बिस्तर पर रात भर के बदन तोड़ो अभियान के बाद सुबह हर अंग दूसरे से मुंह बिचकाये हुए था । किसी में कोई सहयोग नहीं। बातचीत नहीं। नतीजतन बदन बिस्तर पर पड़ा रहा।
फिर अचानक उठ खड़े हुए और टहलने निकल लिए। सारे अंग एक साथ मिल गए। बदन जोड़ो अभियान शुरू हो गया।
टहलने निकलने में बड़ी समस्या यह तय करने में होती है कि जूते पहने कि ‘पच्चल’। अक्सर इसी समस्या में उलझकर टहलना स्थगित हो जाता है। लेकिन इसका दोष हम किसी और को तो दे नहीं सकते। हम कोई वाजिद अली शाह तो हैं नहीं जो जूते पहनने के लिए किसी पर निर्भर हों। सुनते हैं कि नवाब साहब इसी लिए भाग नहीं पाए थे कि उनको जूते पहनाने वाला कोई नहीं था। पता नहीं यह सच है कि गड़बड़ किये गए इतिहास का कारनामा , लेकिन सुना यही है।
सुनी बात पर भरोसा सच से ज्यादा होता है, करना पड़ता है। न करें तो जान की आफत।
बहरहाल हम ‘पच्चल’ माने कि चप्पल में ही टहलने निकल लिए। जूते पहनने में आलस भी आड़े आ रहा था। फिर यह भी लगा कि रास्ते में फीता खुल गया तो बांधेगा कौन। खुद ही बांधे तो क्या फायदा? हमारे साथ कोई काफिला तो चल नहीं रहा कि जूते के फीते बांधते हुए फ़ोटो वायरल हो।
बहरहाल निकल लिए। सड़क पर एक लड़का भागने का अभ्यास कर रहा था। दूसरा साइकिल से उसके बगल में उत्साह बढ़ा रहा था। आगे फुटपाथ पर एक आदमी मुंडी जमीन की तरफ किए बैठा था। ऐसा लग रहा था कि समाज की हालत पर शर्मिंदा सा हो रहा हो। बगल में दो बोरों में कूड़ा रखे हुए था। हमने बातचीत की कोशिश की तो सर उठाकर फिर झुका लिया। शायद सोने के मन हो उसका।
बाद में हमको उसको डिस्टर्ब करने का अफसोस सा हुआ लेकिन हमने किसी से कहा नहीं। कौन हम अपने ‘सत्य के प्रयोग’ लिख रहें थे जो अपनी कमियाँ बताएं। कमियाँ बताकर कौन हीरो बन जाएंगे?
आगे एक आदमी सड़क किनारे लगे पेड़ों से फूल तोड़कर इकट्ठा कर रहा था। प्राइवेट स्कूल में अध्यापक हैं।इंटर- हाईस्कूल के बच्चों को हिन्दी पढ़ाते हैं। छोटे बच्चों को गणित और अंग्रेजी। मतलब आलराउंडर। हमने पूछा- ‘फूल क्या करोगे?’
बोले –‘पूजा करेंगे।‘
हमने कहा-‘क्या फायदा ऐसी पूजा का जो कष्ट दूर नहीं हो रहे?’
वो बोले-‘ अब हम पूजा कर रहे हैं। फल देना उनके ऊपर। न जाने क्या सोचा हो ऊपर वाले ने हमारे लिए।‘
यह आस्था है। हमको तो नंदन जी का शिकायती शेर याद आया:
“सब पी गए, पूजा, नमाज, बोल प्यार के,
नखरे तो जरा देखिए परवरदिगार के।“ -- (लिंक कमेन्ट में )
तिराहे पर फुटपाथ पर बने मंदिर के सामने खड़े कुछ लोग बतिया रहे थे। कुछ लोग दूर से प्रणाम करके आगे बढ़ते जा रहे थे।
आगे एक एटीएम पर दो कुत्ते आराम कर रहे थे। हमको देखकर एक खड़ा हो गया। दूसरा ऊँघता रहा। अंदर घुसते तो शायद भूँकता भी। लेकिन हम बाहर ही खड़े रहे तो कुछ बोला नहीं। छोड़ दिया हमको।
सड़क पर जाते लोग बतियाते जा रहे थे। एक ने कहा-‘बहुत दिन बाद दिखे।‘
दूसरा बोल-“हाँ, कुछ दिन उधर जाजमऊ की तरफ निकल गए थे। तीन बार मरते हुए बचे हाइवे पर ।अब इधर ही आया करेंगे टहलने।“
इस बीच एक आदमी बगल के बंगले से निकला और फूल तोड़कर अंदर घुस गया।
पुल के पास एक लड़का मोबाइल ऊपर हाथ में उठाए भागते आता दिखा। एकदम पानसिंह तोमर की तरह। लगा किसी मोबाइल फेंक प्रतियोगिता में भाग लेने जा रहा है। मोबाइल बस फेंकने ही वाला है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बालक मोबाइल सहित भागता हुआ हमारे आगे से निकल गया।
सामने की पट्टी पर एक आदमी साईकिल पर सब्जी लादे जा रहा था। पूछा तो बताया -"नयागंज सब्जी मंडी जा रहे हैं। वहीं दुकान लगाऐंगे।"
गंगापुल पर मजेदार हवा बह रही थी। मन किया दो-चार बोर हवा भरकर घर ले आते। लेकिन बोरे साथ ले नहीं गए थे। फेफड़ों में ही जितनी भर सकते थे भर ली।
रेलिंग के सहारे खड़े हुए दो बच्चे बतिया रहे थे। इस बात पर कयास लग रहा था कि अगर नदी में तैरें तो क्या पार कर पाएंगे। तय हुआ कि मुश्किल है नदी पार करना। यह भी बात हुई की धारा के साथ दूर तक और देर तक तैरा जा सकता है। हमको शिवओम अम्बर जी की कविता की पंक्ति याद आ गई:
“अपनी तो उल्टी तैराकी है
धारा में मुर्दे बहते हैं।“
एक लड़का साइकिल को तिरछा किए पहिये और रिम को ठोंक रहा था। पूछने पर बताया-“टायर रिम में फंसता है।“
रिम और टायर पास-पास रहेंगे तो लगाव तो बढ़ेगा ही। बालक को रिम और टायर की नजदीकी पसंद नहीं आ रही थी। वह दोनों को गुस्सैल बाप की तरह टायर और रिम को ठोंकते-जुतियाते हुए उनके बीच की दूरी कम कर रहा था। कुछ देर बाद वह साइकिल पर सवार होकर चल दिया।
पुल पर कसरत करते, पूजा करते लोग दिखे। एक महिला मथानी चलाने वाले अंदाज में कसरत करती दिखी। कोहरा नदी के ऊपर चादर की तरह ताना हुआ था।
लौटते में एक पानी की टंकी से पानी बहता दिखा। बंदर उसका फ्लोट वाल्व तोड़ गए होंगे।
नदी के घाट पर लोग बतियाते, गपियाते, चुहलबाजी करते, एक-दूसरे को गरियाते हुए दिखे। ये अभी स्मार्टफोन के शिकार नहीं हुए थे। इसलिए आमने-सामने बतिया रहे थे। एक ने दूसरे को अपने बाप बताया। दूसरे ने उसको बेटा मानने इनकार कर दिया। बोला –‘पहले हमारी शादी तो कराओ।‘
दूसरे से काम पर जाने की बात हुई तो बोला –‘दस बजे ठेका खुलेगा। ठेके पर जाने के बाद काम शुरू होगा।‘
घाट पर नमामि गंगे के लोग मिले। बताया-“यहाँ ड्रेस पहनकर फ़ोटो खींचते हैं। उससे हमारी हाजिरी लगती है। इसके बाद कूड़ा उठाते हैं। एक आदमी पल्ली में कूड़ा पकड़ता है, दूसरा फ़ोटो खींचता है। प्रूफ देना होता है सफाई का। 6500 रुपया मिलता है महीना।“
“अगर कूड़ा न मिला तो क्या करते हो?”- हमने पूछा।
हमारी बात पर हंस दिया वह। बोला –“कूड़ा मिल जाता है। कूड़े की कोई समस्या नहीं।“
बगल में फूल की माला बनाती हुई मालिन हँसते हुए बोली-“तमाम खटराग करैं का पड़त हैं इनका।“
खटराग से हमको कुछ दिन पहले की गंगा सफाई अभियान पर की गई हाईकोर्ट की खिलाफ टिप्पणी याद आ गई। लेकिन हम कुछ बोले नहीं। हम कोई हाईकोर्ट थोड़ी हैं तो कुछ भी बोल दें और लोग चुपचाप बिना प्रतिक्रिया के सुन लें।
हम वापस लौट लिए। रास्ते में सेंट मेरी स्कूल के बच्चे आते दिखे। एक बच्ची ने सेव खाकर बचा हुआ हिस्सा सड़क पर फेंक दिया। बचा हुआ हिस्सा डमरू की तरह लुढ़कता हुआ मिट्टी में अटककर रुक गया। तमाम बंदर स्कूल के पास आकर चिंचियाते हुए दिखे। शायद उनके बच्चों के एडमिशन न होने से नाराज थे।
एटीएम पर अब एक ही कुत्ता बचा था। दूसरा शायद कहीं टहलने या निपटाने चला गया था। एक आदमी एटीएम से पैसा निकाल रहा था।
हम वापस लौटकर घर आ गए। आज की बदन जोड़ो यात्रा पूरी हो गई थी।
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