पुराने शिवमंदिर की देखभाल करते परिवार के मुखिया ने सलाह दी थी कि हमको पुराना श्रीनगर भी जरूर देखना चाहिए।
दो-चार दिन में किसी शहर को घूम लेना, जान लेना असम्भव है। शहर की कुछ जगहों को देखकर, उनके साथ फ़ोटो खिंचवाकर और कुछ यादें समेटकर शहर को जानना कत्तई मुमकिन नहीं।
किसी शहर के बसने में, उसकी रवायत बनने में न जाने कितने साल लगते हैं। शहरों के चलन तय होते हैं। उनके नाम पर किस्से बनते हैं। मुहावरे बनते हैं। मिजाज तय होते हैं। सिर्फ इमारतों से किसी शहर की पहचान नहीं होती। शहर को बसाने का और उसको पहचान दिलाने का काम उस शहर के आम आदमी करते हैं। आम लोग ही किसी शहर को खास बनाते हैं।
शहर से आगे बढ़ कर किसी इलाके और देश के बारे में भी यही बात सच है।
कल जब सुबह निकले तो एक जगह कुछ लोग खड़े दिखे। देखा तो पता चला कि वहां कश्मीरी रोटी बन रही थी। तंदूर सुलग रहा था। एक आदमी रोटी बना रहा था। आटे की लोई लेकर उसको थोड़े पानी के सहारे चपटा करके फिर हथेली और उंगलियों के सहारे फैलाते हुए रोटी बनाई जा रही थी। रोटी फैलाते हुए उंगलियों के पोरों के निशान बनाते जा रहे थे। ये निशान वाला हिस्सा तंदूर की दीवार में चिपकाने में काम आता है। वहीं तंदूर के पास बैठा आदमी रोटी सिंकने के बाद तंदूर से निकाल रहा था।
रोटियों के इंतजार में कुछ लोग सड़क पर खड़े थे और कुछ लोग दुकान के ऊपरी हिस्से में बैठे भी थे। कश्मीरी रोटी लोग चाय के साथ, मक्खन लगाकर या सब्जी के साथ भी खाते होंगे। पहलगाम में मैंने इसे चाय के साथ खाया था।
कश्मीरी रोटी बनती देखी तो धूमिल की कविता अनायास याद आई:
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
आगे बढ़ते हुए एक दुकान के सामने एक नौजवान मिले। मैंने उनसे डाउन टाउन का रास्ता पूछा तो उन्होंने कुछ बताने के पहले पूछा -'आप खैरियत से तो हैं? तसल्ली से हो जाइए फिर बताते।'
उन्होंने रास्ता बताया। इसके बाद अपने बारे में। बताया कि उनका एडवरटाइजिंग का और सुनारी का काम है। जिस जगह बैठे थे उस काम्प्लेक्स की दुकानें किराए पर उठी हैं। कुछ देर में खुलेंगी। उन्होंने मुझे रुककर या लौटते में चाय पीकर जाने के लिए कहा।
उनके इस व्यवहार के लिए मैंने उनकी तारीफ की और शुक्रिया कहा। इस पर उन्होंने कहा -'हम लोगों का सारा काम-काज, रोटी-पानी सब पर्यटन पर निर्भर है। मेहमान से अच्छा व्यवहार करेंगे तभी वह फ़िर आएगा। इसीलिए मेहमाननवाजी हमारे खून में शामिल हो गयी है। हमारा व्यवहार भी इसीलिए ऐसा हो गया हैं। मेहमान की आवभगत और देखभाल में कोई कसर नहीं रखते।'
व्यवहार के पीछे आर्थिक कारण वाली बात कहां तक सही है कहना मुश्किल लेकिन यह भी एक सोच है। खान पान , बात-व्यवहार इंसान के जीवन को दूर तक और देर तक प्रभावित करता है।
रागदरबारी उपन्यास में गयादीन उड़द की दाल नहीं खाते थे। इसलिए क्योंकि उड़द की दाल खाने से गैस बनती है। गैस से गुस्सा आता है। और गुस्सा और व्यापार एक साथ नहीं चल सकते। व्यपार में सफलता के लिए इंसान को सहनशील होना चाहिए।
उन नौजवान का नाम बसारत है। बसारत मतलब जन्नत। हमने उनका फोटो लेना चाहा तो उन्होंने मना कर दिया यह कहते हुए कि हमारे यहां इसकी इजाजत नहीं और मैं इस सीख पर अमल करता हूँ।
चलते समय फिर बसारत ने रुककर या लौटते में चाय पीने का ऑफर दिया।
लौटते में अगर सम्भव हुआ चाय पीने के लिए रुकने की बात कहकर हम आगे बढ़ गए।
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