गुलमर्ग में गंडोला राइड के बाद ठहरने की जगह आये। आर्मी की एक यूनिट की कॉटेज। रहने का बहुत शानदार इंतजाम। चारो तरफ हरियाली ही हरियाली। फूल भी कुछ खिले हुए थे।
तीन बजे करीब आये थे। थोड़ी देर आराम किया। शाम होने पर सड़क पर आ गए। मन किया गुलमर्ग बाजार तक टहल के आया जाए। किसी जगह अगर बाजार में बैठकर चाय न पी जाएं तो लगता है, घुमाई में कसर रह गई।
इससे यह सीख मिली कि कोई काम अगर ठीक लगता है तो लोगों की टीका-टिप्पणी की परवाह किये बिना चुपचाप काम में लगे रहना चाहिए। फ़ालतू के सवाल-जबाब में समय और ऊर्जा बेकार होती है।
कुछ आगे जाने पर एक घुड़सवार घोड़े पर चढ़ा आता दिखा। घोड़े के पैर में बंधी घण्टिया रिदम में बज रहीं थी। घुड़सवार के चेहरे थकान के लक्षण दिख रहे थे।
थोड़ी देर बाद सड़क पर एक मियां-बीबी घुड़सवारी करते दिखे। सड़क किनारे के पत्थर के सहारे घोड़े पर चढ़ा आदमी और साथ में उसकी पत्नी। आदमी तो घोड़े पर चढ़ जाने के बाद आराम से था। लेकिन महिला थोड़ा डरी हुई थी। कह रही थी-'भैया मुझे बहुत डर लग रहा है, मुझे पकड़ के रखना।'
दोनों सवारियों को घोड़े वाले पकड़े हुए थे। घोड़े की रास उनके ही हाथ में थी। सब आहिस्ते-आहिस्ते चलते जा रहे थे। मुझे फ़ोटो लेते देख आदमी ने अपना मोबाइल मुझे दिया। मैंने उनका फोटो लिया और पीछे चलते हुए वीडियो भी बनाया। देखना सामने चलना पीछे। कोई पीठ पर आंख तो है नहीं। वीडियो बनाते हुये लग रहा था कि पीछे कोई गड्ढा या अवरोध न आ जाये और हम सर के बल गिरे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
आगे चलकर तीन घुड़सवार दिखे। मतलब बिना सवारी के घोड़े से शुरू करके तीन सवारी तक पहुंच गए। एक तरह से थीम फोटोबाजी हो गयी घोड़ो पर।
अगला सीन था एक घोड़े पर सवार के साथ एक घोड़ा बिना सवार का। घोड़े अपने खुरों से आवाज करते हुए सड़क पर चलते गए।
एक दुलकी चाल से जाते घुड़सवार ने अपनी फोटो खींचते देखकर पूंछा-'बैठना है भईया घोड़े पर?' हम न कहकर आगे बढ़ गए।
अभी तक घोड़ो पर घोड़ो वालों के अलावा जो सवारियां दिखीं थी उनमें सवारियां सिर्फ बैठी थीं घोड़ों पर। घोड़ों की रास साथ में चलते हुए घोडेवालों के हाथ में ही थी। यह कुछ इसीतरह जैसे आजकल दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों की सरकारों की लगाम उन देशों के कारपोरेट के हाथ में होती है।
इस बीच घर से फोन आ गया। हम बतियाने लगे। फोन करते ही एक महिला घुड़सवार एकदम सधे सवार की तरह घोड़ा दौड़ाते हुए दिखी। बिना खौफ के पूरे आत्मविश्वास से मुस्कराते हुए घोड़ा हांक रही थी महिला। उसके पीछे एक आदमी जो शायद उस महिला का जीवनसाथी रहा होगा अपने होंठो के बीच बिना सुलगी सिगरेट दबाए आते दिखा। उसके इंतजार में महिला रुक गयी। दोनों आपस में बतियाने लगे। आदमी के होंठ के बीच सिगरेट ऐसे ही दबी रही। बाद में सुना कोई आदमी महिला घुड़सवार की तारीफ कर रहा था।
रास्ते में चिल्ड्रन पार्क भी दिखा। बच्चे वहां खेल रहे थे। झूला झूल रहे थे। कुछ महिलाएं भी पींगे मारते दिखीं।
आगे सड़क किनारे एक बुजुर्ग सिगरेट पीते, राख झाड़ते बैठे दिखे। उम्र साठ के करीब। हमको देखकर उन्होंने घुड़सवारी का ऑफर दिया। हमने मना किया लेकिन बतियाते रहे।
बुजुर्गवार का नाम गुलाम मोहम्मद है। पास के शेखपुरा गांव में रहते हैं। यहां गुलमर्ग में किराए पर रहते हैं। हफ्ते-दस दिन में घर जाते हैं। बेटा नर्स की पढ़ाई कर रहा है। दिन भर का ख़र्च हजार रुपये, आज अभी तक की कमाई 500 रुपए हुई।घोड़ा पिछले साल ही खरीदा। 45 हजार का । बारामूला से खरीदा था घोड़ा। नाम रखा -पीटर।
गुलाम मोहम्मद ने पीटर को दिखाया। पीटर पास के ही मैदान में घास चर रहा था।
गुलाम मोहम्मद मुझे घुड़सवारी के लिए लगातार उकसा रहे थे। बोले -'आपसे कुछ कमाई करना है। चलिए आपको बाजार तक घुमाकर लाते हैं।'
हम माने नहीं। अल्बत्ता मन में सोचा कि कुछ पैसे दे देंगे गुलाम मोहम्मद को। हमसे कुछ कमाई करने का संकल्प पूरा हो जाएगा उनका।
वहीं दो घोड़े घास चर रहे थे। एक घोड़ा लँगड़ा रहा था। शायद पैर में चोट थी उसके। इलाज के अभाव में चोट न जाने कब ठीक होगी।
हमसे बात करने के साथ ही सामने से आते दो घुड़सवारों से बतियाने लगे बुजुर्गवार। देखते-देखते उनका पीटर पास आ गया और वे लपककर घोड़े पर चढ़कर कड़बड़-कड़बड़ करते हुए निकल गए। हमारा उनको कुछ पैसे देने का मन मन में रह गया।
एक बार फिर लगा कि जो भलाई का जो काम अच्छा लगे उसे फौरन कर डालना चाहिए। देर करने में अक्सर अफसोस ही पल्ले पड़ता है।
घुड़सवारी के साथ सड़क पर कुछ साइकिल सवार भी फर्राटे से साइकिल चलाते दिखे। हमने उनके वीडियो भी बना लिए।
आगे हम सड़क पर अकेले हो गए। बाजार का रास्ता पूछने के लिए कोई दिखा नहीं। चलते रहे। आगे मोड़ पर दो लड़के जाते दिखे। उन्होंने बताया कि तीन रास्ते हैं -पहला सड़क से जो करीब चार-पांच किलोमीटर दूर है, दूसरा रास्ता पगडंडी से है शॉर्टकट लेकिन उसमें रास्ते में कीचड़ है, तीसरा पहाड़ पर चढ़कर। पहाड़ उतरते ही बाजार है।
हमको बताकर लड़के पहाड़ के रास्ते चल दिए। हम भी उनके पीछे चढ़ने लगे पहाड़।
चढ़ने तो लगे। लेकिन जरा देर में ही हांफ गए । सांस तेज। हम ठहर गये। सोचा फालतू में चढ़े। उतर जाएं। लेकिन उतरने की बात तो तब जब सांस सम्भले। वहीं खड़े हो गए। सांस बराबर हुई। आगे खड़े होकर लड़के हमसे पूछ रहे थे -'क्या हुआ थक गए अंकल?'
उनकी आवाज का अंदाज -'तुमसे न हो पायेगा' वाला था।
सांस सम्भलने पर हमने फिर चलना शुरू किया। और धीरे-धीरे पहाड़ पर ट्रेकिंग करते रहे। कुछ देर में ढलान भी आ गई और हम बाजार के पास आ गए। बीच में घोड़े, घुड़सवार भी खूब मिले।
आगे शिवमंदिर था। लड़को ने बताया कि अब बन्द हो गया होगा मंदिर।
लड़के चले गए। हम आहिस्ते-आहिस्ते चलते रहे। मंदिर के पास कुछ लोग ऊपर से आते दिखे। हम भी गए। मंदिर के कपाट बंद थे लेकिन वहां तक हो आये। कुछ देर वहीं बैठकर दोस्तों को फोन भी लिए। सुस्ता भी लिये।
मंदिर से नीचे उतरकर आगे बढ़े तो अंधेरा हो गया था। मोबाइल की रोशनी में आगे बढ़े। कीचड़ काफी था। बचते-फिसलते आगे चलते गए। पगडंडियों पर घोड़ों के खुरों के निशान दिख रहे थे।
हमको कानपुर के भगवती प्रसाद दीक्षित की बात याद आई :
चलो न मिटते पद चिन्हों पर,
अपने रास्ते आप बनाओ।
कीचड़ में बने खुरों के निशान पर चलने में फिसलने का खतरा भी था। हम घास पर चलते हुए आखिर में सड़क पर आ लगे।
सड़क पर देखा सब दुकानें बन्द। गोले में हमारे खिलाफ साजिश। सड़क पर गुजरते लोगों ने बताया कि अब सब बन्द हो गया यहां। हमने वापस लौटने का तय किया, मजबूरी थी।
यह हाल वैसे ही हुए जैसे 1983 में हम लोग साइकिल यात्रा के दौरान पारसनाथ पहाड़ पर चढ़े तो ऊपर पहुंचते ही बोला गया यहां रात में रुक नहीं सकते। नीचे जाना होगा। पाँच छह घण्टे की चढ़ाई के बाद फौरन नीचे उतरना पड़ा।
बहरहाल वापस हो लिए। रास्ते में एक रेस्टोरेंट दिखा। वहां चाय के लिए पूछा उसने बोला अब चाय नहीं मिल सकती। हमने कहा पानी ही पिला दो। पानी पिया।
वापसी का रास्ता पूछकर हम चल दिये वापस। रेस्टोरेंट वाले 4 किलोमीटर का हजार रुपया मांग रहे थे। फिर बोले पांच सौ। हम बोले -दूर। निकल लिए वापस।
रास्ता सड़क से था। रोशनी थी। चलते गए। आती-जाती गाड़ियां मिली। सोचा लिफ्ट ले लें लेकिन नहीं लिए।
चार किलोमीटर का रास्ता पूरा ही नहीं हो पा रहा था। एक युवा जोड़ा मिला अभी तो यहां से भी चार किलोमीटर है। रास्ता शैतान की आंत हो गया।
इस बीच ऊपर ऊंचाई उन आवाज आई -आप भी लौट आये। वे लड़के वही थे जिनके उकसाने पर हम पहाड़ चढ़ गए थे। नाम थे शब्बीर और शफी। शब्बीर हमारे दोस्त का नाम है।।उसका नाम हमने उसके नाम के मतलब के नाम से सेव किया है-'शब्बीर माने लवली।'
आगे बढ़ते गए लेकिन रास्ता खत्म ही नहीं हो रहा था। महादेवी वर्मा जी कविता याद आई:
पंथ होने दो अपरिचित,
प्राण रहने दो अकेला।
अचानक पीछे से सेना का ट्रक आता दिखा। यह हमारी वाहन निर्माणी जबलपुर का बना था। हमने अनायास लिफ्ट के लिए हाथ दिया। जवान ने पूछा -'अंकल क्या समस्या है?'
हमने रहने की जगह बताई। हवास। वहां तक छोड़ने के लिए कहा। ट्रक उधर ही जा रहा था। जवान बोला-'बैठ जाइए पीछे, चढ़ जाएंगे?'
हम चढ़ गए। ट्रक चल दिया। बैठ तो गए। लेकिन सोचते रहे कहीं गड़बड़ लोग न हों। शंका बहुत गड़बड़ चीज है। हमेशा कमजोर करती है। मन को समझाकर बैठे रहे।
हवास आया। ट्रक रुका। हम उतरने की कोशिश में थोड़ा ऊपर से कूद गये। पैर तो लग गए जमीन से लेकिन झटके के चलते बायां हाथ डिसलोकेट हो गया। हाथ उतर गया। अब नया बवाल।
मेरे हाथों के ज्वाइंट कमजोर हैं। कभी भी उतर जाते हैं। बहुत दर्द होता है। हाथ झोले की तरह लटक जाता है। पहले बहुत होता था। एक बार तो बच्चे को चपतियाने के चक्कर में ही हाथ उतर गया।
उतरा हुआ हाथ बैठाने का जुगाड़ हमारे यहां अम्मा जानती थीं, फिर बाद में पत्नी। उनके न होने पर हम भी दाएं-बाएं करके बैठा लेते। लेकिन कोई पता नहीं रहता कितनी देर में ठीक होगा। एक बार तो डॉक्टर ने अस्पताल में रात भर भर्ती रखा, पेन किलर देता रहा। फिर भी ठीक नहीं हुआ। आखिर में घर में अम्मा जी ने ही बैठाया हाथ।
उतार कर ट्रक चला गया। दरबान ने दर्द देखा हमारे चेहरे पर कारण पूछा। राइफल दूसरे को थमाकर हाथ बिठाने की कोशिश करता रहा। हर गलत कोशिश पर दर्द बढ़ जाता। हमको लगा अब रात इसी दर्द के साथ बीतेगी। यह सोचना ही कष्टकर था।
इस बीच कोशिश जारी रही। फिर अचानक हड्डी सही बैठ गयी। हमने मारे दरबान को गले लगाकर शुक्रिया अदा किया। जो सुकून मिला हाथ ठीक होने से उसको वही समझ सकता है, जिसके हाथ की हड्डी कभी उतरी हो। एकदम ऐसा हाल हो जाता है मानो अच्छी-खासी चलती हुई सरकार के विधायक पाला बदल लें। सरकार पैदल हो जाये।
बहरहाल लौटकर कमरे में आये और खाना खाकर लेट गए। सोने से पहले बाएं हाथ के जोड़ को सहलाते हुए कंधे और हाथ को सहलाते हुए कहा -'मिलजुलकर रहा करो यार। परेशान कर देते हो।'
कंधा और हड्डी बोले तो कुछ नहीं लेकिन लग रहा था कि कह रहे हों-'तुम भी तो लड़कपन से बाज आओ। लफड़ा खुद करते हो, तोहमत हम पर।'
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