Tuesday, January 04, 2022

बुरहानपुर का ताजमहल



कहीं जाते हैं, किसी से मिलते हैं तो उसके बारे में लिखने का मन होता है। यही रोजनामचा हमारे लिखने का अंदाज है। हमारी अधिकतर लिखाई इसी अंदाज की है। तुरंता लेखन। अभी देखा, अभी मिले, अभी लिखा।
जो तुरन्त नहीं लिख पाते वह रह जाता है। 1983 में साइकिल से भारत घूमे, कुछ दिन डायरी में लिखा, बाकी रह गया तो रह ही गया। लेह लद्दाख गए, काफी लिखा , बहुत रह गया। अमेरिका गए, बहुत कुछ नियमित लिखा फिर भी कुछ छूट गया। इसी चक्कर में कितबिया बाकी है जिसका नाम भी तय हो चुका है -कनपुरिया कोलम्बस।
पिछले दिनों जयपुर गए, वहां के किस्से भी पूरे नहीं हुए। बुरहानपुर गए वहां भी कुछ लिखा , काफी छूट गया।
लोगों से मिलते हुए, स्थानों को देखते हुए जो भाव तुरन्त आते हैं, उनको लिखने में मजा आता है मुझे। बाद में तो बस रह ही जाता है।
बात बुरहानपुर की याद से। बुरहानपुर गए तो सोचा था वहां बनाया ताजमहल की अनुकृति वाला घर देखेंगे। ताजमहल जिन मुमताजमहल की याद में बनना था वो बुरहानपुर की ही थीं। उनकी याद में ताजमहल बुरहानपुर में ही बनना था। लेकिन सुनते हैं यहां की जमीन भुरभुरी होने, ताप्ती नदी का पाट कम चौड़ा होने (जिससे उसकी छाया नदी में नहीं दिख पाती) और मकराना जहां से पत्थर आने थे ताजमहल के लिये वो यहां से दूर होने के कारण ताजमहल वह यहां नहीं बना, आगरा में बना।
ताजमहल भले बुरहानपुर में नहीं बन पाया लेकिन उसी तरह का घर बनवाया है बुरहनपुर के शिक्षाविद और उद्योगपति आनंद प्रकाश चौकसे ने। उन्होंने इसे बनवाकर अपनी पत्नी को भेंट किया है, जैसा धनी लोग करते हैं।
हम इस इमारत को देखने गए। चौकसे जी के बनवाये अस्पताल और स्कूल के बगल से रास्ता है। चौकसे जी ने बुरहानपुर में अस्पताल और स्कूल शानदार बनवाया है। अस्पताल में आक्सीजन बनाने का भी इंतजाम है।।उनके स्कूल में सम्पन्न घरों के बच्चे पढ़ते हैं। बहुत काबिल अधयापक रखे हैं उन्होंने। बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च सुनते हैं लाख रुपये महीने है। लाख रुपये मतलब दस दिहाडी मजदूरों का महीने का वेतन।
चौकसे जी व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत यह बताई गई कि उनका मानना है कि किसी काम को पूरा करने की सबसे बड़ी शर्त है मेहनत और लगन। कोई काम अगर दस घण्टे रोज लगकर नहीं हो रहा तो पंद्रह घण्टे मेहनत की जाए। काम कैसे नहीं होगा। यह काम की सीख मिली।
बहरहाल हम गए देखने यह इमारत तो चौकीदार ने रोक लिया। हमारे साथ हमारे भाई थे। Krishna Narayan Shukla उन्होंने कहा चौकसे जी से बात करके देखवाते हैं। लेकिन हम दूर से ही देखकर खुश हो लिये।
लौटते में चौकसे जी का रेस्टोरेंट भी देखा। दोपहर होने के चलते भीड़ नहीं थी। लेकिन बहुत अच्छा लगा। वहीं काउंटर पर मौजूद बच्ची से बात हुई। त्रिपुरा की रहने वाली बच्ची ने आसाम से पढ़ाई की। कुछ दिन केरल नौकरीं की । फिर यहाँ आ गयी। घर परिवार के बारे में बात हुई। बुरहानपुर अभी कुछ दिन ही हुए आये लेकिन अच्छा लगता है। कई भाषाओं की कामचलाऊ जानकारी है बच्ची को। उसकी मुस्कान और खुशनुमा चेहरा देखकर उसके फोटो लिए। शादी की बात करने पर बच्ची ने बताया -' मुझे लगता है। अभी मैं उतनी मैच्युर नहीं हूँ कि शादी के बारे में सोचूं।'
एक इंसान कई प्रांतों में रहते हुए, घूमते हुए , काम करते हुए कितनी परिपक्व हो सकता है यह उस बच्ची से बात करके लगा।
लौटते में कुछ उजाड़ पड़ी इमारतें दिखीं। यह भी मुगल काल में बनीं होंगी। कभी इनका जलवा रहा होगा। आज उनमें कोई रहने वाला नहीं, देखने वाला। जलवा किसी का स्थायी नहीं होता। सब कुछ बराबर हो जाना है एक दिन। इसलिए ज्यादा गुरुर नहीं करना चाहिए। मस्त रहना चाहिए और सहज।
इतनी बड़ी कायनात में अपनी औकात न के बराबर भी नहीं है। लेकिन जितनी है उतने के हिसाब से अपना काम करते रहें यही बहुत है। है कि नहीं।

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