Thursday, April 14, 2022

बुश बिल्कुल बांगड़ू नजर आता है

 "बुश बिल्कुल बांगड़ू नजर आता है, उसी की तरह बोलता और बिफरता है।"

कृष्ण बलदेव वैद जी की डायरी में 'बांगड़ू ' शब्द पढ़कर अपनी एक पोस्ट याद आई जिसमें मैंने बारात में दूल्हे की बात करते हुए 'बाँगड़ू' शब्द का प्रयोग किया था:
"बारात का केन्द्रीय तत्व तो दूल्हा होता है। जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।दिग्विजय के लिये निकले बारहवीं सदी किसी योद्धा की तरह घोड़े पर सवार।कमर में तलवार। किसी मुगलिया राजकुमार की तरह मस्तक पर सुशोभित ताज (मौर)। आंखों के आगे बुरकेनुमा फूलों की लड़ी-जिससे यह पता लगाना मुश्किल कि घोड़े पर सवार शख्स कोई वीरांगना हैं या कोई वीर ।पैरों में बिच्छू के डंकनुमा नुकीलापन लिये राजपूती जूते। इक्कीसवीं सदी के डिजाइनर सूट के कपड़े की बनी वाजिदअलीशाह नुमा पोशाक। गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव 'बांगड़ू कोलाज' चला आ रहा है। "
मजे के बात जिस समय मैंने यह शब्द प्रयोग किया था तब इसका ठीक-ठीक मतलब नहीं पता था। लेकिन यह अंदाज था कि इसका मतलब वही होता है जो मैं कहना चाहता हूँ।
29 जनवरी, 2003 को जब वैद जी ने डायरी में बुश के बारे में यह लिखा तब अगर उनको कोई बताता कि उनके बारे में एक लेखक की यह राय है तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होती ? शायद वो पूछते -' इसका मतलब क्या है?' मतलब बताए जाने पर शायद कहते -ऐसा है ? मैं ऐसा दिखता हूं? ग्रेट ! या इसी तरह की कोई बात ! क्या पता वे वैद जी के यहां कोई कार्रवाई करवा देते। 🙂
डायरी के अंश पढ़ते हुए वैद के मन की बातें पता चलती हैं। रोचक टिप्पणियाँ। कुछ अंश :
7-2-2003
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सेमिनारों का अपना एक संसार है -एक पूरा तंत्र। एक सेमीनार की कोख से दूसरा , दूसरे की कोख से तीसरा...... । मैं इस संसार से दूर हूँ।
21-2-2003
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पाली ने फोन पर बताया कि साहित्य अकादमी के हिन्दी पुरस्कार के लिए इस बार राजेश जोशी और मुझमें चुनाव था। अशोक, केदारनाथ सिंह और लीलाधर
जगूड़ी ज्यूरी में थे। अशोक ने मेरा पक्ष लिया, बाकी के दोनों ने राजेश जोशी का। यह सब पाली को 'आउटलुक' (हिन्दी) में प्रकाशित विमलकुमार की रिपोर्ट से मालूम हुआ।
2-3-2003
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गर्मी की धमकियाँ शुरू। देश का छकड़ा ढिचकूँ-ढिचकूँ। सब नेता थके-मांदे और बिके -चुके। अधिकतर के चेहरों पर चिकनी-चुपड़ी चालाकी। यह मैं किधर भटक गया। मुझे देश के नेताओं( और अभिनेताओं) से क्या लेना-देना। मुझे 'तड़पने' के लिए साहित्य के नेता(और अभिनेता) ही काफी हैं, खासतौर पर अब जब कोई काम नहीं कर पा रहा।
15-3-2003
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इराक अमरीकी सरकार के जुनून का शिकार बनकर रहेगा, बावजूद इस हकीकत के कि दुनिया भर की अक्सरियत इस हमले के खिलाफ है। तबाही होगी। इराक टूट-फूट जाएगा। सद्दाम हुसैन बच जाए या मार दिया जाए उस से कोई फरक नहीं पड़ेगा। दहसत-पसंदगी बढ़ जाएगी। इस्लामी कट्टरवाद बढ़ेगा, भारत-पाक झमेला और उलझेगा।
दिल्ली जी महदूद मिडल क्लास जिंदगी के बाहर भारत में भयंकर दुख है, दरिद्र है, बीमारियां हैं, बदसूरती है , अन्याय है जिसके बावजूद करोड़ों लोग जी रहे हैं , ऐसे जैसे सब अनिवार्य हो। दिल्ली के अंदर भी दुख कम नहीं।
मैंने अपने काम में गरीबी और दरिद्र और भूख को उकेरने की कई कोशिशें की हैं, लेकिन कोई बड़ा शाहकार अभी तक इस विषय पर नहीं लिख पाया।
19-3-2003
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इराक पर हमला होने वाला है। सद्दाम हुसैन अगर पागल है तो बुश काम पागल और खतरनाक नहीं ।
23-3 -2003
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इराक पर चल रहे हमले की जो तस्वीरें टीवी पर देखने को मिलती हैं उन से वहां हो रही हौलनाक तबाही की तसवीर सामने नहीं आती। लगता है जैसे आतिशबाजी हो रही हो, आकाश में होली खेली जा रही हो। कोई चीखोपुकार सुनाई नहीं देती, कोई दुख दिखाई नहीं देता, एक मनसूई सी रंगीनी , एक रंगीन खेल तमाशा।
01-04-2003
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इराक पर हमला जारी है। यह लड़ाई महीनों चलेगी। खत्म होने के बाद भी खत्म नहीं होगी। अमरीकी सरकार नुकसान उठाएगी। इस्लामी कट्टरपन और दहशत पसंदगी को बढ़ावा मिलेगा।
पढ़ी जा रही है अभी तो डायरी ! आप क्या पढ़ रहे हैं ?

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