Thursday, October 13, 2022

धर्मकर्म सब खत्म हो गया



कल सुबह टहलने निकले तो दाएं-बाएं जाने की बजाय सीधे चलते चले गए। सड़क खत्म हुई एक दीवार पर। बगल की दीवार एक सिरे पर टूटी थी। उस हिस्से को पार किया तो रेलवे लाइन दिखी। हम पटरी के किनारे-किनारे चल दिये।
पटरी पर चलते हुए मुड़-मुड़ कर पीछे देखते रहे कि कहीं कोई ट्रेन न आ रही हो। इस भी एक फोन भी आ गया। बात करते हुए सोचते रहे कि कहीं ट्रेन न आ जाए। पीछे से धकिया दे। मारे डर के बात अधबीच में छूट गई।
आगे मरी कंपनी के पुल के नीचे से निकलकर सड़क पर आ गए। सड़क नींद में ऊँघती जाग रही थी। लोग सड़क किनारे चारपाइयाँ डाले बैठे थे। पुराने जमाने के नवाबों सरीखे। एक आदमी तख्त पर अधलेटा बैठा सड़क पर गुजरते आदमी से कह रहा था -"आओ बैठ लेओ तनक देर। आदमी ने उसके निमंत्रण को बिना कुछ कहे ठुकरा दिया। किसी ने किसी की बात का बुरा नहीं माना।
सड़क किनारे एक इंसान कबाड़ के बैग को सिरहाने रखे, नटुल्ली सी चद्दर ओढ़े सो रहा था। कबाड़ के बैग पेड़ के जंगले के सहारे टिका था। उसके मुड़े हुए पैर देखकर हमको दुष्यंत कुमार जी का शेर याद आ गया:
न हो कमीज तो पावों से पेट ढँक लेंगे,
बहुत मुनासिब हैं ये लोग इस सफर के लिए।
आगे एक इ-रिक्शा की ड्राइविंग सीट पर दो कुत्ते ऊँघते हुए दिखे। देखकर लगा मानो सवारी का इंतजार कर रहे हैं। हमने उनका फ़ोटो खींचना चाहा तो एक कुत्ता चुपचाप उठाकर नीचे उतर गया। शायद उसको फ़ोटो खिचवाना पसंद ना हो। दूसरे ने कोई एतराज नहीं किया। चुपचाप आंखे बंद करके ऊँघता रहा।
स्टेशन के पीछे के इलाका छोटे-बड़े, अच्छे-सामान्य होटलों से घिरा था। सड़क किनारे दोनों तरफ होटल ही होटल -ठहर तो लें। एक होटल C.K.Palace में एयरकूल कमरा 200 रुपए प्रतिदिन पर मिल रहा था। मतलब 6000 रुपया महीना। यहीं बड़े होटलों में कमरे सात से दस हजार रुपए प्रतिदिन में भी मिलते हैं। हर देश , शहर में ऐसे सस्ते -मंहगे होटल मिलते हैं। तय किया जब कभी दुनिया घूमने निकलेंगे तो स्टेशन के आस-पास ही खोजेंगे होटल। लेकिन कब निकलनेगे यह तय नहीं।
आगे एक धर्मशाला दिखी। श्री केतकी देवी धर्मशाला। हर मंजिल पर घास उगी हुई थी। फ़ोटो खींचने लगे तो वहाँ मौजूद एक आदमी ने टोंका -"आप बिना पूछे फ़ोटो कैसे खींच रहे हैं?"
हमने कहा -"किसके पूंछें? इमारत के तो जबान तो होती नहीं। आप इसके मालिक हैं ?"
बोला -"हां। ये मकान हमारा ही है ?"
इसके बाद तो बटकही की लटाई खुल गई और बातों के पेंच लड़ने लगे। उन्होंने बताया :
“हम लोग आगरा के रहने वाले हैं। हमारे परदादा 125 साल पहले यहाँ आए थे। माथुर लोग हैं हम। इसीलिए यह मोहल्ला मथुरी मोहाल कहलाता है। हमारा परदादा शहर के बहुत बड़े हाकिम थे। उन्होंने अपनी दिवंगत पत्नी के नाम पर यह धर्मशाला बनवाया था। पहले लोग धर्मकर्म करते थे। स्कूल बनवाते थे। धर्मशाला बनवाते थे। अब कौन करता है यह सब? धर्मकर्म सब खत्म हो गया। “
हमने कहा –“अरे, धर्म अभी कहाँ खत्म हुआ। धर्म के नाम पर तो देश दुनिया में न जाने क्या-क्या हो रहा है?”
वो बोले-“ अरे कुछ नहीं। सब खतम हो गया। बहुत बचा होगा तो 10 परसेंट बचा होगा।“
धर्म से उनका मतलब परोपकार वाले भाव से होगा। हमने उनकी बात मान ली क्योंकि धर्म और परोपकार का कोई डाटा हमारे पास नहीं था।
सामने की पट्टी पर मोहल्ले के नाम सुतरखाना लिखा। आगे कोई और मोहल्ला शुरू हो गया था। मोहल्ले भी सेवइयों की तरफ उलझे से दिखे।
घंटाघर के पास चाय-नाश्ते की दुकानें थीं। हर दुकानदार सड़क से गुजरते आदमी को अपने कब्जे में लेने की कोशिश में दिखी। हमने एक दुकान वाले से पूछा –“यहाँ कोई पुस्तक मेला लगा है?”
उसने जबाब देने में देर लगाई। बगल के दुकान वाले ने हाथ के इशारे से हमको अपने कब्जे में लेते हुए कहा –“आओ हम बताते हैं।“
हम सड़क पर खड़े-खड़े ही उसके पास पास चले गए। मुंह उसकी तरफ कर लिया। उसने इशारे से बताया –“सीधे चले जाओ आगे लगा है पुस्तक मेला।“
सीधे जाने पर किताब की दुकान दिखी। फुटपाथ पर लगी एक दुकान पर पुस्तक मेला का बैनर लगा था। दुकानदार बनारस का है। यहाँ स्टेशन पर आकर दुकान लगाई। किताबों पर पिछले दिनों हुई बरसात के चाबुक के निशान थे। कुछ अभी भी गीली –सीलीं थी। अधिकतर किताबें हमारी जानी-पहचानी थीं। फिर भी कुछ देर में कुछ किताबें ले ही लीं। उनमे एक दीवान-ए-मीर भी थी। प्रेम जनमेजय जी प्रेम जनमेजय की लिखी किताब ‘मेरे हिस्से के नरेंद्र कोहली’ भी थी। मीर की पिछले दिनों बहुत तारीफ फिर से सुनी और इतवार को उन पर एक बातचीत भी सुनी थी। बाद में घर आकर देखा तो ‘नामवर सिंह की डायरी’ जो मैंने चुनी थी लेने के लिए वह थी ही नहीं किताबों में। हालांकि उसके पैसे भी नहीं दिए थे मैंने। अब फिर एक चक्कर लगाया जाएगा।
वहीं दुकान के पास दो लड़के फुटपाथ पर चादर बिछाए आराम से बैठे थे। चाय पीते हुए बतिया रहे थे। सोनभद्र से आए थे। किसी संस्थान में एडमिशन के के लिए प्रमाणपत्र दिखाने आए थे। साढ़े दस बजे जाना था तब तक यहीं आरामफर्मा थे।
लौटते समय एक रिक्शावाला तेज चाल से आती महिला के सामने आ गया। टक्कर होते बची। महिला ने आगे निकलते हुए हड़काया- “देखकर नहीं चलते। घुसे चले आ रहे हो।“
रिक्शेवाले ने भी आगे निकलते हुए कहा –“तुमको दिखाई नहीं देता सामने से रिक्शा आ रहा है?”
दोनों जल्दी में थे इसलिए आगे वार्ता स्थगित हो गई।
आगे डीलक्स शौचालय के बाहर निपटने वालों की भीड़ थे। लोग अपनी बारी के इंतजार में थे।
हमने एक बेंच पर बैठकर चाय पी। इसके बाद एक ई-रिक्शा में ड्राइवर के बगल में बैठकर वापस हो लिए। रिक्शा वाला रिक्शे में सब्जी लादे चला जा रहा था। एक सवारी भर की जगह बची थी तो हमको लाद लिया। रेलवे क्रासिंग के पास उतार दिया। दस रुपए में।
क्रासिंग से मालगाड़ी गुजर रही थी। मालगाड़ी गुजरने के बाद हम निकले। निकलकर टहलते हुए घर आ गए।
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