आजकल अपने पास मौजूद किताबों की लिस्ट बना रहे हैं। कल तक 274 किताबें हो गईं। अभी तक जिनकी लिस्ट बनी उनमें कुल पेज हैं 68345 कीमत 54184 रुपये। मतलब एक पेज की कीमत लगभग 79 पैसे। इन किताबों में से 74 किताबें भेंट में मिली हैं। मतलब कुल किताबों का 27% मुफ्त में मिला है। भेंट में मिली किताबो की कीमत है 14099 रुपये और उनमें कुल 14626 पेज हैं यानि कि भेंट में मिली किताबों का प्रति पेज दाम है लगभग 96 पैसे प्रति पेज। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि भेंट में मिली किताबों की कीमत कुल किताबों की कीमत से 22% अधिक है।
भेंट में मिली किताबों के औसत दाम अधिक होने का कारण यह कि अधिकतर भेंट वाली किताबें पिछले पांच-सात साल की हैं। जबकि हमारे पास जो किताबें हैं वे काफी पुरानी हैं जब पेपरबैक किताबें दस रुपये तक में भी मिल जाती हैं।
भेंट में मिली किताब मतलब मुफ्त में मिली किताब। मुफ्त किताब की बात याद आते ही मुझे सरिता/मुक्ता में छपे विज्ञापन याद आते हैं -'क्या आप मांग कर खाते हैं, क्या आप मांगकर पहनते हैं? तो फिर आप मांगकर पढ़ते क्यों हैं?'
अपन किताबें आमतौर पर खरीदकर ही पढ़ते हैं। किताबें खरीदने का शौक एकमात्र शौक है अपना। इसके बावजूद 27% किताबें भेंट वाली हैं। कारण इसका यही कि मित्र लोग भेज देते हैं। ज्यादातर लेखकों ने खुद भेजी। यह सोचते हुए कि उनके बारे में लिखेंगे। लेकिन अफसोस यह कि उनमें से अधिकतर अनपढी या अधपढी ही हैं।
सबसे अधिक किताबें हमको हमारी दीदी Nirupma Ashok से भेंट में मिली। 1988 में 'ययाति' से शुरू हुआ यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। हर साल कोई न कोई किताब मिल जाती है।
किताबों की लिस्ट बनाते हुए उनमें पढ़ी/अधपढी/अनपढी की कैटेगरी भी बनाई। अधिकतर किताबें अधपढी की लिस्ट में हैं। हुआ ऐसा कि किताब पढ़ना शुरू किया फिर रुक गया। लगकर किताब पढ़कर पूरी करने का अभ्यास कम हो गया है। जबकि कभी पढ़ाई की गति अच्छी होती थी। सुरेंद्र वर्मा की 'मुझे चांद चाहिए' तथा गिरिराज किशोर जी की 'पहला गिरमिटिया' लगातार पढ़कर 3-4 में पूरी की थी। श्रीलाल शुक्ल जी की 'रागदरबारी' तो कालेज के दिनों में लगातार पढ़कर ही पूरी हुई थी।
अब पढ़ने की स्पीड कम हो गई है। किताबें कहती होंगी -'तुम बदल गए हो, अब मन लगाकर पढ़ते नहीं।' हम उनसे क्या कहें ? यह तो कह नहीं सकते -'मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग'। सच्चाई तो यह है कि किताबों से मोहब्बत बढ़ी है। लेकिन जताने का समय लगातार कम होता गया है।
मित्रों की किताबें पढ़कर उनके बारे में लिखने का मन है। तमाम लोगों से वादे भी किये हैं। मित्र लोगों से भेंट में किताबें लेने में इसीलिए संकोच भी होता है। लगता है उनका उधार बाकी है मेरे ऊपर जो तभी चुकेगा जब उस किताब को पढ़कर उसपर लिख लिया जाएगा।
दुनिया की तमाम बेहतरीन किताबें अभी पढ़ी जानी बाकी हैं। फिलहाल तो उतनी ही पढ़ लें जितनी अपने पास हैं। तमाम किताबें किसी की संस्तुति पर ली गईं लेकिन पढ़ नहीं पाए। 'कैच -22' की तारीफ ज्ञान चतुर्वेदी जी ने कई बार की। मंगा ली। शुरू की। लेकिन आधी ही पढ़ पाए। परसाई जी ने 'डान क्विकजोड' उपन्यास का जिक्र किया था किसी लेख में। कल वह उपन्यास भी मिला अधपढी किताबों के खाते में। 'Aunt Juliya and the scriptwriter' खरीदी Prabhat Ranjan की जोशी जी से बातचीत पढ़कर। वह भी आधी पर अटक गई। आज फिर निकाली है। जोशी जी की तो कई किताबें हैं, दुबारा पढ़ने को। जोशी जी मतलब मनोहर श्याम जोशी जी को पढ़ना तो अपने आप हो जाता है। बस किताब सामने दिख जाए।
मुझे लगता है कि किताबों को पढ़ने का सबस अच्छा समय बचपन और उसके बाद का समय होता है। जिसने पढ़ ली वह तर गया। बाद में पढ़ना मुश्किल भले न हो, पिछड़ बहुत जाता है। है कि नहीं।
लेकिन अब भी देर नहीं हुई। किताबें पढ़ने का कोई समय नहीं होता । जब मन आये शुरू हो जाएं। किताबें दुनिया के ख़ूबसूरत होने का एहसास दिलाती हैं। तमाम अलाय बलाय से बचाती हैं किताबें।
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