Saturday, August 06, 2022

बेताब घाटी में पानी की सड़क



अरु घाटी के बाद बेताब घाटी देखने गए। पहले इस घाटी का नाम हगन घाटी था (Hagan Vally)। यहां 1983 में सनी देवल और अमृता सिंह की फिल्म बेताब की शूटिंग हुई थी। फिल्म की लोकप्रियता के कारण इसका नाम बेताब घाटी हो गया। ऐसे तो यहां आरजू, कश्मीर की कली, जब जब फूल खिले, कभी-कभी, सत्ते पे सत्ता, सिलसिला ,रोटी आदि फिल्मों की भी शूटिंग हुई है। लेकिन नाम पड़ा बेताब घाटी के चलते।
पहलगाम और चंदनबाड़ी के बीच स्थित बेताब वैली पहलगाम से करीब 15 किलोमीटर दूर है। इसी रास्ते से होकर अमरनाथ के यात्रा के लिए लोग जाते हैं। फिलहाल अमरनाथ यात्रा के कारण चंदनबाड़ी आम यात्रियों के बंद है।
आसपास के पहाड़ों के ट्रेकिंग के लिए बेस कैंप के बेताबवैली में बनाए जाते हैं।
अमरनाथ के रास्ते में होने के कारण अमरनाथ यात्रा के बारे में बातें करते हुए कुछ ही देर में हम बेताब घाटी पहुँच गए। जहां गाड़ियां खड़ी हुईं थी वहीं पास में ही लिडडर नदी बह रही थी। ऐसे जैसे गाड़ियों के चलाने की सड़क के बगल में पानी की सड़क।
लिडडर नदी का पानी छोटे बच्चे की तरह उछलता-कूदता हुआ बह रहा था। कभी किसी पत्थर के पीछे छुप जाता मानो साथ के पानी से छुपन-छुपाई खेल रहा हो। आगे चलकर फिर उस पानी से गलबहियाँ करते मिलकर बहने लगता। नदी किनारे खड़े पेड़ों की पत्तियां हिलती-डुलती-झूमती पानी की लहरों के खेल देखती हुई तालियाँ सी बजा रही थीं। उनका उत्साह बढ़ा रहीं थी। कुछ पत्तियां तो उत्साहित होकर पानी में आ मिली और उनके साथ बहने लगीं।
कुछ देर नदी के पानी के प्रवाह को देखने के बाद हम अंदर आए। अंदर गेट के पास ही सूचनापट पर बेताब वैली के नामकरण की कहानी लिखी थी।
अंदर बहुत बड़ा पार्क , खूब सारे पेड़ और हरियाली थी। दोपहर का मौसम था। धूप भी बहुत सुंदर खिली थी। ढेर सारे पर्यटक वहां घूमते हुए फोटोग्राफी कर रहे थे। मस्ती कर रहे थे। बगीचे में स्थानीय कपड़े बेचने वाले लोग भी थे।
पार्क में कुछ देर टहलने के बाद वहां स्थित शौचालय की तरफ गए। बाहर एक बुजुर्ग उसकी देखभाल करने के लिए थे। उन्होंने लीज पर लिया है शौचालय। दो साल के साथ हजार रुपये। कोरोना काल में पर्यटकों के न आने के कारण बहुत नुकसान हुआ।
बुजुर्ग का नाम मोहम्मद रजब है। जब पैदा हुए तो नाम पूछने के लिए मां पीर के पास गई। उन्होंने रजब महीने में पैदा होने के कारण नाम रख दिया- मोहम्मद रजब। उम्र कितनी है ठीक याद नहीं लेकिन लगभग अस्सी साल होगी ऐसा बताया बुजुर्ग ने।
सामने पहाड़ पर बने घर दिखाते हुए बताया –‘वहां रहते हैं। रोज आते-जाते हैं।‘
तीन बेटियाँ हैं। सबसे मिसरा , हसीना, मीमा। छोटी बेटी 20 साल की है। उसकी शादी करनी है। लड़कियों की शादी में दहेज नहीं देते लेकिन गृहस्थी और गुजारे के लिए सामान और पैसा देते हैं।
उनके पास ही एक महिला बैठी थी। हमारी बातें चुपचाप सुनती। बुजुर्ग ने बताया यह हमारी घरवाली है। अजीज नाम है इसका।
दोनों की उम्र में काफी अंतर लगा। पूछने पर बताया बुजुर्ग ने यह मेरे दूसरी पत्नी है। पहली पत्नी मरते समय इससे मेरे शादी बना गई। मेरे पड़ोस में रहती थी। मेरा ख्याल रखने के लिए मेरी शादी कर गई। बेटियाँ इसके साथ खुशी से रहती हैं। यह मेरा ख्याल रखती है। इससे कोई बच्चा नहीं है।
अपने बुजुर्ग पति का ख्याल रखने के लिए उनकी शादी उनकी पड़ोसन से कर जाने वाले पत्नी की मौत कब हुई, कितने साल हुए यह याद नहीं रजब को।
बुजुर्ग की पत्नी अजीज को शायद मेरी बात समझ नहीं आ रहीं थी। वो चुपचाप कभी थोड़ा मुस्कराते हुए मेरी बात सुनती जा रही थी।
अजीज के पास घास काटने की दराती और बोरे में घास थी। दो गायें हैं उनके पास। अपनी गायों के लिए घास ले जा रहीं थीं वे।
बात करते हुए बताया उन्होंने। पहले हम बहुत अमीर थे। खूब खुशहाल थी जिंदगी। बाद में आग में सब जल गया। फिर नुकसान भी हुआ। अब बस गुजारा हो रहा है।
बुजुर्ग के पास से वापस आकर कुछ देर हम बगीचे में टहलते रहे। ऊंचे-ऊंचे पेड़ों के बीच की दरारों से धूप भी घुसकर बगीचे में चुपचाप पड़ी थी। शायद उसको बिना टिकट पकड़े जाने का डर हो। उसे बगीचे में एक महिला घास पर बैठी नमाज पढ़ रही थी।
पास के रेस्टोरेंट में चाय पीने की मंशा से गए। चाय थी नहीं वहाँ। देर लगनी थी बनने में। बोला दूसरे रेस्टोरेंट में मिल जाएगी। वह भी हमारा ही है।
हम चाय पीना स्थगित करके वहीं बेंच पर बैठकर आने-जाने वाले पर्यटकों का मुआयना करते रहे। सामने एक बच्ची सड़क पर बैठी चाबी के गुच्छे बेंच रही थी। कोई ग्राहक आटा नहीं दिखा उधर। एक दूसरी बच्ची वहां एक और बच्ची के साथ मांग रही थी। कहते हुए –‘सबेरे से कुछ नहीं मिला अभी तक।‘
भेंड के बच्चे और पक्षी को साथ लेकर घूमते लोग वहां आए सैलानियों से फ़ोटो खिंचाने के लिए कह रहे थे। बहुत कम लोग उनके साथ फ़ोटो खिंचा रहे थे। बगल में लिडडर नदी सबसे बेपरवाह मस्ती से ,इठलाती हुई बह रही थी। सब उसके साथ फ़ोटो खिंचाने के लिए लपक रहे थे।
कुछ देर में शर्मा जी परिवार सहित आ गए। हम लोग वापस पहलगाम के लिए चल दिए। टैक्सी स्टैंड पर विदा होते समय शर्मा जी ने पूछा –‘मुझे और कुछ देना तो नहीं है आपको।‘
हिसाब से 37 रुपए पचास पैसे निकलते थे शर्मा जी के परिवार के। लेकिन हमने कहा –‘नहीं, कुछ नहीं देना।‘
37 रूपये पचास पैसे का हिसाब करके मैं ‘भले आदमी’ से ‘हिसाबी आदमी’ नहीं बनना चाहता था।

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