“कलाकार अपनी नस्ल के एन्टीना होते हैं। वे समाज में आने वाली विसंगतियों को समय से पहले भाँपकर उनको दूरकरने के उपाय सुझाते हैं। आज के समय में कवि अधिक प्रासंगिक हो गया है। वह अपने समाज की विसंगतियों को प्रकट करे। लोगों को उन विसंगतियों को दूर करने के लिए उद्वेलित करे।“
कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी को पढ़ना और सुनना हमेशा प्रीतिकर लगता है। बातचीत करते हुए, लिखते हुए छोटे-छोटे सूत्र वाक्यों में अक्सर ऐसी बातें कह जाते हैं जो याद रह जाती हैं। दो वर्ष पहले एक बातचीत में उन्होंने कहा था-“आज का समय बहुवचन प्रतिभाओं का युग है। प्रतिभाएं विराट भले न हों लेकिन हैं और बहुतायत में हैं।“ वीरेंद्र डँगवाल पर लिखी संस्मरणात्मक किताब ‘यही तो तुम थे’ पढ़ना अपने में प्रीतिकर अनुभव रहा। उसके बाद आलोक धन्वा के साथ हुयी बातचीत पर आधारित किताब का इंतजार है।
‘आकाश में अर्द्धचंद्र’ पंकज जी का नवीनतम कविता संग्रह है। इसी पर बातचीत के लिए कल एकाग्र विचार गोष्टी का आयोजन मर्चेंट्स चेम्बर हाल में हुआ। गोष्ठी के पहले स्वल्पाहार की व्यवस्था भी थी। लोग खा-पीकर तसल्ली से सुनें।
गोष्ठी की अध्यक्षता सुभाषिनी अली जी को करनी थी। सुभाषिनी जी के चेहरे की चमक और खूबसूरती देखकर यह लगा ही नहीं कि हमारे शहर की मशहूर,जुझारू जनप्रतिनिधि 76 साल की हैं। सुभाषिनी जी समय पर आ गईं। कथाकार प्रियंवद जी पहले ही आ चुके थे। उनसे बतियाते हुए और मिलने-जुलने वाले तमाम लोगों से मुखातिब होती हुई वे गोष्ठी की शुरुआत का इंतजार कर रहीं थीं। हम भी अपने बगल में बैठे कानपुर के प्रसिद्ध शिल्पकार और यायावर गोपाल खन्ना यायावर जी बतियाते हुए उनके लकड़ी की कलाकृतियों को उनके मोबाइल पर देखते हुए इंतजार करते रहे। गोपाल जी को हाल ही में गोवा में उनके लकड़ी पर किए काम के लिए सम्मानित किया गया था।
मंच पर अध्यक्षता के लिए सुभाषिनी अली जी के अलावा मुख्य अतिथि के रूप में नरेश सक्सेना वक्ता के रूप में डा अनिल त्रिपाठी, खान अहमद फारूक और अनीता मिश्रा मौजूद थे। होना तो भावना मिश्रा को भी था लेकिन स्वास्थ्य कारण से आ नहीं पाई। अलबत्ता उनके द्वारा मुझे उपहार में दी किताब ‘आकाश में अर्द्धचंद्र’ मेरे साथ थी जिस पर हमने पंकज चतुर्वेदी जी के आटोग्राफ ले लिए।
गोष्ठी के संचालन का आगाज करते हुए संध्या जी Sandhya Tripathi ने कहा:
“दुनिया में जितनी भी अच्छी कविताएं लिखी गईं वे प्रेम करने वालों ने लिखीं। नफरत करने वाले कविताएं नहीं लिख सकते।“
गोष्ठी की शुरुआत संचालिका संध्या जी ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता से की:
लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बनें
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।
इस कविता से पंकज जी के लेखन के तेवर को जोड़ते हुए उन्होंने कहा –‘ पंकज ने जो ठीक समझा वो लिखा।‘ अपनी बात की पुष्टि के लिए उन्होंने पंकज जी की कविता सुना दी:
“अगर मैंने तुम्हारी आलोचना की
और उससे तुम्हें तकलीफ हुई
तो मुझे उम्मीद होती है:
अभी बच सकता है समाज।“
इस परिचय के बाद श्रेया शुक्ला ने वाणी वंदना की। श्रेया इतिहास में एम.ए. कर रही हैं। उन्होंने निराला जी की कविता मधुर आवाज में सुनाई
“वर दे
वीणा वादिनी वर दे
प्रिय स्वतंत्र रव
अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे।“
वाणी वंदना के बाद सुभाषिनी जी का वक्तव्य हुआ। सुभाषिनी जी जुझारू ट्रेड यूनियन नेता और सीपीएम पोलितब्यूरो की सदस्य हैं। उनको कहीं जाना था इसलिए पहले बुलाया गया। अपनी बात की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा:
“कम्युनिष्ट पार्टी वाले आपस में खिंचे-खिंचे रहते हैं। लेकिन कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जो हमको पास लाती हैं।“ इसके बाद उन्होंने औरैया में एक दलित लड़के की हत्या से जुड़ी घटना का जिक्र किया। जिसमें ताकतवर लोगों के दबाव में कार्यवाही को प्रभावित करने की कोशिश हो रही है।
अपने समाज की बात कहते हुए सुभाषिनी जी ने कहा –“हमारे देश में अत्याचार को सहने की ही नहीं उसे सही ठहराने की ट्रेनिंग दी जाती है। गौरव शाली परम्पराओ की ओट में तमाम गलत बातों को सही ठहराया जाता है। दुनिया में कोई और समाज नहीं होगा जो असमानता को जन्म से जोड़ता है और उसे सही ठहराता है। हमको इसको समझना होगा और इसको दूर करने का प्रयास करना होगा। जन्म आधारित असमानता को स्वीकार करने से बड़ा अपराध कोई नहीं हो सकता।
सुभाषिनी जी ने एजरा पाउंड का कथन –“कलाकार अपनी नस्ल के एन्टीना होते हैं” दोहराते हुए कहा – “लेखक/कलाकार समाज में आने वाली विसंगतियों को समय से पहले भाँपकर उनको दूरकरने के उपाय सुझाते हैं।“
आज के समय में कवि अधिक प्रासंगिक हो गया है। वह अपने समाज की विसंगतियों को प्रकट करे। लोगों को उन विसंगतियों को दूर करने के लिए उद्वेलित करे।
पंकज चतुर्वेदी की कविता पर बात करते हुए उन्होंने कहा –“पंकज छोटी कविताओं में बड़ी बात कहने की कोशिश करते हैं। कुछ पक्तियाँ बार-बार याद आती हैं। मीर की कविता में सरल भाषा में बड़ी होती है। आसानी से समझ में आती है। नरेश सक्सेना की कविता समझ समझ में आती है अत: अच्छी लगती है। पंकज की कविता भी कुछ-कुछ समझ में आती है (मतलब कुछ-कुछ अच्छी लगती है )। “
पंकज जी की दो कविताओं का खासतौर पर जिक्र किया सुभाषिनी जी ने:
1. ”मां कहती थीं:
जो दर्पण टूट जाए
उसमें छवि नहीं देखा करते
उसने यह नहीं बताया था
कि दूसरा दर्पण
होता नहीं है।“
2. “मैं शत प्रतिशत सहमति की
प्रत्याशा में ही नहीं लिखता
इसलिए भी लिखता हूँ
कि वह छीलता चला जाए
अगर मैंने तुम्हारी आलोचना की
और उससे तुम्हें तकलीफ हुई
तो मुझे उम्मीद होती है:
अभी बच सकता है समाज।“
दूसरी कविता को कम्युनिष्टों के लिए जरूरी कविता बताते हुए कहा उन्होंने –“हम अपने को अपने बड़ा ज्ञानी समझते हैं। अलग बात सुनना नहीं चाहते। चर्चा नहीं करते। सहमति-असहमति अलग बात है। बहस किसी पर न पहुंचे यह अलग बात लेकिन चर्चा अपने आप में उपलब्धि है।“
अध्यक्षीय सम्बोधन में वक्ता के रूप में अनीता मिश्रा को निमंत्रण दिया गया। हाल तब तक पूरा भर गया था। अनीता जनवादी लेखक संघ की कानपुर इकाई की सचिव भी हैं। कुछ लोग खड़े थे। अनीता ने माइक पर आते ही आह्वान किया –‘ जलेस (जनवादी लेखक संघ) के लोग वरिष्ठ लोगों के लिए सीट छोड़ दें। जलेस की देखादेखी प्रलेस की तरफ से भी यही आदेश जारी हो गया। हमको इस बात का सुकून हुआ कि हम जलेस/प्रलेस के सदस्य नहीं हैं। दुविधा रहित बैठे रहे।
अनीता ने शुरुआत पंकज की कविताओं की तारीफ से की- “पकज की कविता में रिश्ते, प्रेम , राजनीति , जीव सब कुछ है। कूज़े में समंदर हैं -पंकज की कविताएं। सतसैया के दोहरे –घाव करे गंभीर।“
अनीता ने अच्छी कविता की पहचान प्रसिद्ध तबला वादक जाकिर हुसैन के माध्यम से बताई। जाकिर हुसैन ने बताया –“अच्छा संगीत वह होता है जो सुनने में अच्छा लगे।“
ऐसे ही अच्छी कविता वह होती है जो पढ़ने पर दिल में उतर जाए। जैसे पंकज की वीरेन डँगवाल पर लिखी किताब- “यही तो तुम थे” के संस्मरण इसी तरह के हैं।
अच्छी कविता के उदाहरण के रूप में अनीता ने नरेश सक्सेना की कविता ‘गिरना’ का जिक्र किया :
“चीजों के गिरने के नियम होते हैं ,
मनुष्यों के गिरने के कोई नियम नहीं होते।“
अनीता ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा –“अच्छी कविता मित्र की तरह होती है।संकट के समय विश्वास देती है। मेरी मां जब बीमार थीं तो तुलसीदास जी की चौपाई दोहराती रहती थीं:
‘दिन दयाल विरद संभारी,
हरहु नाथ मम संकट भारी।‘
मां तुलसीदास जी को मानती थी, उनकी चौपाई से ताकत ग्रहण करती थीं। वही ताकत मुझको कबीर की पंक्ति –‘उड़ जाएगा हंस अकेला,
जग दर्शन का मेला।‘
अपने देश में लेखकों/कवियों की स्थिति अच्छी नहीं है। लोग लेखकों कवियों से पूछते हैं –‘लिखते तो हो और क्या करते हो?’
इसके बरक्स यूरोप और अन्य विकसित देशों में कवियों की स्थिति अलग है। हंगरी के कवि अतीला जोजेफ से जुड़ा एक संस्मरण है –“एक ट्रक ड्राइवर ने बातचीत में कहा कि वह अतीला जोजेएफ़ को जान से ज्यादा प्यार करता है। कारण पूछने पर उसने बताया –‘ मेरा परिवार मेरा साथ छोड़ सकता है। देश हमको देश निकाला दे सकता है लेकिन अतीला जोजेफ हमेशा मेरे साथ रहेगा।‘”
पंकज की कविताओं पर बात करते हुए अनीता ने कहा –“पंकज ने हमेशा निडरता से अपनी बात कही है। आज के समय के सच को बयान करते हुए उनकी कविता है :
“सत्ता कल्पना करती है
देश की
जिसमें उससे असहमत लोग
न रहते हों
देश को अफसोस रहता है :
उसने किन हाथों में
अपने को सौंप दिया है”
सादा शब्दों में बड़ी बात कहते हैं पंकज। अवाम की भाषा में लिखते हैं:
“सत्ता अगर तुम्हारी सराहना करे
तो देखना कि जनता से तुम
कितनी दूर आ गए हो
देश जनता ही है
वह किसी भू भाग का नाम नहीं।“
पंकज की कविताएं स्त्री विमर्श और प्रेम भी है। वे लिखते हैं :
“बिल्कुल निरदवंद और उन्मुक्त
उसे देखकर हर्ष हुआ
यात्री स्वतंत्र हो
तो सुंदरतम है।“
पंकज की प्रेम कविताओ में आस्था है। उनके यहाँ प्रेम दरअसल आत्मा का वैभव है। अनीता, मारखेज के उपन्यास ‘लव इन द टाइम आफ कालरा’ के नायक फलेरेन्टों का जिक्र करती हैं। अलग होने के बावजूद उसके दिल में उसकी प्रेमिका फरमीना ही रहती है। जो अपनी प्रेमिका फरमीना का ताजिंदगी इंतजार करता है। फरमीना का शादी हो जाती है। इसके बाद भी फलेरेन्टों अविवाहित रहता है। दोनों बूढ़े हो जाते हैं। फिर फरमीना विधवा हो जाती है। उसके फौरन बाद फर्जेन्टो उससे विवाह कर लेता है।
अपने प्रिय के लिए फरजेंटों का इंतजार का भाव पंकज की कविता में दिखता है :
“तुम्हें स्मरण करते हुए
कभी थकूँगा नहीं
जैसे तुम्हें देखते हुए
नहीं थकता था।“
जहां प्रिय रहता है वह शहर भी आकर्षक लगने लगता है :
“जहां वह रहता था
कभी –कभी वह
शहर खींचता है
अपनी सिफ़त से नहीं
तुम्हारे होने से।“
उनकी अराजनैतिक कविताओ में आज के समय और समाज की राजनीति का बयान है। रघुनीर सहाय कहते थे :
“किसी कवि की सही राजनैतिक पहचान करनी हो तो उसकी गैर राजनीतिक कविताएं पढ़नी चाहिए।“ ऐसी ही एक कविता है पंकज की :
“यह अमिधा की अहमियत को
पहचानने का समय है
गुंडे को गुंडा
और नरसंहार को
नरसंहार कहने का समय है।“
अमरूद के पेड़ अंश की कविताओं का जिक्र करते हुए अनीता ने कहा –“कविता वह अच्छी लगती है जिसका कोई अंश याद रह जाए और समय आने पर अनायास याद आ जाए। जैसे काश कविता का आखिरी वाक्य –“तुम मुड़-मुड़ के देख तो सकते हो लेकिन मुड़-मुड़ के चल नहीं सकते।“
अनीता मिश्रा की राय में अमरूद के पेड़ की कविताएं अच्छी हैं लेकिन उनकी समझ में ये गद्य कविताएं अलग से आणी चाहिए थीं। बाद के वक्ताओ ने उनकी इस बात से असहमति व्यक्त करते हुए अपनी राय रखी। उनकी बातों से लगा मानो अनीता अमरूद का पेड़ की रचनाओं को कमतर करके आँका है। जबकि अनीता ने उस तरह की रचनाओं को अलग से छापने की बात कही थी।
ऐसी बातों का आमतौर पर कोई अंतिम फ़ैसला नहीं होता। लोगों को बात करने के मौके मिलते हैं। इस सिलसिले में मुझे श्रीलाल शुक्ल की किताब “यह घर मेरा नहीं है” की याद आई। इसमें कहानी, संस्मरण, लेख, रिपोर्ताज सब शामिल थे। लोगों ने अलग-अलग तरह की राय दी इस पर। लेकिन श्रीलाल जी का कहना था –“यह सही मायने में संकलन है।“
कविता वह है जो जरूरत पड़ने पर सच्चे मित्र की तरह सामने आ जाए और जिसे जरूरत के समय रिश्तेदारों की तरह खोजना न पड़े।
इसके बाद पंकज की एक और कविता का जिक्र किया:
“बड़े –बड़े मुद्दों से
शुरू किया था तुमने
चुनाव अध्याय
अंत में बची रह गई
गए
हाय हाय”
पंकज कोई पत्रकार या रिपोर्टर नहीं है जो अपनी कविताओं में घटनाओं की रिपोर्टिंग करें। उनकी कविता अपने समय के सच बयान करती है।
“जब भी कोई अभियुक्त कहता है :
उसे देश के कानून में
पूरी आस्था है
तो वह दरअसल
कहना चाहता है:
उसे पक्का यकीन है
कि अभियोग से छूटने में
कानून उसकी मदद करेगा। “
आखिर में पंकज को शुभकामनाएं देते हुए अनीता मिश्रा ने उनको पानी पर चढ़ाया –“पंकज जैसा महसुस करते हैं वैसा लिखते रहें। लोगों की चिंता न करें। अपनी बात की गवाही के लिए अनीता ने गालिब को खड़ा कर लिया:
“गालिब बुरा न मान जो वाइज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।“
अनीता मिश्रा ने शुरुआती वक्ता का काम धुआँधार ओपनर बैट्समैन की तरह किया। शुरू में ही ढेर तारीफ़ी रन बना दिए पंकज के लिए। अपनी जानकारी में अच्छी कविता के तमाम गुण बताए और उनको पंकज की कविता से जोड़कर उनके लिखे की तारीफ की। अच्छा बोली।
अनीता के बाद कानपुर प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष खान अहमद फारूक साहब ने पंकज की कविता पर विचार व्यक्त किए। “कवित विवेक एक नहिं मोरे” की तर्ज पर कविता और खासतौर पर हिन्दी कविता से कम परिचय की बताते हुए शुरू की अपनी बात। लेकिन पंकज की किताब शुरू करते ही एक तिहाई पढ़ जाने की सूचना देते हुए किताब को दिलचस्प बताया। अपनी बात कहते हुए फारुक साहब ने कहा:
“शायर किस तरह से चीजों को देखता है और किस तरह उसको पेश करता है यह बहुत अहम है। पंकज चतुर्वेदी जो भाषा इस्तेमाल करते हैं वह अनायास नहीं गढ़ी जा सकती। सहज भाषा पढ़ने में सहज लगती है लेकिन उसको लिखना सहज नहीं होता। गालिब के जो शेर आज हमको पढ़ने को मिलते हैं वो कई-कई बार लिखकर और सुधारने के बाद लिखे गए। शायरी किसी लकड़ी के टुकड़े को आर्ट के पीस में बदलने का काम है। जब तक जबान पर काबू नहीं होगा , भाषा पर पकड़ नहीं होगी तब तक अच्छा साहित्य नहीं लिखा जा सकता।
कोई किताब अगर आपके सोच के रवैये को नहीं बदलती तो वह बढ़िया किताब नहीं।“
फारुक साहब ने पंकज चतुर्वेदी की कविता का जिक्र किया :
“वो मेरे भय था,
तुमने उसे शिल्प कहा।“
शिल्प रहित कविता का भी जिक्र किया:
“तुलसीदास ने जब कहा:
कभी मैं अपनी तरह रह सकूँगा
तो प्रश्न यही था:
जीवन का शिल्प क्या हो
कविता का शिल्प था
पर उसमें यह तकलीफ समाहित थी
कि जीवन का शिल्प क्या हो?”
मुखालिफ बात जब कहेंगे तो आपकी तरह उंगली उठेगी। यह कहते हुए उन्होंने धूमिल की कविता दोहराई:
“कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है”
पंकज की कविता चित्र में झोपड़ी का जिक्र करते हुए फारुक साहब ने कहा इस कविता ने मुझे स्तब्ध कर दिया:
“चित्र की झोपड़ी में
रहने की इच्छा होती है
कला उस जीवन के नजदीक
ले जाती है जिससे तुम दूर आ चुके हो।“
क्रिकेट के हवाले से राजनीति की बात कहते हुए पंकज लिखते हैं:
“क्रिकेट में अगर
अपने विकेट की रक्षा की
पात्रता नहीं है
तो बल्लेबाज को –
चाहे वह कितना ही महान हो-
मैदान छोड़कर जाना होगा
कोई क्षमा नहीं है
यही नियम लोकतंत्र का है
पर उसके नियंता कहते हैं
क्रिकेट का है”
इसके अलावा फारुक साहब ने भारतमाता और आकाश में अर्द्धचंद्र का भी उल्लेख करते हुए उनकी तारीफ की।
फारुक साहब के बाद डा अनिल त्रिपाठी ने पंकज चतुर्वेदी और उनकी कविता पर वक्तव्य दिया। उन्होंने सूत्र वाक्यों में कई बातें कहीं:
“ पंकज ने काम शब्दों में बड़ी बात कही है। आसान शब्दों में बड़ी बात कहना और मुश्किल है। पंकज ने दोनों को साधा है। यह सिद्धि विरले लोगों को मिलती है। अगर आपके अनुभव सूक्ति के रूप में ढल जाएँ तो यह अनुभव की मुक्ति है। पंकज ने पहले के संग्रहों की कविताओ में एकाध पंक्ति में वक्रोक्ति के माध्यम से अपनी बात कहते थे। इस संग्रह में भाषा के स्तर बहुत परिवर्तन किया है।
कविता किसी भी तरह की व्यवस्था में हस्तक्षेप करती है। जितने भी बड़े कवि हैं उन्होंने कविता के व्याकरण को तोड़ा है। पंकज जिन कवियों की सोहबत में रहे हैं वे हिन्दी के बड़े कवि रहे हैं। त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, वीरेन डँगवाल। बड़े कवि की संगत में उनसे केवल शब्द ही नहीं मिलते, दूसरी तमाम चीजें भी सीखते हैं। वीरेन डँगवाल की याद में लिखी कविता इस बात की तरफ इशारा करती है :
तुम विलक्षण थे
मगर विलक्षण कहे जाने से
नाराज होते थे
एक बार तुमने कहा:
जैसे सब लिखते हैं
वैसे मत लिखो
शायद तुम्हारा मन्तव्य था:
प्रेम का मतलब
विशिष्टता से
नहीं अपसरण से था
अद्वितीय होना है
पर सबके साथ होना है”
पंकज की स्मरण शक्ति विलक्षण है। हमारी पीढ़ी के लोगों में इतनी अच्छी स्मरणशक्ति और किसी की नहीं। इनको कविताएं याद रहती हैं।
पंकज की कविताएं आंतरिक उत्प्रेरण की आंतरिकता के साथ जुड़ी हैं। आंतरिक उत्प्रेरण के बारे में उन्होंने मशहूर कवि रिलके से जुड़ा एक संस्मरण सुनाया:
रिलके ने एक युवा कवि को सलाह दी थी कि यदि तुम कविता लिखे बिना जीवित रह सकते हो तो कविता मत लिखो। तभी लिखो जब तुम्हें लगे कि तुम कविता लिखे बिना जीवित नहीं रह सकते।
डा अनिल त्रिपाठी पंकज चतुर्वेदी के सहपाठी रहे हैं। यह बात बताते हुए उन्होंने कहा –“पंकज से इश्क और रश्क दोनों हैं।“
पंकज की कविताओं के इश्क में फँसने से बचे रहना मुश्किल है।
अमरूद का पेड़ अंश की कविताओ पर अपने विचार रखते हुए उन्होंने कहा कि ये गद्य कविताएं बहुत सशक्त और संवेदनशील कविताएं हैं। गद्य जीवन संग्राम की भाषा है। मोह कविता का पाठ करते हुए कहा इसका अंतिम पैरा बहुत मार्मिक है:
“ छुन्ना सुकुल को गर्व था कि उस गरीबी में उन्हें इतनी सुशील संतान नसीब हुई और यह मलाल भी कि वह कुछ कर नहीं सके। सुना है कि उन्होंने अपने बेटे से कहा था:”भैया कभी कोई खराब बात भी कह देते, तो मोह छूट जाता।‘
‘पंकज की कविता में उजास और उजाला है।‘ – यह कहकर अपनी बात खत्म करने वाले थे डा अनिल कि पंकज ने उनसे अनुरोध किया –‘नरेश की के आने तक बोलते रहें।‘
डा अनिल ने आगे कहा-“पंकज की कविताओ में जीवन को बेहतर बनाने के प्रयास की राजनीति है।“ जैसे पंकज की कविता है :
सब बर्बर हैं
यह बर्बरों का प्रिय तर्क है। “
यह सामान्यीकरण की प्रक्रिया है। गलत और सही की पहचान की चेतना की अपहरण की प्रक्रिया। सामान्यीकरण हमेशा विशिष्टीकरण के विपरीत बात कहता है।
इस बीच नरेश सक्सेना जी आ गए थे। डा अनिल त्रिपाठी ने अपनी बात यह कहते हुए खत्म की:
पंकज हमारे दोस्त और सहपाठी रहे हैं। उनमें तमाम अच्छाइयाँ है कुछ शैतानियाँ हैं जो हमने साझा की है। वे इसी तरह अच्छा और अच्छा लिखते रहें।
इसके बाद नरेश जी को बोलना था। लेकिन श्रोताओं ने पंकज चतुर्वेदी से अपनी बात कहने की मांग की। पंकज जी ने डायस पर आकर सबकी शुभकामनाओं के लिए आभार प्रकट किया। नरेश सक्सेना जी कानपुर आने के लिए उनका आभार व्यक्त किया। भावुक भी हो गए बोलते हुए। गला रुँध गया।
नरेश सक्सेना जी को बुलाने के लिए मंच पर आए शिवकुमार दीक्षित जी। उन्होंने अमेरिकन कवियत्री एमली डिकन्सन की कविता की पंक्तियाँ सुनाई:
A word is dead when it is said, Some say. I say it just begins to live that day."
(कुछ लोग कहते हैं शब्द बोलते ही मर जाता है। मैं कहती हूँ यह उसी दिन जिंदा हो जाता जब बोला जाता है।)
उन्होंने इस बात का विस्तार करते हुए कहा –‘आम की गुठली जमीन में गाड़ने से आम ही पैदा होता है। बंदर और बंदरिया के संसर्ग से बंदर ही पैदा होता है लेकिन शब्द ऐसा एक बीज होता है जिसके साथ यह अनिवार्यता नहीं होती कि वह एक ही तरह से व्यक्त हो। कवि और आलोचक हर शब्द को अपने प्रयोग करने के अंदाज से हर बार उसको नया रूप देते हैं।
नरेश जी की उम्र का हवाला देते हुए शिवकुमार जी ने कहा –‘ नरेश जी 85 साल के हैं। वे उनसे चार साल छोटे हैं। अपने यहाँ छोटों द्वारा बड़ों को प्रणाम करने की परंपरा है। ज्ञान की परंपरा में बड़े भी छोटे को प्रणाम करते हैं। यह विद्या की परंपरा है। जिस समय छोटा कोई ज्ञान की बात कह रहा हो उस समय वह बड़ा हो जाता है। प्रणम्य हो जाता है। यह कवियों की परंपरा है। नरेश सक्सेना की परंपरा है।‘
इसके बाद नरेश जी बोलने के लिए डायस पर आए। वे शायद कुछ लिखकर लाए थे बोलने के लिए। लेकिन उनके झोले में वो कागज मिले नहीं। कुछ देर खोजने के बाद उन्होंने ऐसे ही बोलना शुरू किया।
मैं चाहता हूँ कि हमेशा कुछ सीखता रहूं। तो यह सीखा। जब भी किसी से कुछ सीखते हो तो वो गुरु होता है। जब उसके प्रश्न का जबाब देते हो तो शिष्य हो जाते हो। जबाब सही हुआ तो ठीक है, गलत हुआ तो डांट पड़ सकती है कि यह जबाब सही नहीं है। तो वह बड़ा हो जाता है। सीखने-सिखाने में बड़ा छोटा हो जाता है, छोटा बड़ा हो जाता है। इसमें इस बात की गुंजाइश नहीं रहती है कि जो छोटा है वह हमेशा छोटा ही रहे,जो बड़ा है वह हमेशा बड़ा ही रहे। जब हम कुछ सीखते हैं तो शिष्य होते हैं। सिखाते हैं तो गुरु हो जाते हैं। जब बात सही होती है तो ठीक है, गलत होती है तो डांट भी पड़ती है।
अपने बात शुरू करते हुए नरेश जी ने कहा- “मैं आमतौर पर बड़े अराजक ढंग से बोलता हूँ। लेकिन इस बार पंकज की कविटायने पढ़ते हुए कुछ नोट किया था लेकिन वह अब मिल नहीं रहा। इसलिए अब वही बोलूँगा जो याद रह गया।“
सबसे पहले उन्होंने इतने श्रोताओं की उपस्थिति पर सुखद आश्चर्य व्यक्त किया- “इतने लोग कानपुर में। वह भी कविता सुनने के लिए नहीं, कविता की व्याख्या सुनने के लिए। क्या कमाल है? इसमें कुछ कमाल हो सकता है सुभाषिनी जी का हो, कुछ कमाल वक्तव्य देने वाले साथियों का हो सकता है लेकिन कुछ कमाल इसमे पंकज चतुर्वेदी का जरुर है। तीन घंटे तक लोग कविता की व्याख्या सुन रहे हैं, यह तो कमाल की बात है।
नरेश जी ने कहा-“ साहित्य में संवेदना को लोग कुछ नीची निगाह से देखते हैं। लेकिन अगर संवेदना नहीं होगी तो मनुष्य रोबोट हो जाएगा। करुणा अगर आपमें नहीं है तो निश्चित रूप से आप बेहतर मनुष्य नहीं हैं। उन्होंने कहा- एक जगह मैंने लिखा है इतिहास में शब्द कम होते हैं, हत्याएं ज्यादा होती हैं। इसका एक उदाहरण है –“अशोक ने अपने सौ भाइयों की हत्या करके राज सिंहासन प्राप्त किया।“ इसमें शब्द कितने हैं- शब्द तो नौ-दस हैं और हत्याएं सौ हैं। एक वाक्य में सौ हत्याएं हो गयीं। हत्याओं का सिलसिला चल पड़ा। हमारे समय की राजनीति ने औरंगजेब को हीरो बना दिया। औरंगजेब ने अपने भाइयों की हत्या कर दी, पिता को कैद कर दिया। लेकिन अशोक को भूल जाते हैं। बिंबसार को भूल जाते हैं। बिंबसार की पूरी डाइनेस्टी पितृहंताओ से भरी पड़ी है। पिता की हत्या करके सम्राट बनना , फिर उनके पुत्र द्वारा उनकी हत्या होना। लगातार हत्याओ पर हत्या पिताओं की होती रही हैं। क्योंकि अपने पिताओं से यही सीखा उन्होंने। ये मां से क्या सीखते हैं:
“मां कहती है:
कोई तुम्हारे साथ बुरा करे
तो भी तुम अच्छा ही करना
यही मेरे
भारत माता है।“
युद्ध की घोषणा होते ही एक बहुत बड़ा बाजार फैल जाता है। युद्ध की घोषणा होते ही ताबूतों का निर्माण शुरू हो जाता है। राष्ट्रीय झंडों की माँग बढ़ जाती है। उनमें शवों को लपेटकर सलामी दी जानी होती है। सैनिक साजो सामान का तो बहुत बड़ा बाजार है। युद्द का आभास होते ही इन सबका निर्माण शुरू हो जाता है। पंकज की ये जो कविताएं हैं ये खास तरह की कविताएं हैं। लगभग 160 कविताएं हैं लगभग 160 पेजों के संग्रह में। छोटी कविताओं का संग्रह है। और इसमें सबसे छोटी कविता जो दो लाइन की है बल्कि उसे एक ही लाइन कहें :
“सभी बर्बर हैं:
यह बर्बरों का
प्रिय तर्क है।“
यह सबसे छोटी कविता है। अगर आप कहें कि आपने यह किया तो वो कहेंगे कि उन्होंने तो यह किया। वे यह नहीं कहेंगे कि हमने नहीं किया। वे इतने बेशर्म हो चुके हैं कि सब जानते हैं उनको इसलिए वे यह नहीं कहेंगे हमने ये नहीं किया। वे यह नहीं कहते कि हम बर्बर नहीं हैं, वे कहते हैं कि वे भी तो हैं। ये बर्बरता का संतुलन बना रहे हैं। मनुष्यता का संतुलन नहीं , करुणा का संतुलन नहीं , बर्बरता का संतुलन बना रहे हैं।
कविता संग्रह की कविता मोह को याद करते हुए उन्होंने कहा –“कभी कुछ कह देते तो मोह छूट जाता।“ यह कहते हुए मेरा गला भर आता है। पिता का कैसा दुख। इससे बड़ा दुख और कुछ है नहीं। जिसे कहीं कोई उम्मीद नहीं समाज से। बहुत मार्मिक कविता है यह। यह खंड सबसे महत्वपूर्ण है। बाकी खंड तो कविताओं जैसे हैं लेकिन इसमें गद्य प्रमुख रूप से है। इन सारी कविताओं का प्रमुख तत्व तर्क का है। कोई कविता बिना तर्क के नहीं होती। अतार्किक नहीं है कोई कविता। दूसरा संवेदना का। कविता सूक्ष्म नहीं है तो कुछ कम कविता है। कविता को सूक्ष्म होना होता है। कविता सूक्ष्म हो, सुंदर हो। सुंदरता का खाना तो बहुत बड़ा है। कितनी तरह से कविता सुंदर होती है। ध्वन्यातमकता से, लय से, प्रतीकों से, व्यंजनाओं से। बहुत तरह से कविता को सुंदर बनाया जा सकता है। और अभी आपने एक बात नए तरह से सुनी। बंदर का बेटा बंदर होगा, आम के फल से आम लेकिन किसी शब्द को क्या अर्थ देना है यह कवि या आलोचक ही तय करता है। उस दृष्टि से अगर देखें तो इसमें बहुत सारा गद्य है। पंकज ने एक कविता में कहा – दूसरा दर्पण होता ही नहीं। कौन सा होता है दर्पण मनुष्यता का एक दर्पण होता है, प्रेम का एक दर्पण होता है, इसके दो-चार दर्पण नहीं होते। राजनीति का भी एक दर्पण होता है। यह दर्पण मानवीय मूल्यों पर आधारित होता है कि अन्याय नहीं होना चाहिए किसी के साथ। अन्याय अगर होगा तो वह नीति राजनीति नहीं है , अनीति है। जिस न्यायालय में न्याय नहीं हो रहा है वह न्यायालय नहीं है , अन्यायालय है। यह अफसोस जनक बात है कि अपने यहाँ न्याय व्यवस्था में बदलाव के लिए कोई आंदोलन नहीं होता है। आप आँखों से देखते हैं, अगर मैं आपसे कहता हूँ कि मेरी बाँसुरी देखिए तो इसका मतलब है सुनकर देखिए। मतलब कानों से देखना होता है। हम कपड़ा खरीदते हैं तो छूकर देखते हैं। टेक्सचर देखते हैं। फ़ील देखते हैं। स्पर्श से भी देखा जाता है। हम उंगलियों से देखते हैं , कानों से देखते हैं। फूल को सूंघकर देखते हैं। सूंघकर देखना मतलब नायक से देखना होता है। इमरती , जलेबी खाकर देखते हैं। स्वाद से देखते हैं। हम चीजों को पांचों इंद्रियों से देखते हैं। इसके बाद भी देखना बचा रहता है। अंत में कहते हैं इसे सोचकर देखिए। क्योंकि सोच ही ऐंद्रिकता से बना होता है। सोच में बहुत कुछ एकत्र है इसमें स्मृतियां हैं, अतीत है, इतिहास है, घटनाएं हैं। उन सबके साथ रखकर अब इसे देखिए। इस तरह देखना होता है। यह देखना साधारण नहीं है। इन कविताओं का मूल तत्व तर्क है। सिर्फ कवि नहीं। तर्क के बिना क्या होता है ? क्या आपको लगता है कि तर्कहीन होकर कोई चीज सुंदर हो सकती है? ऐसा नहीं होता है। कलाओं का जन्म अज्ञान से नहीं होता। कलाओं का जन्म ज्ञान से होता है। उसका विकास तो होता ही नहीं है। तो इन कविताओं में तार्किकता है और मार्मिकता है।
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी। यह नरक कौन देगा? वो जिसका अता-पता नहीं। फारुक साहब से पूछेंगे तो कहेंगे –‘हाँ, इंशाअल्लाह देगा।‘ हम नहीं दे सकते। अरे ,इसे हमें देना है। भूल जाइए कोई और देने वाला नहीं है नरक। उसने हमें नरक दिया है तो उसे सजा भी हम देंगे।
इसके बाद नरेश जी ने कविता के फार्म पर विस्तार से बातचीत करते हुए विभिन्न कविताओं के उदाहरण से यह बताया कि अतुकांत दिखते हुए भी उनमें लय और तुक होती है। इस क्रम में पंकज चतुर्वेदी की कविता ‘इतनी ही’ को लय में पढ़कर सुनाया:
“आसमान जब बहुत साफ
नीला होता है
और चंद्रमा उज्ज्वल
लगता है इतनी ही स्वच्छ
जिंदगी हमें चाहिए थी।“
इस कविता को डायस बजाते हुए और लय में पढ़ते हुए बताया कि यह कविता लय में है। इसके बाद अज्ञेय की कविता ‘दुख सबको माँजता है’ को भी लय में पढ़कर बताया कि इस कविता लय और “श्री राम चंद्र कृपालु भजमन” की लय एक है।
फार्म का यह नया ढंग पंकज चतुर्वेदी की कविताओं के अमरूद का पेड़ वाले भाग में प्रकट हुआ है। और यह वही तरीका जिसमें पंकज ने वीरेंन डँगवाल पर लिखी संस्मरण वाली किताब में ‘यही तुम थे’ अपनाया है।
डा अनिल त्रिपाठी ने एक बात बहुत अच्छी कही कि जब आप भावना से भरे होते हैं तो बहुत अधिक शब्द नहीं निकलते। शब्द बहुत कम हो जाते हैं। जब हम आँसू में डूबकर कोई बात कहते हैं तब हमारे पास शब्द ज्यादा नहीं होते। इन कविताओं में शब्द ज्यादा नहीं हैं।
आज पंकज चतुर्वेदी के काव्य संग्रह पर बातचीत के बहाने हमने कुछ नई बातें सीखीं। बहुत अच्छा लगा।
इसके बाद नरेश सक्सेना जी ने लोगों की मांग पर कई कविताएं सुनाई। पहली कविता इस तरह थी:
मरना है यह तो तय
पर कब और किसके हाथ
यही संशय है
जो है सबसे नजदीक
उसी से सबसे ज्यादा भय है
यह इतना बुरा समय है।
इसके बाद और कई कविताएं सुनाई नरेश जी ने। कार्यक्रम के अंत में राजन जी ने धन्यवाद दिया। इसके बाद देर तक नरेश जी और पंकज जी के आटोग्राफ का देर तक सिलसिला चला। साढ़े पाँच बजे शुरू हुआ कार्यक्रम रात दस बजे तक चला।
कार्यक्रम में करीब ढाई सौ से ऊपर लोग आए थे। इनमें इनमें प्रियंवद जी , अमरीक सिंह दीप, डा आलोक बाजपेयी, राजेन्द्र राव जी, विनोद श्रीवास्तव जी, राजू सोनकर और शहर के अनेक प्रमुख साहित्यकार, कलाकार , कवि लेखक शामिल थे।
'आकाश में अर्द्धचंद्र' पर विचार गोष्ठी जब खतम हुयी तो आसमान में चाँद अपनी चटाई बिछाए मजे कर रहा था। कार्यक्रम की संचालिका संध्या जी ने जैसा कहा –यह एक अलग तरह की शाम थी। लीक से हटकर शाम थी।
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