Monday, October 17, 2022

ज्यादातर लोग किताबें पलटकर देखते हैं , रख देते हैं



शुक्लागंज से घंटाघर ई-रिक्शा से पहुंचे 'पंदा' रुपए में। सबेरे से चाय नहीं पिए थे। एक ठेलिया पर चाय बन रही थी। गरम खौलती चाय। ठेलिया पर हुंडे तरतीब से सजाए हुए थे। चाय लेकर किताबों की दुकान की तरफ बढ़े। स्टेशन पर तरह-तरह के लोग मिलते हैं। आते-जाते यात्री, रिक्शा वाले, कुली, मांगने वाले, दुकानदार और न जाने कितने तरह के लोग।
चाय की दुकान से जरा ही आगे दो मांगने वाले आपस में बतिया रहे थे। कहीं जाने की बात कह रहे थे- ‘तुम हो आओ फिर हम आते हैं।‘ पेड़ के नीचे लोग जमा हंसी-मजाक कर रहे थे। वहीं फुटपाथ पर तमाम लोग तैयार हो रहे थे। एक महिला एक छोटी बच्ची के साथ गुट्टा खेल रही थी। बताया जबलपुर से आए हैं। साथ वाली बच्ची को बताया -'हमारी बहिन है।' बगल में एक लड़का और एक लड़की मोबाइल में कोई पिक्चर देख रहे थे। दोनों के कान में एक-एक लीड घुसी हुई थी।
आगे किताबों की दुकान पर लोग किताबें देखा-देखी कर रहे थे। दुकान वाले ने बताया कि यहाँ लोग आते हैं। ज्यादातर लोग किताबें पलटकर देखते हैं , रख देते हैं। खरीदते कम हैं। बारिश के बाद अब बिक्री कुछ होने लगी है। सात-आठ हजार की बिक्री हो जाती है। हमको लगा कि शायद कुछ कम करके बता रहे हैं बिक्री का हिसाब। दुकान लगाने की मियाद आज पूरी होने वाली है। स्टेशन मास्टर से बात करके दो-तीन दिन के लिए और अनुमति मांगेंगे आज।
हमने न-न करते हुए भी कुछ किताबें खरीद ही लीं। जो किताबें लीं वे यह रहीं:
1. ऋणजल-धनजल –फनीश्वरनाथ रेणु
2. पन्नों पर कुछ दिन –नामवर सिंह
3. उदासी मेरे मातृभाषा है –लवली गोस्वामी
4. एकाकीपन के सौ वर्ष –गाब्रिएल गारसीया मार्केस
इनमें लवली गोस्वामी Lovely Goswami हमारी ब्लागिंग घराने की दोस्त हैं। उनकी कविताएं हैं किताब में।नामवर जी की 'पन्नों पर कुछ दिन' पिछली बार निकाल के रखी थी। फिर वहीं भूल गए। डायरी है नामवर जी की। शुरुआती दिनों की। बाद में तो उन्होंने लिखना भी बंद कर दिया था। बोलना ही जारी रखा था।
'एकाकीपन के सौ वर्ष' खरीदने के पहले कई बार सोचा। लें कि छोड़ दें। 499 रुपए की है। 15% डिस्काउंट दिया किताब वाले ने। जबकि राजकमल वाले आजकल 25% छूट दे रहे हैं। यह किताब अंग्रेजी में हमने शाहजहांपुर में ली थी। वहाँ हमारे मित्र अरविन्द मिश्र के माध्यम से हृदयेश जी के पास गई। फिर आई नहीं लौट के। किताबें जाने के बाद वापस कम ही आती हैं। हमारे पास खुद तमाम दोस्तों और दीगर जगहों से आई किताबें हैं।
किताब की दुकान से लौटते हुए भूख लग आई थी। एक दुकान में बैठकर नाश्ता किया। पराठा-दही-आचार। 90 रुपए के दो पराठे। खाने के बाद लंच लेने की जरूरत नहीं पड़ी। नाश्ते के बाद सामने की दुकानों पर बैठकर चाय पी। दस रुपए में। चाय पीते हुए एक दोस्त का फोन आया। चाय और फोन की जुगलबंदी में आधा घंटा निकल गया।
पैदल लौटते हुए रास्ते में सब्जी मंडी दिखी। नीबू जो यहाँ बीस रुपए के तीन मिलते हैं वो वहाँ दस रुपए के तीन मिल रहे थे। सौ रुपए किलो वाले सेव 60 रुपये में। किताबों के साथ सेव और नीबू लादकर वापस चल दिए- यह सोचते हुए कि फल-सब्जी यहीं से लिया करेंगे।
सड़क किनारे दोनों तरफ दीवाली की दुकाने सजने लगी हैं। लईया, गट्टा, खील बतासा के ढेर लगे हुए हैं सड़क के दोनों ओर। चूरा साठ रुपए किलो मिल रहा था। मन किया ले लें, दूध में भिगो के खाएंगे। लेकिन फिर रह ही गया। खील वाले मलीहाबाद से आए थे। बोरे के बोरे जमा थे। बिक्री अभी शुरू नहीं हुई थी। होगी अब।
एक जगह बड़ी परात में गट्टा रखे हुए थे। हमने दाम पूछा तो बताया –‘फुटकर बिक्री नहीं करते हम। थोक में बेंचते हैं।‘
गट्टा बनाने की तरकीब बताई। बताया –‘चासनी बनाते हैं। फिर उसकी पतली-पतली लोई बनती है। उसको काट-काट के गट्टा बनाते हैं।‘
कंडे भी बिक रहे थे वहाँ। बताया –‘भट्टी में यही प्रयोग होते हैं। ढाई-तीन रुपए का एक कंडा।‘ एक-एक कंडे को एहतियात से बोरे में भर कर रख रहे थे वहाँ। गोबर भी कितना कीमती है। गोबर कीमती ही नहीं अब तो पावरफुल भी है। इतना कि अब इसको दिमाग तक में भरने का फ़ैशन चलन में है।
दुकान पर एक बच्चा बुजुर्ग के साथ खेल रहा था। कुछ देर में वह दूर जाकर खेलने लगा। बाबा-नाना रहे होंगे बुजुर्ग। यह खेलना-कूदना बच्चे की यादों में जमा हो रहा होगा।
सड़क किनारे जगह-जगह ठेलियों पर नाश्ते, चाय की दुकाने लगी हुई थीं। लोग खड़े-खड़े बुफ़े सिस्टम में खा रहे थे। नाश्ते में पूरी, पराठे, छोले-भटूरे और चाय की बहुतायत थी। एक जगह अन्नपूर्णा भोजनालय का बोर्ड दिखा। 15 रुपए (प्रति व्यक्ति)में दाल,चावल, रोटी सब्जी। कानपुर गौशाला सोसाइटी द्वारा संचालित है यह भोजनालय। सबेरे 11.30 से 01.30 और शाम को 06.30 से 08.30 तक। पहुंचिए जिसको खाना हो। भोजनालय के बाहर बड़े बरतन रखे थे। इन्ही में बनता, रखा जाता होगा खाना।
आगे 'लखनऊ की लाजबाब बिरियानी' और 'अमृतसर के शानदार छोले भटूरे' के बोर्ड दिखे। लखनऊ, अमृतसर वाले अपना सामान कानपुर आकर बेंच रहे हैं। कानपुर वाले दूसरी जगह जाते होंगे। बेचने के लिए घर से बाहर निकालना पड़ता है।
एक जगह एक परिवार मिला। पति,पत्नी और दो बच्चे। पति ने मुझसे समय पूछा। हमने बताया -'दस बजकर बीस मिनट।' पत्नी और फिर पति भी मुस्कराने लगा। कारण पूछने पर बताया -'हम कह रहे थे नौ बजे होंगे, पत्नी कह रही थी दस बज चुके होंगे। इसीलिए समय पूछा।'
हमने पत्नी को शर्त जीतने की बधाई दी। वो फिर मुस्काए। भोपाल से आये हैं। मूलतः कुंडा प्रतापगढ़ के रहने वाले हैं। अब किसी का इंतजार कर रहे थे। शायद पैसे की कमी हो। आगे बढ़ गया तो लगा पूछ लें। लेकिन फिर आगे बढ़ते गए। सहायता का इरादा स्थगित हो गया।
मदद करने के इरादे देरी करने पर स्थगित हो जाते हैं ।
घूमते-फिरते धूप तेज हो गई। हाथ में किताबें और फल लादे-लादे उँगलियाँ भी दर्द करने लगीं। एक हाथ से दूसरे में बदलकर दर्द साझा किया गया।
मोड पर एक फेरी वाला मिला। मोटरसाईकल पर कपड़े लादे था। उसको रोककर सिपाही कुछ पूछताछ कर रहे थे। बगल से गुजरते हुए हमने सुना –“एकाध अँगौछा हमको भी दे दिया करो कभी-कभी।“ सिपाही कई थे। एक कह रहा था, बाकी मुस्करा रहे थे। हमको रुकते देखा तो बोला –“आप चलो।“
हम क्या करते? चल दिए। चलते-चलते घर पहुँच गए।

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