सुबह जब डाउनटाउन की तरफ चले तो लोगों ने बताया, तीन चार किलोमीटर है।ऑटो कर लो। किसी ने बताया आगे चौराहे से थोड़ा आगे शुरु हो जाता है। कोई बोला -'आपको जाना कहां हैं?'
'हमको पुराना श्रीनगर देखना है। लोगों ने बताया -'डाउनटाउन जाओ।'
मतलब जगह और दूरी के मायने बताने वाले के हिसाब से बदलते गए।
दुकाने अधिकतर बन्द थीं। दूध, ब्रेड, सब्जी जैसी चीजों की दुकानें खुलनी शुरू हो गईं थीं। नुक्कड़ पैर तैनात सुरक्षा जवान को दुकान वाला कोई सामान ले जाकर दे रहा था।
सुरक्षा बलों और स्थानीय लोगों के आपसी रिश्तों में तनाव की बात सुन रखी थी। लेकिन घूमने के दौरान ऐसी तल्खी का कोई उदाहरण नहीं देखा मैंने। यह अलग बात है कि जगह-जगह , शायद अमरनाथ यात्रा के कारण सुरक्षा बल तैनात थे।
चौराहे पर चाय की दुकान खुली थी जहां पिछले हफ्ते हमने चाय पी थी। मन किया रुक कर पी लें एक चाय। लेकिन फिर मन को बहला दिया -'देर हो जाएगी। चाय तो रोज पीते हो। आज अभी घूम लो। फिर पी लेना चाय।'
चाय पीने का मन थोड़ा भुंभुनाकर और ज्यादा कुनमुनाकर शांत हो गया। बड़े उद्देश्य के लिए छोटी कुर्बानी की बात समझकर शहीदाना गौरव समेटे मन रास्ते के दृश्यों में खो गया।
जगह-जगह पुरानी इमारतें दिखीं। किसी में खिड़कियां उखड़ी हुई, कोई मुकम्मल और पुख़्ता। पुरानी इमारतों में ज्यादातर का रंग गाढ़ा भूरा दिखा। एक में तो लिखा भी था -'हेरिटेज बिल्डिंग।' सौ साल पुरानी रही होगी इमारत। लिखा भी बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों की इमारत। सौ साल पुरानी इमारत होने के इमारत के खिड़की, दरवज्जे, कील-पुर्जे सब दुरुस्त दिख रहे थे। खाये-पिये घर की रही होगी इमारत। तभी, पुराने समय की होने के बावजूद , कहीं से बूढ़ी नहीं लग रही थी। हेरिटेज बिल्फिंग लिखा न होता तो हम यही समझते कि पुराने अंदाज में कोई नई इमारत बनी है।
रास्ते में जगह-जगह लोग अपने बच्चों को स्कूल जाने वाली बस में बिठाने के लिए बसों का इंतजार करते दिखे। सबसे पहले जो दिखे वो अपने दो बच्चों के साथ थे। उनके साथ उनके पिता थे। मतलब एक साथ तीन पीढियां सड़क पर थीं। बच्चों का स्कूल दस बजे से था लेकिन करीब आठ बजे ही वो बस पर छोड़ने आये थे। बस घूमते हुए जाती है, इसलिए समय लेती हैं।
बच्चों का फ़ोटो लिए तो छुटके ने मुंह छिपा लिया। उसके पिता ने कहा तो कुछ देर में सहज हुआ। दोनों बेटों और उसके पिता का फ़ोटो खींचा। खूबसूरत बेटों के साथ डोले-शोले पोज में उनके पिता का फ़ोटो फिर देखा तो बहुत अच्छा लगा।
बच्चों के बाबा के किस्से ही किस्से। विभाजन से लेकर अब तक की कहानी सुनाते रहे। विभाजन में इसने ये किया, उसने वो किया। ये घटना टर्निंग प्वाइंट बनी। ऐसा होता तो वैसा न होता घराने की बातें, तर्क और यादें। हमको चुपचाप सुनता देखकर उनके बेटे ने थोड़ा रुकने का इशारा किया -'कहाँ अनजान इंसान को अपनी कहानी सुनाए जा रहे हो?" लेकिन मना नहीं किया। बच्चे आपस ने इधर-उधर टहलते, अदाएं दिखाते रहे।
चलते समय बुजुर्गवार ने एक बात बड़े गम्भीर अंदाज़ में कही। उनका कहना था-'किसी भी समाज के लिए संतुलन आवश्यक है। दुनिया में जिसके हाथ में सत्ता होती वह अपनी समझ के इसे चलाया है। हर जगह ऐसा होता है लेकिन नीति निर्धारण में और सत्ता में एक बड़ी आबादी का कोई प्रतिनिधित्व न होना समाज के संतुलन के लिए ठीक नहीं होता।’
हम और कुछ बात करते तब तक बच्चों की बस आगयी और वे लपक लिए बस ने बैठने के लिए।
आगे एक जगह कूड़े के ढेर के पास कुछ कुत्ते उछलकूद कर रहे थे। उनको देखकर ऐसा लगा कि क्या बताएं? जो उपमा आई मन में वह अपने देश के जनप्रतिनिधियों से सम्बंधित थी। बड़ी खराब उपमा। लिखने से कोई फायदा नहीं होगा। आप खुद समझ लीजिएगा। आप खुदै समझदार हैं।
दुकानें अब खुलने लगीं थीं। एक जनरल स्टोर (कश्मीरी में कहें तो सटोर) की दुकान में परचून के सामान के साथ सब्जी भी मिल रही थी। लोग दुकान से रोजमर्रा का सामान ले रहे थे। दुकानदार लोगों से दुआ सलाम करते हुए उनको सामान देता जा रहा था।
कुछ ही दूर पर कुछ और बच्चे स्कूल के लिए बस का इंतजार करते दिखे। एक बच्ची का पिता स्कूटी पर बैठा बस की राह देख रहा था। बच्ची अपनी सहेलियों के साथ थोड़ी दूर पर मिल बांटकर चाकलेट खाते हुए टहल रही थी। बाकी दोनों बच्चियां स्कूल ड्रेस में थीं। बच्ची अलग ड्रेस में थी। उसके बारे में बात करते हुए पिता ने बताया कि आज उसका गेम्स का पीरियड है इसलिए स्कूल ड्रेस नहीं पहने है।
बच्ची अपने बारे में बात करते हुए देखकर अपनी सहेलियों के साथ टहलते हुए हम लोगों की तरफ मुड़-मुड़कर देखती रही। बुलाने पर पास आई । जैनब नाम है बच्ची का। कक्षा 2 में पढ़ती है। पसंदीदा विषय बताया गणित। हम जैनब से बात कर रहे थे तो उसकी सहेलियां हमको ध्यान से देख रहीं थीं।
थोड़ी दूर पर एक और पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए बस के इंतजार में एक दुकान के चबूतरे पर बैठे थे। मुस्ताक अहमद के बच्चों के नाम अलिसा मुस्ताक और अजान मुस्ताक हैं। उनका क्रॉकरी का काम है। बच्चो को अच्छी तालीम दिलाना और उमको आत्मनिर्भर बनाना उनका मकसद है।
बात करते हुए बच्चों की बस आ गई। बच्चे बस की तरफ लपके। बस में मौजूद एक बच्ची ने लपककर अलिसा का हाथ अपने हाथ में ले लिया। दोनों खुशी-खुशी बस में बैठ गयीं। बस चल दी। हम भी आगे चल दिये।
स्कूल जाते जितनी भी बच्चियां दिखीं उनमें से अधिकतर हिजाब पहने हुई थीं। लेकिन यह भी कि जिस भी बच्ची से या उनके घरवालों से मैंने बातकी, उनमें से लगभग सभी ने बेहिचक बात की। एक महिला ने बस के आ जाने पर जल्दी-जल्दी सर के ऊपर से अपनी बच्ची को हिजाब पहनाया। बस में बैठाया।
लड़कों और लड़कियों की अधिकतर बसें अलग -अलग दिखीं। हो सकता है एक साथ भी जातें हों बच्चे लेकिन मुझे दिखे नहीं। एक और बात कि स्कूल जाने वाले अधिकतर बच्चे छोटे क्लास के थे। बड़े क्लास के कम ही बच्चे दिखे। सम्भव है उनके स्कूल का समय या जाने का साधन अलग हो।
सड़क पर धूप पसर गयी थी। हमको याद आया, अरे सूरज भाई भी तो साथ में हैं। सूरज भाई पूरे सफर में मेरे साथ रहे। जिस दिन श्रीनगर में उतरा था मैं, बारिश हो रही थी। जैसे ही अपन पहुंचे वहां, बारिश बन्द हो गयी। सूरज भाई की सरकार बन गयी। गुलमर्ग पहुंचते समय भी बारिश हो रही थी, हमारे वहां पहुँचते ही बंद हो गई बारिश। पहलगाम में तो लगातार मौसम अच्छा रहा।
सूरज भाई की मेहरबानी को याद करते हुऐ हमने सड़क की धूप के साथ सेल्फी ली। सूरज भाई हंसे होंगे इसे देखकर क्योंकि धूप और चमकदार हो गई।
आगे एक दुकान के चबुतरे पर एक बुजुर्ग चुपचाप उदास से बैठे , सिगरेट पी रहे थे। उनकी आंखों से उदासी , बेहद वीरानी झलक रही थी। हाथ कांपते से दिखे। चुपचाप सिगरेट पीते हुए सामने देख रहे थे।
उनसे बात करने साथ में बैठ गया मैं।।नाम बताया -अब्दुल रज्जाक, उम्र करीब 65 साल। बोले -'अब बस मौत का इंतजार है। मौत आने पर ही अच्छा महसूस होगा। वही बेहतर होगा मेरे लिए।'
हमने कहा -'ऐसा क्यों सोचते हैं? जिंदगी इतनी खूबसूरत है। अच्छे हो जायेगे आप। '
उन्होंने कहा -'काम मुझसे कुछ होता नहीं। अब अच्छी नहीं लगती जिन्दगी।'
दिन में दो-तीन सिगरेट रोज पी लेते हैं। पीते क्या राख झाड़ते ही दिखे मुझे वो। बेटा देखभाल करता है। लेकिन उदासी तारी है उनके चेहरे पर।
इन्ही रज्ज़ाक साहब को कुछ देर पहले, उनके पास आने से कुछ देर पहले ही, हमने एक स्कूल जाती बच्ची को मुस्कराते हुए , हाथ हिलाते हुए विदा करते देखा था।बच्चों का साथ इंसान को खुशहाल बनाता है। उनकी संगत में इंसान अपने कई दुख भूल जाता है।
रज्जाक साहब से विदा लेकर हम आगे बढ़े तो एक बच्ची मिली। स्कूल जाने को तैयार। उससे बात शुरू की तो उसने मेरे पेट पर तबला सा बजाते हुये पूछा -'ये क्या है?' उसके पूछने का अंदाज -'ये क्या हाल बना रखा है सेहत का ?' वाला था। न भी रहा हो लेकिन मुझे ऐसे ही लगा।
मैंने मजे लेते हुए जबाब दिया -'यह मेरा स्कूल बैग है?'
उसने मेरी बात पर बिना कोई तवज्जो देते हुए मेरे हाथ से चश्मा ले लिया। मानो बढ़े पेट के जुर्माने की एवज में आंख का चश्मा जब्त कर लिया हो।
चश्मा हाथ में लेकर पूरी बेतकुल्लुफी से उसने अपनी आंख के ऊपर लगा लिया। साथ में खड़ी उसकी मां हंसते हुए मेरा चश्मा वापस देने को कहती रही लेकिन जब्ती किया सामान देने के लिए बच्ची मानी नहीं। वो तो कहो कि उसी समय उसकी बस आ गयी और वह मुझे चश्मा वापस करके बस में बैठकर स्कूल चली गयी।
बच्ची का नाम महनूर है। महनूर माने होता है चांद की रोशनी ,चांदनी । महनूर की खिलंदड़े , बालजुलभ व्यवहार ऐसा लग रहा था कि श्रीनगर की सड़क सूरज की रोशनी में चांद की चांदनी खिली हुई हो।
श्रीनगर की सुबह की यह एक बेहद खुशनुमा शुरूआत थी।
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