कश्मीर में 14 जुलाई से 21 जुलाई तक रहे। 22 को सुबह वापस आ हुए। इस बीच श्रीनगर, पहलगाम, गुलमर्ग घूमे। बाक़ी कश्मीर अगली बार देखने के लिए छोड़कर वापस आ हुए।
वापस आने से पहले वाली शाम रहने की जगह के आसपास घूमे। डल झील एक बार फिर से देखी। सड़कों पर काफ़ी देर टहले। शाम को कृष्णा भोजनालय खाना खाने गये।
तय करने के बाद कुछ देर बाहर इंतज़ार किया। फिर अंदर घुस गए। एक मेज़ के पास खड़े हो गये। जब यहाँ खाने वाला उठेगा, यहीं क़ब्ज़ा जमाएँगे। बैठकर खाएँगे। एकदम रेलवे की जनरल बोगी जैसा हिसाब।
इंतज़ार का फल स्वादिष्ट ही मिला। खाने वाला खाकर उठा और हम जम गये। बेयरा भी हमारी लगन से प्रभावित लगा। हमारे बैठते ही आर्डर लेने आ गया। खाने के साथ खीर का आर्डर की। पूर्ण तृप्त होकर खाए। खाकर चले आए।
खीर की बात चली तो बताते चलें कि कृष्णा रेस्टोरेंट की खीर वहाँ का ख़ास आइटम है। कानपुर में भी ज्ञान वैष्णव रेस्टोरेंट में भी जब भी खाना खाते हैं, खीर ज़रूर खाते हैं। खीर और कश्मीर का नारा भी बहुत प्रसिद्ध रहा था काफ़ी दिन:
“दूध माँगोगे खीर देंगे,
कश्मीर माँगोगे, चीर देंगे।”
लौटकर होटल आए। सामने वाली दुकान अभी तक खुली थी। किराने की दुकान। शब्बीर नाम है। पत्नी सहित दुकान चलाते हैं। बच्चे सब बाहर। आगरा से बीस साल पहले आए थे। थीं बस गये। बच्चे आते-जाते रहते हैं।
शब्बीर की दुकान पर तमाम हीरो-हीरोईन की फ़ोटो लगी थी। पता चला सालों फ़ोटोग्राफ़ी का काम किया। पागलपन की हद तक फ़ोटोग्राफ़ी से लगाव था। जबसे डिजिटल फ़ोटोग्राफ़ी का चलन हुआ, छोड़ दी फ़ोटोग्राफ़ी। मन उचट गया।
उनके शौक़ के बारे में बाद में विस्तार से बात करने की सोची थी। लेकिन फिर रह ही गया बात करना।
श्रीनगर से दिल्ली की उड़ान सुबह थी। हमारे ड्राइवर साहब सुबह छह बजे आ गए। एयरपोर्ट समय पर पहुँच गये। बहुत भीड़ थी। कई लाइनों में लगे थे लोग। एयरपोर्ट में प्रवेश के पहले सामान की स्कैनिंग जरुरी।
हम लोग लाइन पर लगे थे। बीच में कुछ लोग घुसे। उनको लाइन में लगे लोगों ने टोंका। कुछ तो मान कर लाइन में लग गए। कुछ लोग ज़बरियन घुस ही गये लाइन में कहते हुए -“हमारी फ़्लाइट का समय हो गया है।” लोगों ने भुनभुनाते हुए उनको खपा लिया लाइन में।
सामान का एक्सरे करवाने के बाद सामान फिर गाड़ी में लादा। इसके बाद एयरपोर्ट पर हमको छोड़कर हमारे ड्राइवर वापस हुए। हफ़्ते भर से ऊपर के साथ की यादें। विदा होने के पहले सेल्फ़ी ली। विदा हुए।
कश्मीर प्रवास के दौरान गाड़ी साथ थी। गाड़ी का किराया पहले ही चुकता कर चुके थे। श्रीनगर हवाई अड्डे से होटल का किराया 1200/- रुपए और घूमने का 4000/-प्रतिदिन। आठ दिन का किराया 32000/- और दो बार के एयरपोर्ट से आने-जाने का 2400/- मतलब कुल जमा 34400/- खर्च हुए केवल गाड़ी खर्च में। बेटे को बताया तो बोला -हमारे firguntravels.com में 30000/- हफ़्ते भर घुमा देते, रहने के खर्च के समेत।
बहरहाल, अगला झटका बोर्डिंग पास के समय लगना था। तौलने में सामान का वजन हुआ। बताया हुआ तीन हज़ार और लगेगा। वजन ज़्यादा है। हमने सूटकेस का सामान हैंडबैग में भरा। हैंडबैग फूल गया। कुछ सामान के कारण और बहुत कुछ ग़ुस्से के कारण। उसका भी मूड आफ हो गया।
फिर वजन कराया। अभी भी दो किलो से कुछ अधिक वजन ज़्यादा था। 1100/- ‘पेनाल्टी’ भरने के बाद सामान बुक हुआ। हम कश्मीर में हुई सारी ख़रीद का सामान हैंडबैग में घुसा चुके थे। फिर भी वजन ज़्यादा कैसे हो गया, समझ नहीं पाए। संभव है दिल्ली और श्रीनगर के तैराजू में अंतर हो।
मज़े की बात जितना सामान ले गये थे उसमे से आधे का उपयोग भी नहीं हुआ। सिवाय कुलीगिरी और जुर्माने के सामान ने कोई सार्थक काम नहीं किया। निठल्ले सामान ऐसा ही कराते हैं।
जुर्माना भरने के बाद बोर्डिंग पास बनवाया। जहाज का इंतज़ार किया। आने पर बैठ गये और सीधे दिल्ली उतरे। यह हमारी पहली कश्मीर यात्रा थी।
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