Sunday, September 25, 2022

श्रीनगर हवाई अड्डे पर ‘वजन जुर्माना’



कश्मीर में 14 जुलाई से 21 जुलाई तक रहे। 22 को सुबह वापस आ हुए। इस बीच श्रीनगर, पहलगाम, गुलमर्ग घूमे। बाक़ी कश्मीर अगली बार देखने के लिए छोड़कर वापस आ हुए।
वापस आने से पहले वाली शाम रहने की जगह के आसपास घूमे। डल झील एक बार फिर से देखी। सड़कों पर काफ़ी देर टहले। शाम को कृष्णा भोजनालय खाना खाने गये।
कृष्णा भोजनालय में भीड़ इतनी होती है कि नम्बर का इंतज़ार करना पड़ता है। अभी तक एक बार भी नम्बर नहीं लगा था। अगल-बग़ल की दुकान से खाकर वापस आते रहे। लेकिन आने के पहले तय किया क़ि चाहे जितनी देर हो जाए, खाना यहीं से खाकर जाएँगे।
तय करने के बाद कुछ देर बाहर इंतज़ार किया। फिर अंदर घुस गए। एक मेज़ के पास खड़े हो गये। जब यहाँ खाने वाला उठेगा, यहीं क़ब्ज़ा जमाएँगे। बैठकर खाएँगे। एकदम रेलवे की जनरल बोगी जैसा हिसाब।
इंतज़ार का फल स्वादिष्ट ही मिला। खाने वाला खाकर उठा और हम जम गये। बेयरा भी हमारी लगन से प्रभावित लगा। हमारे बैठते ही आर्डर लेने आ गया। खाने के साथ खीर का आर्डर की। पूर्ण तृप्त होकर खाए। खाकर चले आए।
खीर की बात चली तो बताते चलें कि कृष्णा रेस्टोरेंट की खीर वहाँ का ख़ास आइटम है। कानपुर में भी ज्ञान वैष्णव रेस्टोरेंट में भी जब भी खाना खाते हैं, खीर ज़रूर खाते हैं। खीर और कश्मीर का नारा भी बहुत प्रसिद्ध रहा था काफ़ी दिन:
“दूध माँगोगे खीर देंगे,
कश्मीर माँगोगे, चीर देंगे।”
लौटकर होटल आए। सामने वाली दुकान अभी तक खुली थी। किराने की दुकान। शब्बीर नाम है। पत्नी सहित दुकान चलाते हैं। बच्चे सब बाहर। आगरा से बीस साल पहले आए थे। थीं बस गये। बच्चे आते-जाते रहते हैं।
शब्बीर की दुकान पर तमाम हीरो-हीरोईन की फ़ोटो लगी थी। पता चला सालों फ़ोटोग्राफ़ी का काम किया। पागलपन की हद तक फ़ोटोग्राफ़ी से लगाव था। जबसे डिजिटल फ़ोटोग्राफ़ी का चलन हुआ, छोड़ दी फ़ोटोग्राफ़ी। मन उचट गया।
उनके शौक़ के बारे में बाद में विस्तार से बात करने की सोची थी। लेकिन फिर रह ही गया बात करना।
श्रीनगर से दिल्ली की उड़ान सुबह थी। हमारे ड्राइवर साहब सुबह छह बजे आ गए। एयरपोर्ट समय पर पहुँच गये। बहुत भीड़ थी। कई लाइनों में लगे थे लोग। एयरपोर्ट में प्रवेश के पहले सामान की स्कैनिंग जरुरी।
हम लोग लाइन पर लगे थे। बीच में कुछ लोग घुसे। उनको लाइन में लगे लोगों ने टोंका। कुछ तो मान कर लाइन में लग गए। कुछ लोग ज़बरियन घुस ही गये लाइन में कहते हुए -“हमारी फ़्लाइट का समय हो गया है।” लोगों ने भुनभुनाते हुए उनको खपा लिया लाइन में।
सामान का एक्सरे करवाने के बाद सामान फिर गाड़ी में लादा। इसके बाद एयरपोर्ट पर हमको छोड़कर हमारे ड्राइवर वापस हुए। हफ़्ते भर से ऊपर के साथ की यादें। विदा होने के पहले सेल्फ़ी ली। विदा हुए।
कश्मीर प्रवास के दौरान गाड़ी साथ थी। गाड़ी का किराया पहले ही चुकता कर चुके थे। श्रीनगर हवाई अड्डे से होटल का किराया 1200/- रुपए और घूमने का 4000/-प्रतिदिन। आठ दिन का किराया 32000/- और दो बार के एयरपोर्ट से आने-जाने का 2400/- मतलब कुल जमा 34400/- खर्च हुए केवल गाड़ी खर्च में। बेटे को बताया तो बोला -हमारे firguntravels.com में 30000/- हफ़्ते भर घुमा देते, रहने के खर्च के समेत।
बहरहाल, अगला झटका बोर्डिंग पास के समय लगना था। तौलने में सामान का वजन हुआ। बताया हुआ तीन हज़ार और लगेगा। वजन ज़्यादा है। हमने सूटकेस का सामान हैंडबैग में भरा। हैंडबैग फूल गया। कुछ सामान के कारण और बहुत कुछ ग़ुस्से के कारण। उसका भी मूड आफ हो गया।
फिर वजन कराया। अभी भी दो किलो से कुछ अधिक वजन ज़्यादा था। 1100/- ‘पेनाल्टी’ भरने के बाद सामान बुक हुआ। हम कश्मीर में हुई सारी ख़रीद का सामान हैंडबैग में घुसा चुके थे। फिर भी वजन ज़्यादा कैसे हो गया, समझ नहीं पाए। संभव है दिल्ली और श्रीनगर के तैराजू में अंतर हो।
मज़े की बात जितना सामान ले गये थे उसमे से आधे का उपयोग भी नहीं हुआ। सिवाय कुलीगिरी और जुर्माने के सामान ने कोई सार्थक काम नहीं किया। निठल्ले सामान ऐसा ही कराते हैं।
जुर्माना भरने के बाद बोर्डिंग पास बनवाया। जहाज का इंतज़ार किया। आने पर बैठ गये और सीधे दिल्ली उतरे। यह हमारी पहली कश्मीर यात्रा थी।

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Thursday, September 22, 2022

नदी के पेट पर शंख बनाती लहरें



आज बड़े दिन बाद सुबह टहलने निकले। पैदल। सड़क पर आए तो लगा साइकिल से चला जाये आज। जहां लगा वहीं से लौट लिए। बीस कदम लौटने के बाद लगा आज पैदल ही सही। फिर लौट लिए। दुविधा में दो बार इधर-उधर हुए। अंततः पैदल ही निकले।
दुविधा का कारण विकल्प था। साइकिल और पैदल के विकल्प में एक चुनने में दुविधा। दुविधा का जन्म विकल्प की मौजूदगी से होता है। जितने अधिक विकल्प होंगे उतनी अधिक दुविधा होगी। तर्क का जामा पहनाया जाए तो किसी मामले में दुविधा की मात्रा विकल्पों की सँख्या के समानुपाती होती है।
गेस्ट हाउस के सामने ही तीन महिलाएं खड़ी बतिया रहीं थीं। सुबह की सैर के लिए निकली होंगी। उनके खड़े होने की स्थिति ऐसी थी कि अगर उनके खड़े होने के बिंदुओं को मिलाया जाए तो समबाहु त्रिभुज बन जाता। कमर पर हाथ रखे बतिया रहीं थीं। निश्चिंतता से। कमर पर हाथ रखकर खड़ा इंसान निश्चिन्तता का पर्यायवाची होता है।
सड़क पर दो कामगार महिलाएं खड़ी बतिया रहीं थीं। उनके चेहरे पर व्यस्तता पसरी थी। दुप्पटा गले और कमर के बीच किसी मेडल की तरह पहने महिलाएं जल्दी-जल्दी बतिया कर काम पर लग जाना चाहती थीं।
एक आदमी घुटन्ना पहने तेज साइकिल चलाता जा रहा था। सर नीचे लिए आदमी हर बार पैडल को लतिया सा रहा था। मानो जल्दी जल्दी चलने के लिए हड़का रहा हो -'अलसिया क्यों रहा है बे तू। जल्दी चल।' पैडल बेचारा चुपचाप पंजो के इशारे पर गोल-गोल घूम रहा था।
पार्क में एक आदमी मुंडी पैरों के बीच छिपाए योग कर रहा था। मुद्रा से ऐसे लग रहा था मानों अपने किये पर शर्मिंदा हो।
मुंह पैरों के बीच करके माफी मांग रहा हो कायनात से। वहीं पर एक महिला अपनी बच्ची के साथ खड़ी पार्क के चबूतरे की दीवार को धकियाती हुई कसरत कर रही थी। पास ही एक आदमी पार्क की रेलिंग को जोर-जोर से हिलाते हुए कसरत कर रहा था। लेकिन उसका अंदाज ऐसा जैसा लोहे की रेलिंग उखाड़कर घर ले जाना चाहता हो।
तिराहे पर तैनात सुरक्षा जवान अपनी राइफल नीची किये निर्लप्त भाव से चौकन्नी निगाह से इधर-उधर देखता ड्यूटी पर तैनात था।
पुल के नीचे की सड़क उखड़ी थी। गिट्टियां निठल्लों की तरह सड़क पर मुंह बाए पड़ी थीं। गिट्टियों के बीच की खाली जगह पर बरसाती पानी ने अपना तम्बू तान लिया था और कीचड़ में तब्दील होकर अपना जलवा बिखेर रहा था।
गंगापुल पर लोग तेजी से आ-जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि पूरा उन्नाव बरास्ते शुक्लागंज कानपुर में घुसा आ रहा हो। थोड़ा बहुत कानपुर भी रिटर्न गिफ्ट की तरह उन्नाव में घुस रहा था।
पुल पर से गुजरता एक आदमी अपनी बिटिया को स्कूल छोड़ने जा रहा था। बिटिया पीछे बस्ता लिए सतर्क बैठी थी। शुक्लागंज में खाये पान मसाले की पीक को अपने जिले में थूकने की मंशा से उसने स्कूटी चलाते हुए गर्दन को जिराफ की तरह लम्बी करके बीच सड़क पर पीक जमा कर दी। सड़क की बिना पैसे की रँगाई हो गयी। मुंह से पीक निकलने के कारण हल्की हुई स्कूटी फिर तेज हो गयी।
नदी का पानी लहराते हुए मस्त बह रहा था। किसी रईस की तरह 'जल-धन से पूर्ण' नदी निश्चिन्त होकर बह रही थी। पानी की लहरें नदी के पेट पर शंख जैसे बना रही थी। नदी के पेट पर बनते हुए शंख ' हर हर महादेव' मुद्रा में आगे बढ़ते जा रहे थे।
नदी के पानी में जगह-जगह बुलबुले भी बन रहे थे। गोया नदी का पेट गुड़गुड़ कर रहा हो। गैस बन रही हो नदी के। डकार लेते हुए गैस छोड़ती जा रही हो। नदी जब चलती है उद्गम से तो दुबली-पतली, छरहरी, अल्हड़ सी होती है। आगे बढ़ते हुए रास्ते ने न जाने कहाँ-कहाँ का कूड़ा करकट खाती हुई बहती है। एसिडिटी हो जाती होगी नदी के। डाइजीन खाते रहना चाहिए नदी को। ज्यादा एसिडिटी से माइग्रेन हो सकता है नदी को। भयंकर सरदर्द का कारण। इन्जेक्शन लगवाने पड़ेंगे ठीक होने के लिए।
पुल पर बढ़िया हवा हवा बह रही थी। पानी के ऊपर बहते हुए ऐसे भी हवा का मूड चकाचक हो जाता है। आज धूप न होने के कारण और भी मस्त लग रहा था। हमारे बालों को छेड़ती हुई हवा बहुत शरारती लग रही थी। लेकिन ऐसी शरारतों का बुरा भी तो नहीं माना जा सकता है।
इस बीच वहां बच्चों को ले जाने वाली स्कूल वैन वहां खड़ी हो गयी। सीएनजी खत्म हो गयी थी वैन की। दूसरी वैन के इंतजार में सब रुक गए। वैन में बच्चे आगे-पीछे करके ठूंसे हुए थे। बारह-पन्द्रह बच्चे होंगे।
बच्चे सेंट एलाओसिस में पढ़ते हैं। इम्तहान चल रहे हैं बच्चों के। हर दूसरे बच्चे के हाथ में उसकी नोटबुक। एक बच्ची ने बताया वह सातवीं में पढ़ती हैं। केमिस्ट्री का इम्तहान है आज। साढ़े सात बजे से। देरी होने से छूट सकता है। ज्यादा देर होगी तो पापा को फोन करेगी। पापा ने कहा है कोई परेशानी हो तो फोन करना। फौरन आ जाएंगे। फोन स्कूल ले जाना एलाउड नहीं है। वैन वाले भैया के फोन से करेगी। पापा, मम्मी भैया सबके फोन नम्बर याद हैं।
बात करते हुए बच्ची वैन से बाहर आ जाती है। साथ में उसकी सहेली भी। बताती है -"पहले सेंट मेरी में एडनिशन लेने वाले थे। वहाँ सिर्फ लड़कियां पढ़ती हैं।फिर यहाँ भी लड़कियों को भी परमिशन हो गयी तो यहीं आ गए। लड़के-लड़कियां साथ पढ़ते हैं सेंट एलाओसिस में। यहां गर्ल्स की बहुत रेस्पेक्ट है। कोई छू नहीं सकता गर्ल्स को।" बच्ची के मन में अपने स्कूल की अच्छाई के प्रति गर्व का भाव है। 45 बच्चों में सिर्फ पांच लड़कियां हैं क्लास में।
वैन में कक्षा छह में पढ़ते बच्चे ने बारिश के बारे में अपने विचार बताये -"स्कूल में रहते एक बूंद नहीं बरसेगा। घर पहुंचते ही बरसने लगेगा।"
बच्चों के फोटो लिए तो कुछ ने वी का निशान बनाया। कुछ ने मुंह पीछे कर लिया। एक छुटकी बच्ची चुपचाप सारे कार्यकलाप को मासूमियत से देखती रही। नीचे उतरी तो बात की। अपर्णा है नाम बच्ची का। कक्षा एक में पढ़ती है। फोटो ली तो और मासूमियत पसर गयी चेहरे पर।
इस बीच दूसरी वैन आ गयी। बच्चे फटाफट सवार होकर चले गए। हमने हाथ हिलाकर सबको बाय बोला और बेस्ट आफ लक बोला इम्तहान के लिए। बच्चों ने थैंक्यू अंकल बोला। सुनकर नदी का पानी लहराया। शायद नदी मुस्कराई हो।
लौटते हुए एक आदमी दोनों हाथ जेब में डाले आते दिखा। देर तक हाथ जेब में डाले रहा। देखा तो जेब में घुसी हथेली से पैंट ऊपर उठाए थे। पेंट ढीली थी। बेल्ट थी नहीं। पैंट को नीचे सरकने से बचाने के लिए जेब में घुसी मुट्ठी से खूंटी की तरह पैंट को थामे हुए थे। उसकी मुट्ठी निर्दलीय विधायकों की तरह पैंट की सरकती हुई अल्पमत की सरकार को संभाले हुए थी।
आगे सड़क पर एक महिला दोनों हाथों में भरी पानी पानी की बाल्टियां लाती दिखी। पानी की कोई बूंद नीचे छलक न जाये इसलिए बहुत सावधानी से चल रही थी सड़क पर।
बीच सड़क पर एक गाय अपने बछड़े को दूध पिला रही थी। बछड़ा दूध पी रहा रहा था। गाय बछड़े को जीभ से सहलाती हुई अपना वात्सल्य प्रकट कर थी। एक महिला गोद में बिनी हुई जलाने की लकड़ियां लिए हुए चली जा रही थी।
सुबह हो गयी थी।

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Wednesday, September 21, 2022

हवाई अड्डे पर टिफिन एक्सप्रेस



दिल्ली एयरपोर्ट पर ऑटो और पब्लिक ट्रांसपोर्ट की अनुमति नहीं है। जहां तक ऑटो की अनुमति है वहां से एयरपोर्ट करीब 3 किलोमीटर है। हालांकि टैक्सी धड़ल्ले से जा सकती है। मतलब आम जनता की सवारी पर पाबंदी। भीड़ कम करने के लिए ऐसा किया गया होगा। यह भी मजेदार है कि हवाई जहाज के यात्री बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन आम आदमी की सवारी पर प्रतिबन्ध है।
बहरहाल, 2020 में ऑटो पर लगी पाबंदी की यह बात मुझे पता नहीं थी। पता होती तो ओला से ही आते। लेकिन फिर सोनू तिवारी से नहीं मिल पाते। इसके अलावा यह बात भी शायद पता नहीं चल पाती कि यहां ऑटो मना है।
सर्च करने पर पता चला कि ऑटो पर पाबंदी सभी एयरपोर्ट पर नहीं है। हैदराबाद एयरपोर्ट पर ऑटो आ सकते हैं लेकिन यह सलाह भी दी गयी है कि अगर सामान ज्यादा है तो ऑटो की सवारी से बचें।
जहां सोनू तिवारी ने मुझे छोड़ा वहां से एयरपोर्ट के लिए बस की सुविधा है। पता चला थोड़ी देर बाद बस आएगी। थोड़ी देर वहीं स्टॉप पर इंतजार किया। टीवी चल रहा था। लोग बेंचों पर बैठे इन्तजार कर रहे थे। कोई कोई अपने बच्चों को तैयार कर रहा था। कंघी-चुटिया, बिंदी-टिकुली सजावट भी होती दिखी।
कुछ देर में एयरपोर्ट की बस आई। बैठकर पहुंचे टर्मिनल। पैदल चलना पड़ता इतना तो बारह बज जाते। कई ग्राम पसीना निकल जाता।
टर्मिनल पर फोटो परिचयपत्र में फोटो थोड़ी धुंधली होने के कारण सुरक्षा जवान ने कई बार देखा। हालांकि हमारे पास साफ फोटो वाला आधार कार्ड भी था लेकिन दिखाया हमने ड्राइविंग लाइसेंस ही। जेब में पड़े-पड़े, हमारी गाड़ी की तरह, वह भी बुजुर्ग हो चुका है। साल में दस-बीस बार ही उसकी मुंह दिखाई होती है। इसलिये बेचारा निस्तेज होता जा रहा है।
बहरहाल, सुरक्षा जवान ने कई बार देखने के बाद हमको घुसने दिया एयरपोर्ट में। बोर्डिंग पास बनवाकर सिक्योरिटी जांच के लिये गए तो वहां छुटकी कैंची धरा ली गयी। कई बार ऐसा हो चुका है। कभी सिक्योरिटी वाले जाने देते हैं, कभी धरा लेते हैं। अलग-अलग एयरपोर्ट पर भी अलग-अलग मानक।
सिक्योरिटी से सकुशल निकल जाना मतलब इम्तहान पास करने जैसा लगता है। जो लोग रोज इम्तहान देते हैं उनकी बात अलग। हम तो छठे छमाहे हवाई यात्रा करने वाले ठहरे। पिछली हवाई यात्रा शायद दिसम्बर 2019 में की थी। उसके बाद पहली बार आना हुआ था जहाज सवारी के लिए।
सिक्योरिटी जांच के बाद अंदर घुसे तो पेट बोला -'हमारा भी इंतजाम किया जाए कुछ।' नाश्ते के लिए तमाम दुकानें थीं वहां। सामने दिख रहे 'टिफिन एक्सप्रेस' में जगह खाली दिखी तो वहीं कूपन लिया। इडली, उत्तपम और सूजी हलवा। 299 रुपये दाम।
हवाई अड्डे पर टिफिन एक्सप्रेस मतलब हवाई जहाज चलने की जगह पर खाने की रेल। जहां कोई वाहन चलने की अनुमति नहीं वहां एक्सप्रेस चल रही है। इंसान की प्रकृति वर्जनाएं तोड़ने की होती है। पहले अनुशासन बनाना फिर भंग करना। इसी आदत के चलते सांड, शेर, चीता जैसे जानवर जो अन्यथा हमारे जीवन से बेदखल हो गए हैं, वे हमारी बातचीत में शामिल रहते हैं। छिपकर रहने वाली पूंजी का व्यापार करने वाली जगह स्टॉक एक्सचेंज का प्रतीक सांड है। किसी डरपोक आदमी की शेर बताकर हल्ला किया जाता है। सब मामला उलट-पुलट। जो नहीं है वह बताया जा रहा है। जो है वह छिपाया जा रहा है। दुनिया सही में छलावा होती जा रही है।
299/- का नाश्ता करते हुए तमाम तुलनात्मक अध्ययन कर डाले। खाली बैठे आदमी तुलना करने लगता है। 299/- में नाश्ता करने वाला सोच रहा था कि तमाम लोगों की दिहाड़ी नहीं होती इतनी जितने का नाश्ता है। फिर याद आया कि कहीं तो एक चाय/काफी के दाम कम से कम 500/- हैं। किसी के पास बहुत पैसा , कोई कंगाल।
यह बात हम अक्सर सोचते हैं कि दुनिया में पांच-दस साल बाद सबकी आमदनी बराबर कर दी जाए। दुनिया के सबसे अमीर आदमी एलन मस्क की संपत्ति और सोनू तिवारी की संपत्ति बराबर कर दी जाए। दुनिया की सारी संपत्ति दुनिया के लोगों में बराबर बंट जाए। फिर से शुरू करो हिसाब-किताब। ये नहीं कि एक बार कमा लिया तो पूरी जिंदगी ऐश कर रहे। पैसे की चर्बी छंटती रहे पांच-दस साल में तो दुनिया चुस्त-दुरुस्त बनी रहेगी।
जैसे वाहनों में स्पीड गवर्नर लगा होता है वैसे दुनिया में 'संपत्ति गवर्नर' लग जाये। एक सीमा से ज्यादा किसी के पास पैसा नहीं होगा। पैसा नहीं होगा तो एक आदमी के पास दुनिया को जबरियन प्रभावित करने के अधिकार भी नहीं होंगें। ताक़त और संपत्ति के नशे में लोग न जाने कितना अहित करते हैं दुनिया का। यह सोचते हुए पुरानी पढ़ी बात याद आई - 'दुनिया में आधा नुकसान उन लोगों के द्वारा किया गया है जो अपने को खास समझते हैं।' Half of the harm to the world has been done by the people who think that they are important.
नाश्ता कर चुकने के बाद लगा कि कितनी फालतू बातें सोच डालीं। फिर लगा खाली समय और भरे पेट के चलते हुआ ऐसा।
टिफिन एक्सप्रेस से चलकर हम श्रीनगर के लिए जहाज के लिए अपने गेट पर आ गये। फ्लाइट समय पर थी। बैठ गए जहाज में। पहली कश्मीर यात्रा के लिए।

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Tuesday, September 20, 2022

हर प्रवासी की कहानी अपने आप में एक महाआख्यान है

 वाकया दो महीने हफ्ते भर पहले का है। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चाय पीने के बाद दिल्ली हवाई अड्डे के लिए सवारी का जुगाड़ के लिए विकल्प के तौर पर मेट्रो, ऑटो और टैक्सी थे। मेट्रो के लिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन जाना होता। उसमें भी फिर सवारी देखते। ओला के पैसे देखे। इसके बाद सामने आ खड़े हुए ऑटो वाले से पूछा -'हवाई अड्डे चलोगे?'

हामी भरने के बाद मोलभाव शुरू हुआ। ऑटो वाले भाई जी ने ओला से 100 रुपये ज्यादा बताये थे। आखिर में बात ओला के दाम पर ही तय हुई। हम चल दिये हवाई अड्डे की तरफ।
रास्ते में बतियाते हुए ऑटो वाले सोनू तिवारी से बात शुरू हुई। पता चला 2002 में आये थे बिहार से दिल्ली। गांव वाले पहले से ही यहां काम करते थे। उनके साथ आ गए।
शुरू में गांव वाले कोई काम नहीं करने देते थे। कहते थे तुमको काम की क्या जरूरत? आराम से खाओ-पियो। ख़र्च हम देंगे। कारण इसके पीछे यह था कि सोनू उनके लिए खाने बनाते थे। सब लोग काम पर चले जाते और सोनू तिवारी उनके लिए खाना बनाते। उनको लगता था कि अगर सोनू भी काम करने लगेंगे तो खाना कौन बनाएगा?
इस बात से फिर लगा कि दुनिया में मुफ्त में कुछ नहीं मिलता। हर मुफ्त की चीज के पीछे भी मंतव्य होता है।
फेसबुक भी हमको मुफ्त में लिखने की सुविधा देता है। हमारे लिए भले ही यह मुफ्त हो लेकिन मुफ्त के इस जमावड़े का उपयोग कमाई के लिए होता है। फेसबुक अपने यहां जो विज्ञापन देता है उसमें एक क्लिक के करीब एक डॉलर मतलब करीब 80 रुपये लेता है। आजकल फेसबुक में लिखाई-पढ़ाई वाली पोस्ट्स कम हो रही हैं। विज्ञापन बढ़ते जा रहे हैं। फेसबुक भी अखबार होता जा रहा है। पोस्ट्स की रीच कम हो गयी है। कुछ दिन बाद क्या पता यहां की पोस्ट पर भी पैसा लगने लगे। इश्तहार खर्चे की तरह पोस्ट खर्च। पढ़ने के अलग पैसे, लिखने के अलग रुपये।
कुछ इस तरह चलता रहा। इसके बाद एक किराने की दुकान पर काम करने लगे सोनू तिवारी। रहना- खाना दुकान पर। 300 रुपये तनख्वाह।
कई साल दुकान पर काम करते रहे सोनू। इसके बाद एक सिनेमा हाल में काम किया। सिनेमा हाल के मालिक उस दुकान से सौदा लेने आते थे। सोनू को सिनेमा हाल में ले गए। किराने की दुकान में रहने, खाने की सुविधा थी लेकिन पैसे कम थे। सिनेमा हाल में 1200 रुपये मिलने लगे।
कुछ साल सिनेमा हाल में काम किया। इसके बाद ऑटो पकड़ा। उसके बाद से यही रोजी-रोटी हो गयी। अब इसी के चलते दिल्ली में अपना रहने का आसरा हो गया है। घर साल में एकाध बार जाते रहते हैं। लेकिन रहने का हिसाब अब दिल्ली में ही है।
कोरोना काल में सरकार ने व्यवस्था कर दी कि घर के पते पर रजिस्टर्ड अनाज दिल्ली में ही मिल जाता है। इससे सुविधा हुई। आम आदमी के लिए अनाज मिल जाना बहुत बड़ा आराम है।
खुशी और रोहित दो बच्चे हैं सोनू तिवारी के। बिटिया 12 वीं में पढ़ती है। बेटा कक्षा 10 में हैं। दोनों पढ़ने में अच्छे हैं।
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से हवाई अड्डे तक की यात्रा के बीच तमाम सारी बाते हुईं सोनू तिवारी से। आखिर में उन्होंने हमको हवाई अड्डे में उस जगह छोड़ा जहां से टर्मिनल करीब 3 किलोमीटर दूर था। हवाई अड्डे पर भीड़ कम करने के लिहाज से यह व्यवस्था की गई थी।
रास्ते की बातचीत और जानपहचान का असर यह हुआ कि विदा होते हुए ओला के पैसे जो तय हुए थे उसकी जगह ऑटो के पैसे ही दिए। ओला और ऑटो के अंतर के पैसे खुशी और रोहित के लिए चॉकलेट के वास्ते थे।
हर प्रवासी की कहानी अपने आप में एक महाआख्यान है।

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Friday, September 09, 2022

हम सफाई से रहते हैं



कानपुर आये करीब डेढ़ महीना हो गया।इस बीच पंकज बाजपेई से मुलाकात नहीं हुई। Indra Awasthi ने हाल पूछे भी थे।
आज मिलना हुआ पंकज बाजपेई से। सुबह अर्मापुर की तरफ गए थे। जीटी रोड होते हुए गए। अनवरगंज के पास डिवाइडर पर देखा। दिखे नहीं पंकज। हमको लगा शायद अभी आये नहीं होंगे ठीहे से।
लेकिन थोड़ा आगे बढ़ने पर सड़क पर टहलते हुए दिख गए पंकज। हॉर्न बजाया तो देखकर मुस्कराये। गाड़ी रोक दी हमने। पंकज ने गाड़ी के पास आकर 45 डिग्री हाथ टेढ़ा करके 'दूर प्रणाम' किया और बोले -"बहुत दिन बाद आये। कहाँ चले गए थे?"
साथ मामू की चाय की दुकान पर आए। पंकज कई जेबों वाली पैंट की जगह तहमद नुमा कुछ लपेटे हुए थे। सीना सदाबहार खुला हुआ। चाय का ग्लास आगे करके चाय ली पंकज ने। वहीं खड़े होकर पीने लगे। साथ खड़े लोग मौज लेने लगे -"आज तो पंकज की चांदी है। पूरा का पूरा कड़ाही में हैं पंकज।"
पंकज चुपचाप डिवाइडर के पास जाकर चाय पीने चले गए। लोगों ने हमसे पूछा -"बहुत दिन बाद आये। कहाँ चले गए थे?"
एक आदमी के हाथ में चोट लगी थी। पैर भी चुटहिल। किसी ई रिक्शा चलाता है। पिछले दिन किसी से भिड़ गया गया रिक्शा। उसका वीरतापूर्ण विवरण कर रहा था। हर वाक्य के शुरुआत मां की गाली, खात्मा बहन की गाली से। ऐसे जैसे वाक्यों की शुरुआत में गालियों के ब्रैकेट लगा रहा हो।हर वाक्य मुंह से विदा करते हुए गालियों से स्टेपल कर रहा था। शायद संवाद प्रभावी बनाने का लालच रहा हो। बन भी रहे थे।
बता रहा था वह आदमी। हमसे भिड़ गया वो। ( ऐंठने लगा)। हमने कहा-(पुलिस में बन्द करा देंगे)। हम बोले-(पुलिस से डरे वो जिसका घर-बार हो)। (खटिया-बिस्तरा हो)। (हमारे पास तो कुछ है नहीं)। (फुटपाथ और डिवाइडर, रेलवे स्टेशन ,बस स्टेशन पर सोने वाले)। (हमको कौन पुलिस का डर?)। (पकड़ेगी तो झक मारकर खाना खिलाएगी)। (हमको अकेले थोड़ी पकड़ेगी)। (साथ में तुमको भी अंदर करेगी)। (हुलिया बिगड़ जाएगी एक ही दिन में)। (चुपचाप चला गया)।
ऊपर के पैरा में जहां ब्रैकेट लगे हैं वहां उस आदमी ने मां या बहन की या बहन या मां की गलियां देते हुए अपनी बात कही। हमने बीप-बीप वाले अंदाज में कही बात। आप अपने हिसाब से बांच लीजिएगा।
चाय पीकर पंकज के पास आये। हाल-चाल पूछे। कोहली, नोट, तालिबान और न जाने किन-किन बातों का जिक्र किया। वीडियो में सुनिए।
चलते समय बोले-"आज पांच सौ रुपये लेंगे। समोसा भी नहीं लाये।" हमने बताया-"समोसा अगली बार लाएंगे।"
बीस रुपये खर्चे के लिए दिए तो ठुनकते हुए बोले -"पांच सौ रुपये लेंगे। फिर सौ, पचास होते होते बीस पर ही मान गए।"
बातचीत में इस बार तालिबान का जिक्र भी किया। यह भी कहा -"हम सफाई से रहते हैं।"
अगली बार मिलने का वायदा करके हम वापस आ गए।

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Thursday, September 08, 2022

घनघोर अंधेरे में दीपक की रोशनी जैसे प्रयास



इतवार को घर लौटते हुए पुल से गंगा तट की ओर देखा। जय हो फ्रेंड्स ग्रुप की बच्चों की कक्षाएं चल रहीं थीं। वापस लौटकर गए पढ़ते हुए बच्चों को देखने और पढ़ाने वालों को पढ़ाते देखने।
करीब पचास बच्चे अलग-अलग समूहों में बैठे पढ़ रहे थे। उम्र , क्लास के हिसाब से अलग-अलग पढ़ाई हो रही थी। ग्रुप के संस्थापक जयसिंह खड़े हुए मौका मुआयना जैसा करते हुए व्यवस्था देख रहे थे। बच्चे आते जा रहे थे। करीब 150 बच्चे जुड़े हैं यहां पढ़ने के लिए।
पढ़ाने वाले अध्यापक कुछ पहले वाले थे, कुछ बदल गए थे। जुडो-कराटे सिखाने वाले कहीं गुरु जी कहीं और चले गए थे अतः उसकी क्लास बन्द।
समाज सेवा में यही समस्या होती है। कुछेक लोगों को छोड़कर यह जुनून उतार-चढ़ाव लिए होता है। मजबूरियां भी होती हैं। इसके चलते अक्सर निरन्तरता नहीं रह पाती। मैंने खुद बच्चों के बीच उपस्थित होने पर सोचा कि मैं भी पढ़ाने आऊंगा लेकिन इरादों पर अमल नहीं हो पाता।
समाज सेवकों की पता चलने पर तारीफ , वाह-वाही हम भले कर लें लेकिन सक्रिय सहयोग अक्सर नहीं कर पाते। यह गुण समाज का होता है। अकेले प्रयास हो सकते हैं, छुटपुट सफलता मिल सकती है लेकिन बड़े बदलाव बिना सबको जोड़े होना सम्भव नहीं होता। केरल में सम्पूर्ण साक्षरता के पीछे वहां के पूरे समाज, सरकार और तमाम लोगों की भागीदारी रही।
'जय हो फ्रेंड्स ग्रुप' का एनजीओ के रुप में रजिस्ट्रेशन हो गया है लेकिन अनुदान मिलना शुरू नहीं हुआ। बताया कि अनुदान के लिए तीन वर्ष तक हर साल छह लाख का खर्च किया जाना जरूरी होता है। जयसिंह से आर्थिक सहयोग की बाबत पूछने पर उन्होंने बताया -"आर्थिक सहयोग बहुत कम , न के बराबर ही मिलता है। अपने समाज में लोग भंडारे पर लाखों खर्च कर देते हैं लेकिन बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना नहीं चाहते।"
हमने जयसिंह से जयहोफ्रेंड्स ग्रुप के खाते का विवरण लिया। तय किया कि कुछ सहयोग नियमित या एकमुश्त अवश्य करेंगे। आपको भी उचित लगे तो आप भी सहयोग करें। अच्छा लगेगा।' विद्या धन सर्व धन प्रधानम'।
बड़े क्लासों के बच्चे भी थे जो 11-12 में पढ़ने वाले हैं। उनको गुरु जी अलग पढ़ा रहे थे। इसके अलावा नौकरियों के लिए इम्तहान के लिए भी कोचिंग देते हैं -निशुल्क।
बच्चों को पढ़ते देखना अच्छा लगा। साथ ही यह भी कि ये बच्चे स्कूलों में भी पढ़ते हैं। फिर इनको अलग से पढ़ने की जरूरत क्यों होती है। हमारा समाज क्यों शिक्षा के क्षेत्र में सफल नहीं हो पाया। तमाम प्रयासों के बावजूद बड़ी आबादी शिक्षा से वंचित क्यों रह जाती है। हमारी शिक्षा नीति इतनी कम प्रभावी क्यों है।
शिक्षा नीति से याद आया श्रीलाल शुक्ल जी का प्रसिद्ध वाक्य-"हमारी शिक्षा नीति रास्ते में पड़ी कुतिया है, जिसे जो मन आता है दो लात लगा देता है।"
यह जुमला सुनने में कितना चुटीला लगता है। लेकिन सोचिए कि कितनी बड़ी विडंबना है कि सन 1965 में मतलब आज से 57 साल पहले लिखी बात आज भी उतनी ही सही है।
इन सबके बीच जय हो फ्रेंड्स ग्रुप, सम्मान फाउंडेशन, राही ग्रुप जैसे लोगों के प्रयास जारी हैं यह अपने आप में सुकून की बात है। घनघोर अँधेरे में दीपक की रोशनी जैसे प्रयास ।हम इनके प्रयास में कितना सहयोग कर सकते हैं यह हमको देखना है।

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Wednesday, September 07, 2022

सबहिं नचावत राम गोसाईं



सूरज भाई की खूबसूरती चरम पर तब होती है जब वे ड्यूटी ज्वाइन कर रहे होते हैं। हल्की सी लालिमा से शुरू करके दिशाएं लाल हो जाती हैं। सूरज भाई आसमान की दीवार पर से मुंडी ऊपर उठाते हैं। इसके बाद धीरे से पूरे उग आते हैं। उस समय के सूरज भाई मोहल्ले के सबसे काबिल इंसान की तरह होते हैं जिसकी सब बलैयां लेते हैं।
इसके बाद जब सूरज भाई नदी में नहाते हैं तो खूबसूरती का नजारा ही अलग होगा है। जो रोशनी आसमान में रहती है वही पानी में उतार देते हैं। पानी उनकी उपस्थिति से लहालोट होते हुए जगर-मगर करता रहता है। पानी की हर लहर अपनी खूबसूरती पर लट्टू होते हुए इठलाती हुई बहती है।
इसके बाद फाइनल ख़ूबसूरती सूरज भाई की विदा होते हुए दिखती है। दिन भर की कमाई सारी दिशाओं को बांट देते हैं। हर दिशा को अलग रंग, अलग अंदाज में सजाते हुए विदा होते हैं।
इतवार की सुबह जब टहलने निकले तो सूरज भाई नदी नहान वाले मोड में दिखे। शानदार। जबरदस्त। जिंदाबाद। नदी का पानी सूरज भाई के चारो तरफ 'जल मालिश' यानी 'पानी चम्पी' कर रहा था। सूरज भाई मजे में पानी में लम्बलेट हुए नदी की जल सेवा का आनन्द ले रहे थे।
नदी किनारे तमाम लोग अपना कांटा नदी में डालकर मछली पकड़ने का जुगाड़ कर रहे थे। ऊपर कुछ लोग मछली के लिए आटे की गोलियां डाल रहे थे। मतलब आदमी एक तरफ आटा खिलाकर मछलियों को बड़ा करेंगे वहीं दूसरी तरफ जाल डालकर पकड़कर मारेगा। आदमी की हरकत विकसित देशों सरीखी है जो एक तरफ दुनिया को लड़ाने के लिए हथियार देते हैं, दूसरी तरफ लड़कर बर्बाद हुए देशों की इमारतों की मरम्मत का इंतजाम करते हैं। बकौल मेराज फैजाबादी:
पहले पागल भीड़ में शोला बयानी बेंचना,
फिर जलते हुए शहर में पानी बेंचना।
चलते हुए पुल पार कर गए। पुल पार मतलब जिला पार। शुक्लागंज पहुँचगये। उन्नाव ज़िला में सूरज भाई एकदम तमतमाये हुए थे। उनके मिजाज किसी किसी सूबे का चार्ज लिए हुए हाकिम की तरह थे जो किसी दुर्घटना पर बयान जारी करते हुए कहता है-"अपराधियों को किसी कीमत पर बक्शा नहीं जाएगा।"
हो सकता है हाकिम के तेवर देखकर कोई उनसे कहता हो -"भाई साहब आपके तेवर देखकर तो हमको भी डर लग गया।" इस बार हाकिम उसको स्निग्ध निगाहों से निहारते हुए कहता होगा -"अरे नही भाई, तुम तो अपने घर के हो। हमारी ताकत हो। तुमको क्या डर?"
दुर्गा मंदिर के सामने फूलवालों की कतारें लगी थीं। पूजा करने वाले आपस में बतियाते-चुहल करते हुए मंदिर में जाते जा रहे थे। मंदिर के आसपास चहल-पहल बढ़ती जा रही थी।
कुछ देर सड़क पर टहलते हुए वापस लौट लिए। कुछ जगह चाय की दुकान दिखी लेकिन रुके नहीं। लौटते में सब्जी की दुकानें दिखीं। मन किया सब्जी ले लें। लेकिन फिर याद आया अभी तो गेस्ट हाउस में हैं।
एक जगह अखबार बिछे दिखे चारपाई पर। अखबार बेंचने वाले बुजुर्ग शहंशाही अंदाज में बैठे थे। एक अखबार लिया। उनसे पूछा कितने अखबार बिक जाते हैं रोज? वो बोले -'पचास साठ।'
आगे एक जगह सड़क किनारे मट्ठा बिकता दिखा। राठौर जी अमृत मट्ठा बेंचते दिखे। दस रुपये ग्लास। हमने कहा -सस्ता है। बोले -'यहां सब सामान सस्ता मिलता है। बगल में दो भटूरे 25 रुपये के। पूरा समझो।'
मट्ठे की तारीफ की तो बोले-'घर में बनाते हैं। सबसे पुरानी दुकान है। चालीस साल हो गए यहाँ। पहले अकेले बेचते थे। अब कई हो गए। ज्यादातर रेडीमेड बेंचते हैं। हम घर का बना। '
तीन बेटियों के पिता राठौर जी की दो बेटियों की शादी हो चुकी है। तीसरी आई पी एस की तैयारी कर रही है।
मूलतः सफीपुर उन्नाव के रहने वाले हैं राठौर जी। चालीस साल से शुक्लागंज में बसे हैं। 'चित्रलेखा' उपन्यास के लेखक भगवतीचरण वर्मा जी भी सफीपुर के थे। उनके उपन्यास 'सामर्थ्य और सीमा' का शीर्षक मुझे हमेशा इस बात की याद दिलाता है कि किसी इंसान की जो सामर्थ्य होती है वही उसकी सीमा हो जाती है।
भगवती बाबू का एक और उपन्यास है -'सबहिं नचावत राम गोसाईं।' इसको याद करके लगता है कोई सर्व शक्तिमान सत्ता हम सबको नचाती रहती है। हम उसके इशारे पर नाचते रहते हैं। क्या पता वह भी किसी के इशारे पर नाचती हो। क्या पता सर्वशक्तिमान के इलाके में भी मल्टीनेशनकल कारपोरेट का कब्जा हो जिसके इशारे पर वह दुनिया को नचाता हो।
यही सब सोचते हुए हम आखिर घर लौट आये। सहज भी है। घर से बाहर जाता आदमी घर वापस लौटने के बारे में सोचता है।

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Sunday, September 04, 2022

सम्मान फाउंडेशन -समाज की बेहतरी का प्रयास



पांच दिन पहले रेलवे लाइन के किनारे स्कूल जाने को तैयार बच्चों ने बताया था कि शाम को उनको पढ़ाने एक सर आते हैं। अपन ने सोचा था कि शनिवार को बच्चों को पढ़ते देखेंगे और उनके सर जी से भी मिलेंगे।
पोस्ट पढ़कर और फोटो देखकर बच्चों के सर जी का फोन आया। ओपीएफ़ के Deepak Yadav बच्चों को रोज शाम को पढ़ाते हैं। ओपीएफ़ में रहने के दौरान हमारी मुलाकात रही होगी लेकिन दीपक के इस समाज सेवा वाले पहलू का पता नहीं था हमको।
दीपक से बातचीत के बात फिर तय हुआ कि शनिवार को उनका शाम का स्कूल देखने जाएंगे।
बातचीत के अनुसार कल शनिवार को रेलवे लाइन के किनारे बनी बस्ती में बच्चों का स्कूल देखने गए। दो झोपड़ियों के बीच की जगह की सीमेंटेड फुटपाथ पर शाम का स्कूल लगा हुआ था। छोटे-बड़े करीब बीस-पचीस बच्चे पढ़ रहे थे। छोटे बच्चे जमीन पर बिछी दरी पर बैठे साधारण इमला लिखने का अभ्यास कर रहे थे। उन बच्चों को वहीं की एक बच्ची अभ्यास करा रही थी। बच्ची मुस्कान खुद कक्षा छह में पढ़ती है। उसको दीपक पढ़ाते हैं। छोटे बच्चों को , नियमित टीचर्स न आने की स्थिति में, मुस्कान बच्चों को सिखाती है।
दीपक बड़े बच्चों को पढ़ाते हैं। कक्षा चार में पढ़ने वाले अरविंद गिनती लिखने में गलती कर रहे थे। उनको गलती बताकर दुबारा लिखवाना। सही करवाना। कविता सुनना और मुझसे बातचीत सब साथ-साथ चल रहे थे।
बीच-बीच में बच्चे बाहर जाने की अनुमति मांगकर जा रहे थे। कहते हुए -'सर, मे आई गो तो वाशरूम?' वापस आने पर टट्टर के गेट के उस पार खड़े होकर पूछ रहे थे-'मे आई कम इन सर।'
अनुमति मिलने पर बच्चे बाहर जा रहे थे। बाहर से अन्दर आ रहे थे।
दीपक ने बताया कि बच्चों को पूछकर आने जाने की आदत इस लिहाज से डाली गई है ताकि स्कूल में इनको परेशान न होना पड़े।
वाशरूम का मतलब सड़क किनारे बनी नाली, आड़ या ऐसा ही कुछ जहां जाकर बच्चे हल्के होकर वापस आ रहे थे। वॉशरूम से याद आया कि आते समय सड़क किनारे आड़ में एक कपड़े का पर्दा पड़ा था जिसके ऊपर 'शौचालय' लिखा था। यह देखकर मुझे अनायास यशपाल की कहानी 'परदा' याद आ गयी।
बच्चों से बातचीत करते हुए कक्षा 4 में पढ़ने वाली बच्ची रोशनी से कविता सुनाने को कहा। उसने कविता सुनाई:
मैं छोटा सा पथिक
पथ पर चलना सीख रहा हूँ
मैं छोटा सा पक्षी
नभ में चलना सीख रहा हूँ।
कविता सुनाते हुए अटक गई रोशनी। उससे किताब मंगवाई गयी। भागकर बगल के घर से किताब ले आई। फिर पूरी कविता सुनाई। विस्तार से कविता का अर्थ बताया गया।
इस बीच बगल की रेल की पटरी से रेलगाड़ियां, इंजन गुजरते रहे।
दीपक ने बताया कि पिछले करीब चार साल से वो यहां बच्चों को निःशुल्क पढा रहे हैं। 'सम्मान फाउंडेशन' उनके प्रयास का नाम है जिसको उन्होंने एन जी ओ के रूप में रजिस्टर भी कराया है। खुद के पैसे भी ख़र्च कर चुके हैं। छोटे बच्चों को पढ़ाने ने सहयोग के लिए दो अध्यापिकाओं को भी रखा है। उनको मानदेय भी दीपक अपने पास से देते हैं।
बच्चों की शिक्षा, खेलकूद और अच्छा नागरिक बनाने का प्रयास 'सम्मान फाउंडेशन' का उद्देश्य है।
'यह काम करने के बारे में कैसे सोचा?' यह पूछने पर दीपक ने बताया कि उनके मन में समाज सेवा की भावना बचपन से थी। माताजी अस्पताल में थी। उनके सहयोग से फर्स्ट एड का सामान बस्ते में लेकर चलते थे ताकि किसी को चोट लगे तो प्राथमिक चिकित्सा कर सकें।
समाज सेवा की भावना के पीछे मूल भाव यह भावना थी कि समाज ने मुझे जो दिया है कम से कम उतना हम उसको वापस कर सकें।
स्कूल का सामान, कुर्सियां, बच्चों को बैग , बोर्ड और अन्य तमाम चीजें दीपक अपने पास से खर्च करके लाये हैं। बिजली का स्थाई कनेक्शन लेने के लिए केसा से बात चल रही है। वे लोग भी यहां स्कूल देखकर सहयोगी मुद्रा में हैं। जयपुरिया स्कूल की ओर से भी सहयोग का आश्वासन है। अगले सत्र में कुछ बच्चों के एडमिशन भी लेने को कहा है।
यहां पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे आसपास के घरों में रहते हैं।बच्चों के मातापिता मेहनत-मजदूरी करते हैं। कोई रिक्शा चलाता है, कोई ऑटो, कोई कुछ और काम करता है। महिलाएं भी काम करती हैं। कोई स्कूल में, कोई ईंट भट्टे पर। एक बच्चे के पिता नहीं रहे तो उसकी मां मजदूरी करके बच्चों को पालती पढ़ाती है। जिंदगी के संघर्ष विकट हैं।
छोटे बच्चों से बात करते हुए सबसे बोर्ड पर नाम लिखवाए। बच्चों ने नाम लिखे।
बच्चों से बात करते हुए लगा कि कुछ बच्चे पढ़ने में अच्छे हैं। उनको लगातार प्रोत्साहन और सहयोग मिले तो आगे चलकर उनकी जिंदगी बेहतर हो सकती है। बच्चों को पढ़ने में मजा भी आता है। जाने की अनुमति लेते समय पूछ भी रहे थे -"कल पढ़ाने आएंगे सर जी?"
चलते समय बच्चों से बात हुई। मुस्कान से उसकी हावी पूछने पर उसने बताया -'गाना गाना।' इसके बाद उसने एक के बाद एक करके तीन गाने भी सुनाए, वहीं खड़े-खड़े। क्लास सात बजे तक चलती है। इसके बाद वह पास में उर्दू भी सीखने जाती है। उसका दोनों बहने और भाई भी पढ़ता है। भाई बोल नहीं पाता है। लेकिन सबको भरोसा है कि उसके पापा की तरह वह भी देर से ही सही, बोलना सीख जाएगा।
दीपक ने बताया कि क्लास खत्म करने से पहले राष्ट्रगान होता है। बच्चे जय हिंद करके अभिवादन करते हैं।
बच्चे जब जयहिंद करके चले गए तो मुस्कान और दूसरे बड़े बच्चों ने ब्लैक बोर्ड और कुर्सी आदि समेटी और घर ले गए। हम भी दीपक से विदा लेकर चले आये, इस वायदे के साथ कि समय-समय पर आते रहेंगे। यथासम्भव सहयोग भी करने का विचार मन ने है।
दीपक का गरीब बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास देखकर बहुत अच्छा लगा। दीपक जैसे तमाम लोग अपने आसपास समाज की बेहतरी के लिए अपने स्तर पर निस्वार्थ भाव से प्रयास कर रहे हैं। हमको उनके प्रयास में सहयोग करना चाहिए।
दीपक का मोबाइल नम्बर जो सम्मान फाऊंडेशन के बैनर में लिखा है- 7905048513

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Friday, September 02, 2022

तारीफ सुनने के लिए सम्पर्क करें



कल एक मित्र से बात हुई। करीब घण्टे भर। नेटवर्क गड़बड़ होने के कारण जब बात खत्म हुई तो हमने बातचीत के बारे में दुबारा सोचा। मुझे याद आया कि पूरी बातचीत के दौरान हम लोगों ने किसी न किसी या तो बुराई की या आपस में खुद की तारीफ। मतलब कुल मिलाकर नकारात्मक बातचीत। मजा तो आया बातचीत में लेकिन लगा कि समय बर्बाद हुआ।
हमने यह भी पाया कि ऐसा हम लोग अक्सर करते हैं। अपने आसपास के जुड़े लोगों को भी देखते हैं तो यही ट्रेंड देखते हैं। मौका मिलते ही मुंह में मुंह जोड़कर बुराई शुरू कर देते हैं।
इसका इलाज तो पता नहीं क्या है। लेकिन तय किया कि कम से कम आज किसी की बुराई नहीं करेंगे। सिर्फ और सिर्फ तारीफ। तारीफ भी झूठमूठ वाली नहीं करेंगे। सच्चे मन से करेंगे तारीफ ताकि अगले को लगे कि यह उच्च स्तर की तारीफ है। मनमुदित रखना है तो नकारात्मक बातचीत से दूर रहना चाहिए। आपको अपनी तारीफ सुननी हो तो सम्पर्क करें।
दुनिया इतनी खूबसूरत और प्यारी है। इस ख़ूबसूरती का जायजा लेना है आज। जो मिलेगा उसकी तारीफ करेंगे आज। झूठी नहीं सच्ची वाली तारीफ करेंगे। हर इंसान में कुछ न कुछ तो अच्छा होता ही है। वही देखेंगे।
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