लगभग चार वर्षों के इंतजार के बाद अरविंद तिवारी जी Arvind Tiwari का चौथा व्यंग्य उपन्यास प्रकाशित हुआ -'लिफाफे में कविता।' प्रकाशित होते ही खरीदा और पढ़ना भी शुरू कर दिया। एक छुटकी पोस्ट भी लिखी। सोचा पूरा पढ़ कर तसल्ली से लिखेंगे। उपन्यास पढ़ गए। लेकिन तसल्ली न मिली।
अभी हाल ही में एक लेखक का बहुप्रचारित उपन्यास छपकर आया है। बहुत उत्साह से मंगाने वाले मित्र से जब पूंछो कहा तक पहुंचे ? पता चलता है चालीस पेज पर अटके हैं। इस मामले में अरविंद तिवारी जी के सभी उपन्यास रोचक और पठनीय हैं।
उपन्यास पढ़कर उसके पंच और उसके बारे में व्यंग्ययात्रा में भेज भी दिया। छप भी गया। एक काम पूरा हुआ।
उपन्यास छपने के करीब साल भर बाद इसी महीने की शुरुआत में अरविंद जी का फोन आया। बोले -'उपन्यास पर गोष्ठी तय हुई है। आना है।' हमने कहा -'आएंगे। काहे नहीं आएंगे।'
तारीख बताई गयी 26 नवम्बर। जो कि एक दिन बाद सरक के 27 हो गयी। हमने 26 नवम्बर को पहुंचने का और 27 को लौटने का रिजर्वेशन करा लिया। सोचा था डेढ़ दिन आगरा घूमेंगे। शहर, किला, ताजमहल और भीड़-भाड़ देखेंगे, भटकेंगे। सुबह-शाम सूरज उगने-अस्त होने के समय ताजमहल देखने की बात भी सोच ली। शनिवार,इतवार का दिन। तसल्ली से आवारागर्दी का प्लान बन गया।
लेकिन सब कुछ प्लान के हिसाब से कहां होता है। घर के काम कुछ ऐसे पड़े कि 26 को जाना स्थगित हो गया। अब बचा दिन 27 का। 27 की सुबह गोमती में तत्काल से रिजर्वेशन कराया। लेकिन पैसे भगतान करते-करते मामला वेटिंग लिस्ट तक पहुंच गया। गाड़ी सुबह साढ़े सात पर जाती है। सोचा वेटिंग कन्फर्म हुई तो नहीं तो बस से निकल लेंगे।
शाम को सोचा कि काहे को वेटिंग का इंतजार किया जाए, रात की बस से निकल लेंगे। बैग तैयार कर लिया। लेकिन ऐन निकलने से पहले शरीर ने कहा -'आराम बड़ी चीज है। रात में घर में सोया जाए। सुबह निकलना।' मान ली बात।
सुबह छह बजे निकले। गोष्ठी 2 शुरू बजे होनी थी। बस स्टैंड पहुंचे। बस तैयार थी। बैठ गए। ड्राइवर बोला -'पांच घण्टे में पहुंच जाएंगे। एक्सप्रेस वे से चलेंगे।' हमने सोचा-' बहुत सही। ग्यारह-बारह तक आगरा पहुंच कर दो बजे तक गोष्ठी स्थल पहुंच जाएंगे।'
बस चली। कंडक्टर आया। टिकट बनाया। हमने इत्मीनान से पूछा कि आगरा कब तक पहुंचेंगे। कन्डक्टर दुगुने इत्मीनान से बोला -'दो बजे तक पहुंच जाना चाहिए।' हमारे हाथ के तोते तो नहीं लेकिन हल्के से होश तो उड़ ही गए। हमने कहा -'ड्राइवर तो पांच घण्टे कह रहा था।'
'ड्राइवर नया है। उसको पता नहीं होगा। दो बजे तक पहुंचेगे आगरा।' -कन्डक्टर ने और भी इत्मीनान से कहा। हमको लगा ये बस का ड्राइवर न हुआ किसी संस्था का कर्णधार हो गया जिसको पता ही नहीं कि कहां घसीटे लिए जा रहा है अपनी संस्था को, कहाँ पहुंचाएगा।
हमने रुट पूंछा तो उसने बताया -'कन्नौज, गुरसहायगंज, मैनपूरी, शिकोहाबाद, टूंडला होते हुए आगरा जाएगी।' मैनपूरी मतलब अरविंद तिवारी जी का जन्मस्थान, शिकोहाबाद मतलब वर्तमान निवास, आगरा मतलब गोष्ठी स्थल। मतलब बस सभी महत्वपूर्ण स्थलों को निपटाते हुए पहुंचनी है।
दो बजे आगरा में पहुंचने के कंडक्टर ने टूंडला में आधे घण्टे रुककर नाश्ते का प्लान भी बता दिया। हमने सोचा कि टूंडला उतरकर ओला या कोई और सवारी कर लेंगे। समय पर पहुंच जाएंगे।
रास्ते में ड्राइवर जगह-जगह रुककर सवारियां बटोरते हुए आगे बढ़ा। हम भी ग्राम्य सुषमा निहारते हुए गोष्ठी की कल्पना करने लगे। छप्पर, जानवर, बैल, खेत, उपले और तमाम बेतरतीब नजारे देखकर लगा कि कह दें -'अहा ग्राम्य जीवन भी क्या।' लेकिन नहीं कहे। गोष्ठी 2 बजे शुरू होनी थी।
इस बीच कल्याणपुर, मंधना, चौबेपुर, शिवराजपुर, बिल्हौर, मानीमऊ निकलते गए। हर स्टेशन पर हमारी कोई न कोई रिश्तेदारी। हरेक को तसल्ली से याद करते रहे। आगे बढ़ते गए।
कन्नौज के पहले अरविंद तिवारी जी का फोन आया। बोले -'कहाँ हो, किधर तक पहुंचे?' हमने बताया -'बस से आ रहे। 2 बजे तक पहुंचेंगे।' तिवारी जी ने सुना तो बोले -'ये तो बहुत गड़बड़ बस पकड़ ली। बहुत देर में पहुंचेंगी।' हमने कहा -'पहुंच जाएंगे।' तिवारी जी ने पूरा रुट बिना सांस लिए गिना दिया। बोले -'उस रुट के बारे हमें अच्छी तरह पता है। आपको लखनऊ आगरा एक्सप्रेस वे आना चाहिए था। या फिर गोमती से।'
अरविंद तिवारी जी खुद कवि रहे हैं। कवि सम्मेलनों में जाते रहे हैं।जिस बारीकी से रुट बताया उससे उनके उपन्यास की बात की पुष्टि हुई -'कविता की तरह रेलवे(बस) के टाइम टेबल को रटना मंचीय कवियों के लिए जरूरी होता है।'
बहरहाल तिवारी जी की हड़काई का असर यह हुआ कि हमको भी लगा कि अब गोष्ठी छूट गयी। लगने तक हम कन्नौज पहुंच गए थे। हमने वहीं ट्रेन की चेन खींचने वाले अन्दाज में अपना झोला उठाया और बस को तलाक दे दिया। सोचा कुछ नहीं तो कन्नौज से कार से चले जायेंगे। जो होगा देखा जाएगा।
कन्नौज में उतरकर चाय पीते हुए पता किया तो मालूम हुआ कि 12 किलोमीटर आगे एक्सप्रेस हाइवे है। 30 रुपये में ऑटोवाला पहुंचा देगा 15 रुपये में। वहां से दो घण्टे में आगरा पहुंच जाएंगे।
ऑटो वाले ने सवारी भरी और हमको भी भरकर आगे बढ़ा। एक छुटके ऑटो में 6 सवारी बैठाए था। फिर भी शिकायत कि एक सवारी कम है। नुकसान होगा।
रास्ते में ऑटो वाले ने बताया कि ऑटो के अड्डे पर तमाम लोगों को पैसे देने पड़ते हैं उसको। पुलिस, ठेकेदार, इसको उसको और न जाने किसको। ऑटो वह फोन पर बतियाते हुए ऐसे चला रहा था जैसे हवाईजहाज वाले ऑटो पायलट मोड़ में जहाज उड़ाते हैं।
जहां उतारा ऑटो वाले ने वहीं चढ़ाई के बाद एक्सप्रेस हाइवे था। चढ़ाई चढ़ते ही बस मिल गयी। हम लपककर चढ़ गए। पीछे बैठे। पूरी सीट सूरज की रोशनी में नहाई हुई थी। बलभर विटामिन डी लेते हुए आगरा की तरफ बढ़ गए। पहले के खड़खड़ाहट भरे रास्ते की जगह बस अब तैरती हुई सी चल रही थी। बेआवाज चलती बस में बैठे तसल्ली हो गयी कि अब तो समय पर पहुंच ही जायेंगे।
इस बार तिवारी जी का फोन आया तो बोले -'आपकी बस में आवाज नहीं आ रही।' उनको शायद लगा होगा कि अगला बस से उठकर वापस तो नहीं चला गया। हमने बताया कि एक्सप्रेस वे से आ रहे तो उन्होंने भी सुकून की सांस ली।
लंबे रास्ते से एक्सप्रेस वे की तरफ बढ़ते हुए हमको लगा कि हमारे बड़े-बुजुर्ग हमको आरामदायक रास्ते में ठेल कर अनेक अनुभवों से वंचित कर रहे। मैनपुरी, शिकोहाबाद होते हुए आते तो गोष्ठी भले छूट जाती लेकिन कितने रोचक अनुभव होते। परसाई जी पैसेंजर से चलते थे, खटारा बस पकड़ते थे ताकि जनता के बीच से अनुभव मिलें। तिवारी जी ने हमको उससे वंचित किया। परसाई जी की तरह बस यात्रा का लेख लिखने का मसाला रह गया।
लंबे रास्ते आते तो तिवारी जी बार-बार पूछते कहाँ तक पहुंचे, कितनी दूर हैं। हम बिना कुछ बोले ही प्रमुख वक्ता बन जाते। सञ्चालक हर वक्ता के बाद बताता -'कानपुर से आने वाले अनूप शुक्ल बस आने ही वाले हैं।' लेकिन इस एक्सप्रेस वे की बस ने सारी वीआईपी सम्भवनाये खत्म कर दीं।
आगरा के सारे रुट तिवारी जी ने लिखा रखे थे। उनको फॉलो करते हुए हम गोष्ठी स्थल यूथ होस्टल पहुंच गए। वहां तिवारी जी का फोन आया -'कहां तक पहुंचे?' हमने बताया -'घटनास्थल पहुंच गए।' उन्होंने पास ही स्थित आहार रेस्टोरेंट बुला लिया। वहां प्रेम जनमेजय जी प्रेम जनमेजय और अरविंद तिवारी जी मौजूद थे। उसकी फोटो साझा करते हुए तिवारी जी ने लिखा है -' हिंदी व्यंग्य के दो सैनिक' । हमने सोचा आगे लिख दें -'शिकार के इंतजार में।' लेकिन फिर नहीं लिखा। वहां लिखते तो फिर यहां क्या बताते?
हमारे पहुंचते ही खाने का फिर आर्डर हुआ। खाना खाकर हम लोग गोष्ठी स्थल की तरफ बढ़ें इसके पहले अरविंद तिवारी जी हमको एक लिफाफा देने लगे। हमने पूछा -'ये क्या?' बोले -'किराया है रख लो।' हमने मना कर दिया। हमने सोचा कि 'लिफाफे में कविता' की जगह 'लिफाफे में किराया' चल रहा।
तिवारी जी ने फिर कहा लेकिन हमने मना कर दिया तो कर दिया। बाद में हमारी न में आलोक पुराणिक Alok Puranik भी शामिल हो गए। हम बहुमत में हो गए। लोकतंत्र में जिसका बहुमत उसकी बात मानी जाती है।
हमने तो खाली मना ही किया था। आलोक पुराणिक जी ने फ्रंटफुट पर आकर डायलॉग भी मार दिया -'अरे तिवारी जी आप भी क्या बात करते हैं। आप जब और जहां बुलाएंगे हम आएंगे।' मौके पर सटीक डायलाग मार लेना भी समर्थ व्यंग्यकार की निशानी है।
अरविंद तिवारी जी मान तो गए हमारी बात। हालांकि बाद में उन्होंने फेसबुक थाने पर हमारी शिकायत दर्ज करा ही दी कि इन लोगों ने किराया तक नहीं लिया।
हम लोग समय पर गोष्ठी स्थल पहुंच गए। वहां आलोक पुराणिक जी अच्छे बच्चों की तरह नोट्स ले रहे थे। 'लिफाफे पर कविता' में जगह-जगह निशान, चिप्पियाँ लगाए हुए वे तैयारी में जुटे थे। ओपन बुक एक्जाम के लिए तैयारी। वक्ता सभी आ गए थे सिवाय डॉ अनुज त्यागी के। उनका और श्रोताओं का इंतजार था।
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