कल Atul Arora मुलाक़ात हुई। बहुत दिनों के बाद। इसके पहले की मुलाक़ात लगभग दस-बारह साल पहले हुई थी जब हम आर्मापुर में रहते थे। तीन साल पहले जब अपन अमेरिका की यात्रा पर थे तो अतुल न्यूजर्सी ,जहां हम हफ़्ते भर रहे , के बग़ल के मोहल्ले (स्टेट) में ही रहते थे। लेकिन उन दिनों फ़ेसबूक से दूरी बनाए रखने के चक्कर में वो हमारी पोस्ट्स देख न पाए और हमारे अमेरिका प्रवास के बारे में जान न पाए। लिहाज़ा दो कनपुरिये अमेरिका में मिल न पाए।
पहली मुलाक़ात हम लोगों की आभासी ही हुई। ब्लागिंग के चलते। 2004 में । अतुल रोज़नामचा ब्लॉग लिखते थे। उन दिनों उनकी पोस्ट्स सबसे ज़्यादा पढ़ी जानी पोस्ट्स होती थी। ‘लाइफ़ इन एच ओ वी लेन’ भारत से अमेरिका पहुँचे लोगों की ज़िंदगी का रोचक वृत्तांत है। बाद में ,शायद व्यस्तता के चलते , इस तरह के किस्से कम होते हुए ठहर गये। आजकल जो किस्से आते हैं उनके घर के किचन गार्डन में मूली और दीगर सब्ज़ियाँ उगाने की जिस तरह कहानी आती है उसके चलते कल मिलने पर हमारा सबसे पहला सवाल था -“भइया यहाँ से इंजीनियरिंग करके वहाँ सब्ज़ी उगाने गये थे क्या?”
लेकिन इसके लिए अतुल या किसी को क्या दोष देना। आजकल जिसको जो काम सौंपा गया वह उसको छोड़कर दूसरे काम में जुटा हुआ है। हर जगह डायवर्सिफ़िकेशन चल रहा है।
बहरहाल बात मुलाक़ात की । विदेश से देश लौटने पर लोगों के पास दिन होते हैं गिनेचुने , मिलने का मन होता है बहुत लोगों से। लोग भी मिलना चाहते हैं। दिन, घंटे और जगह तय होती है। मिलना होता है।
अतुल से मिलने की बात तय हुई थी 27 को लखनऊ में। हिमांशु बाजपेयी Himanshu Bajpai के साथ। हमारा ग्रुप भी बन गया कार्यक्रम तय करने के लिए। लेकिन फिर अरविंद तिवारी Arvind Tiwari जी के उपन्यास ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ पर 26 को होने वाला कार्यक्रम 27 को शिफ्ट हो गया। लिहाज़ा हमारा लखनऊ जाना निरस्त हो गया। अतुल का भी कार्यक्रम बदला और हमारा 26 को मिलना तय हुआ।
बहरहाल मिलने के लिए बाहर कोई ‘ठीक-ठाक’ जगह खोजी गई। तय हुआ कि गोविन्दनगर के होटल दीप में मिलना होगा।
ये ‘ठीक-ठाक’ जगहों पर मिलने वाली बात लिखने-पढ़ने वालों की समाज में स्थिति की कहानी है। लोग लिखने-पढ़ने वालों को अच्छी नज़र से नहीं देखते। घर में घुसने नहीं देना चाहते हैं। मजबूरी में लोग बाहर मिलते हैं।
समय तय हुआ था सुबह साढ़े आठ बजे का। मिलनातुर लोग आठ ही बजे पहुँच गये। हमने अपने नामराशी अनूप शुक्ला Anoop Shukla को भी न्योता उछाल दिया -आओ,जलेबी खिलाते हैं। अनूप शुक्ला ने निमंत्रण स्वीकार तो किया लेकिन इस शर्त के साथ कि जैसे ही फ़ोन आएगा घर से , वो भाग लेंगे। उनकी ड्यूटी घर ताकने के लिए लगी थी।
दीप होटल में कोई चाय-पानी या बैठने का जुगाड़ नहीं था। इसके बाद कई जगह भटके। घंटा भर तो बैठने की जगह में भटकते रहे। आख़िर में किसी ने जगह सुझाई -चाय बार। पहुँचे तो चाय बार तो बंद था लेकिन बैठने के लिये ज़मीन में एक फुट ऊपर तक उगे पेड़ों के तने उपलब्ध थे। वहीं बैठकर मुलाक़ात हुई।
तमाम नई पुरानी यादें ताज़ा हुईं। अतुल ने फिर से लिखना शुरू करने का प्रण लिया। किताब फ़ाइनल करने का भी। इंजीनियर के अमेरिका जाकर किसान बन जाने की बात पर अतुल ने बताया कि सभी यही कहते हैं। इसी सिलसिले में बात चली कि कानपुर से कंप्यूटर की पढ़ाई करके सालों पहले कुवैत पहुँचे जीतेन्द्र चौधरी Jitendra Chaudhary आजकल घर, दफ़्तर या जहां बताओ वहाँ कैंडल लाइट डिनर की व्यवस्था का इंतज़ाम करने में लगे हैं आजकल।
बात देश दुनिया की भी हुई। अतुल ने बताया कि जब अमेरिका में बाढ़ में तबाही मची हुई थी तो वो दुनिया को चौड़े होकर बता रहे थे -‘सब कुछ ठीक है।’ बुश को क्या कहें अब तो वो रिटायर हो गये। आज भी हर जगह यही हाल है।
बातचीत के दौरान अनूप शुक्ला की उनके घर से पुकार लगी। वो फ़ोटो खिंचाकर फूट लिए। बाकी बचे तीन लोग मतलब अतुल , उनके जीजा जी और हमने वहीं एक चाय की गुमटी पर खड़े होकर चाय पी। फ़ोटो उसने फ्री ने खिंचवा दिये। मिल-मिलाकर हम लोग वापस लौट आये। तय हुआ कि अगले महीने की संभावित अमेरिका यात्रा के दौरान हम लोग फिर से मिलेंगे और अतुल हमको ‘क़ायदे से फ़िलेडेल्फ़िया घूमायेंगे’।
कल की मुलाक़ात में चीनी कितने चम्मच, कानपुर की घातक कथाएँ और मोहब्बत २४ कैरेट के लेखक मृदुल मृदुल कपिल को भी साथ होना था। लेकिन एन समय पर उनको दफ़्तर के काम से बाहर जाना पड़ा और वे आ न पाए। नौकरी जो न कराये।
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