Monday, November 07, 2022

इंग्लिश दारू पीने में मजा नहीं आता



ओवरब्रिज के पास सीटी बजाते दिखे बाबा जी। सीटी सुनते ही आसपास से कई कुत्ते पूंछ उठाये भागते चले आये। सब बाबा जी द्वारा वहीं जमीन पर रखे समोसे, छोले खा रहे थे। बाबा जी तसल्ली वाले वात्सल्य से खड़े उनको देख रहे थे।
बात हुई तो पता चला बाबा जी ओवरब्रिज के आसपास सामान की देखभाल के लिए चौकीदारी करते हैं। रात की ड्यूटी। अकेले रहते हैं। रोज कुछ न कुछ आसपास के कुत्तों को खिलाते रहते हैं। कुत्ते इंतजार करते हैं। एक आवाज में दौड़े चले आते हैं पूंछ उठाये। टूट पड़ते हैं खाने पर।
"सब हमारी तुम्हारी तरह ही जीव हैं। जो बन सकता है खिला-पिला देते हैं।"- कहने वाले बाबा जी पास ही रनियां के रहने वाले हैं। दो भाई , तीन बहने हैं। भाइयों-बहनों के परिवार हैं। बाबा जी अविवाहित रहे। कारण पूछने पर बताया-'पिता हमारे बोले-हमारे पास खर्चे के पैसे नहीं हैं। तुम शादी न करना। हमने नहीं की।'
आज के समय के हिसाब से पिता की इतनी बात मानने वालों की कल्पना मुश्किल है। बाबा जी के यहां परम्परा का भी दबाब रहा होगा। चंद्रपाल कमल नाम है। कबीरपंथी हैं।
"पिता की बात मानकर शादी नहीं कि तो कभी-कभी लगता होगा कि हमारा भी परिवार होता। जीवनसाथी होता?"
हमारी इस बात का सीधा जबाब न देकर बोले-"लोग मजे लेते हैं। मेला, नौटंकी में नचनियां मजे लेती हैं। कहती हैं -ये बुढ़ऊ शादी काहे नहीं करते। तो उनकी बात का बुरा न मानते हुए समझाते हैं मन को।"
फिर बात कुत्तों के बहाने जीवों पर आई। बोले-"सब जीव को जिंदा रहने का हक है। किसी को मारना ठीक नहीं। कल-परसों कुछ लोग, शायद छत्तीसगढ़, विलासपुर के होंगे जो यहां मंजूरी करने आये हैं, गुलेल से चिड़ियों को मार रहे थे। हमने टोका-'खबरदार, मारना नहीं इनको।' फिर रुके वो।"
रात भर की चौकीदारी के सात-आठ हजार रुपये मिलते हैं। हमसे बोले -"कहूँ दस-पन्द्रह हजार की परमानेंट चौकीदारी होय तौ बताव। हियन तो पुल बन जाई , काम खत्म हुई जइहै।"
अब काम कहाँ दिलवा दें। आजकल सबसे ज्यादा शोषण असंगठित क्षेत्रों की मजदूरी का हुआ है। न्यूनतम मजदूरी के कानून के बावजूद मजदूरी का बड़ा हिस्से ठेकेदार धर लेता है। एक के पीछे दस लोग , घटी मजदूरी पर भी, काम करने को मौजूद हैं।
कोई मिलेगा तो बताएंगे, कहकर हम आगे बढ़ गए। हालांकि हमको और बाबा जी दोनों को भरोसा है कि ऐसा कभी होगा नहीं।
आगे सड़क किनारे चूल्हा सुलगाये कुछ लोग खाना बना रहे थे। ईंटो का चूल्हा, सड़क किनारे की लकड़ी और सड़क पर जम गई रसोई। धूल-धक्कड़ भरी सड़क पर बनती मोटी रोटियां। वहीं सेंककर एक ईंट पर रखते जा रहे थे बनाने वाले। बतियाते भी जा रहे थे।
चार लोग मिलकर बना रहे थे। कोई आलू लाया, कोई आटा कोई मीट , कोई दारू। साझा रसोई। किटी पार्टी। बोले -'हम लोग इसको हलकालू कहते।' हलकालू मलतब किटी पार्टी। सामुदायिक रसोई।
रोटी बनाने वाला हवा भरने, पंचर बनाने का काम करता है। बातचीत से अंदाज लगा -'दारू के सुरूर में है सब लोग।' पूछने पर कन्फर्म भी हुआ। एक बोले-'रात को एक क्वार्टर तो चाहिए। दिन भर तक जाते हैं पल्लेदारी से।'
पल्लेदारी मतलब बोझा, मूलतः बोरे ढोने का काम। पास ही गल्ला गोदाम में काम करते हैं। कानपुरी झुमला -'झाड़े रहो कलट्टरगंज' पल्लेदारों के चलते ही बना।
दारू की बात चली तो बोले-'हमको देशी ही चढ़ती है। इंग्लिश में मजा नहीं आता। बोतल खाली कर दें फिर भी शुरुर न आये। देशी ठीक है। एक क्वार्टर ने काम चल जाता है। 65 रुपये में आता है एक क्वार्टर।
इस बीच एक साइकिल वाला आया। हवा भरवानी थी उसको। रोटी बनाने वाले ने बोला -'देख लेव होय कम्प्रेशर मां तौ भर लेव।' साइकिल वाले ने छुच्छी में कम्प्रेशर का पाइप लगाया। भरकर चला गया।
हमने दारू के नुकसान की बात कही तो हमपर हंसे वो। बोले -' अच्छा खाना खाओ, कुछ नुकसान नहीं करती। हम तो दिन में चार क्वार्टर पीते हैं।'
हमने ताज्जुब किया -'चार क्वार्टर। बहुत है ये तो।'
'अरे तो कोई एकसाथ थोड़ी पीते हैं। थोड़ी-थोड़ी देर में पीते हैं। दिन भर में खत्म करते हैं चार क्वार्टर। कोई नुकसान नहीं करती।' -दारू विशेषज्ञ ने बताया।
इस बीच एक बच्चा आ गया। हमको जानता है तो पास खड़ा हो गया। उसकी तारीफ करते हुये बोला -"बहुत माई डियर बच्चा है। बहुत तहजीब से बात करता है। बहुत आगे जाएगा। बहुत इंटेलीजेंट है।"
बच्चे के कंधे पर हाथ रखे हम उसकी बात सुनते रहे। बच्चे के पिता ई-रिक्शा चलाते हैं। मां किसी और के साथ चली गयी हैं। पिता अपने बच्चों को पालते हैं। दीपक की कोचिंग में पढ़ता है। वहीं मुलाकात हुई थी।
हमारी बातचीत को वहीं एक व्हील चेयर पर बैठे बुजुर्ग भी चुपचाप सुन रहे थे। बीच-बीच में मुस्कराते भी जा रहे थे। उनको भी इस किटी पार्टी हला कुली में शामिल किए जाने की आशा होगी।
पार्टीबाजो को वहीं छोड़कर हम आगे बढ़े। हमको दवा लेने जाना था। रास्ते में सड़क किनारे एक मूंगफली वाले बहंगी में मूंगफली रखे सड़क पर बैठे मूंगफली बेच रहे थे। मूंगफली ली। 25 रुपये की सौ ग्राम। छिली हुई 35 की सौ ग्राम। मतलब 100 ग्राम मूंगफली छीलने के दस रुपये। मतलब अगर कोई दस किलो मूंगफली छील ले तो हजार रुपये का काम हो गया।
रोजगार के अवसर हर जगह हैं। कोई करे तो सही।
मूंगफली वाले रामनाथ जी ने बताया कि फैजाबाद के रहने वाले हैं। खुद मूंगफली लाते हैं। अपने सामने भुजंवाते हैं। एक भी खराब मूंगफली नहीं रखते। शाम 4 से रात 10 तक बेंचते है मूंगफली। बाकी दिन तैयारी, खाना-पीना।
"जब मूंगफली का सीजन नहीं होता तो क्या करते हैं? " पूछने पर बोले -"वापस गांव चले जाते हैं। फिर सीजन पर आते हैं।"
"मेट्रो के चलते सड़क बन्द हो गयी तो बहुत नुकसान हुआ। पहले लोग किलो-किलो लेकर जाते थे। बंधे ग्राहक थे। सड़क बन्द होने से बिक्री पर बहुत असर हुआ।"यह बात एकदम निर्लिप्त भाव से कही रामनाथ जी ने।
मूंगफली लेकर हम वापस चल दिये। आधी रास्ते में निपटा दी। बाकी घर में। एक भी मूंगफली खराब नहीं निकली। हर दाना गबरू, जवान। 'नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना' घराने के दाने। अगले दिन फिर गए। फिर ली मूंगफली। अभी खत्म नहीं हुई हैं। आइए खिलाये।
कोई इंसान फैजाबाद से कानपुर मूंगफली बेंचने आता है। मूँगफली का सीजन खत्म होने पर वापस फैजाबाद चला जाता है। न जाने कितनी यादें होंगी रामनाथ और उनके जैसे लोगों की। हर इंसान अपने में एक महाआख्यान होता है।
लौटते में देखा तो हलाकुली वाली रसोई बढ़ चुकी थी। लोग खा-पीकर जा चुके थे। बाबा जी अलबत्ता एक कुर्सी पर बैठे चौकीदारी कर रहे थे। एक कुत्ता उनके सामने बैठा कुछ खा रहा था।
'ये कुत्ते आपके प्रति बहुत प्रेम रखते हैं। मोहब्बत करते हैं।' हमने कहा।
बोले -"सब मोहब्बत कौरे की है। हमसे खाने-पीने को मिलता है तो आ जाते हैं बेचारे।" कहते हुए बैठने के लिए कुर्सी ऑफर की। कुत्ते को थोड़ा दुलराया भी।
लेकिन हम बैठे नहीं। देर हो गयी थी। घर आ गए।

https://www.facebook.com/share/p/Fchssgg5KmSoDrp1/

No comments:

Post a Comment