जा रहा है वैसे-वैसे तमाम लोगों के लिए कठिन, तकलीफदेह और क्रूर भी होता जा रहा है।समाज की सुविधा और उत्पादकता बढ़ाने वाले तमाम उपाय किन्ही दूसरे लोगों की बेबसी और परेशानी की नींव पर टिके हुए हैं।
आगे कैंट आफिस के पास दो लोग लकड़ियां बिन रहे थे। रिक्शा बगल में खड़ा था। आदमी लकड़ी से पत्ते हटा रहा था। महिला उनको इकट्ठा कर रही थी। पास गए हम तो महिला ने सर पर पल्ला कर दिया। आदमी रुक गया। बताया कि पास ही चिनौर में रहता है। रिक्शा चलाकर पेट पालते हैं। यहाँ लकड़ियां दिखीं तो ले जा रहे हैं जलाने के लिये, खाना बनाने के लिए।
कुछ देर की बात के बाद वे सामान्य हो गए। बतियाते हुए लकड़ियाँ बीनने लगे। महिला भी सहज हो गयी। बताया कि बच्चे घर में हैं।
और बतियाते लेकिन तब तक साइकिल क्लब के लोगों की पुकार आ गयी। हम उधर चल दिये।
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