आज सुबह अमेरिका की हवाई नियंत्रण व्यवस्था बैठ गयी। हवाई अड्डे और पायलट के बीच सम्पर्क स्थापित करने वाली व्यवस्था में गड़बड़ी के कारण हज़ारों उड़ाने लेट (8000 के क़रीब) हो गयीं, निरस्त (1000 के क़रीब) हो गयीं। हज़ारों यात्री हवाई अड्डों पर फँसे रहे ।
दोपहर तक हवाई नियंत्रण व्यवस्था सुधार गयी। उड़ाने शुरू हो गयीं। हवाई जहाज हमारे ऊपर से उड़ते दिखाई दे रहे हैं।
हमको लगा कि कहीं कोई इस लफड़े का ठीकरा हमारे ऊपर न फोड़ दे। कोई कहे -'जब से आया है बिजली गुल हो गयी, इंटरनेट ठप हो गया अब ये हवाई नियंत्रण व्यवस्था भी बैठ गयी।'
संयोग से परसों हम गए थे सैनफ्रांसिसको हवाई अड्डे। दीदी को भेजने। दीदी अपनी बिटिया के पास एरिज़ोना गयीं थीं। उनको बैठाने गए थे एयरपोर्ट।
घर से एयरपोर्ट 9.5 मील मतलब 15.29 किलोमीटर दूर है। 14 मिनट का रास्ता। टैक्सी बुक की। संदेश आया -लोरेना (Lorena) आ रही हैं ड्राइवर के रूप में। गाड़ी टोयोटा पायरस V । ड्राइवर और गाड़ी का फ़ोटो भी मेसेज में आ गया। थोड़ी देर में संदेश आया - 3 मिनट में आ रही है गाड़ी। तीन मिनट होते-होते आ भी गयी गाड़ी।
गाड़ी आई। नाम पूछकर बैठा लिया लोरेना ने गाड़ी में और चल दी एयरपोर्ट की तरफ़। एयरपोर्ट पहुँचकर उतार दिया। 14 मिनट की यात्रा में गुडमार्निंग और धन्यवाद का ही आदान-प्रदान हुआ।
गाड़ी चलाने वाली लोरेना नौजवान ड्राइवर थी। शायद कहीं पढ़ाई भी करती हो या कुछ और। पूछा नहीं।
यहाँ महिलाओं का टैक्सी चलाना आम बात है। पिछले पंद्रह दिनों में अधिकतर टैक्सी ड्राइवर महिलाएँ ही मिली। पुरुष ड्राइवरों से बातचीत भी हुई लेकिन महिला ड्राइवरों से बातचीत का खाता नहीं खुला। शायद इसलिए कि उनके साथ यात्रा कम दूरी की रही। शुरू होते ही ख़त्म हो गयी।
एयरपोर्ट पर चेक इन तक हम भी गए। भारत में एयरपोर्ट पर दरवाज़े के अंदर नहीं घुसने देते। यहाँ अंदर जहां बोर्डिंग पास बनते हैं वहाँ तक यात्री के साथ जा सकते हैं। चले गए।
बोर्डिंग पास भी खुद निकालने की व्यवस्था थी। प्रिंटर पर क्यू आर कोड दिखाकर प्रिंट करना था बोर्डिंग पास। हमने दिया मोबाइल प्रिंटर पर। बार-बार कोशिश करने के बाद भी पास नहीं निकला। हमको कोशिश करते और असफल होते देख पास खड़ी एयरलाइन की महिला सहायक वहाँ आई और परेशानी का कारण पूछा। हमने बताया कि बोर्डिंग पास नहीं नहीं निकल रहा। महिला सहायक ने हमारा मोबाइल लेकर पलट कर रखा स्कैनर पर। बोर्डिंग पास प्रिंटर से सरकता हुआ बाहर आ गया। हम मोबाइल उल्टा लगा रहे थे।
बोर्डिंग पास लेकर कुली सेवा के लिए खोजा। बग़ल में ही कुली मौजूद थे। दीदी को लेकर अंदर चले गए। पंद्रह-बीस मिनट में वो वहाँ पहुँच गयीं जहां से उनको हवाई जहाज़ में बोर्ड करना था। सब काम में कुल मिलाकर आधा घंटा लगा होगा।
हमारा एयरपोर्ट पर आने का मक़सद पूरा हो गया था। अब हमें वापस लौटना था। लौटने के पहले सोचा थोड़ा एयरपोर्ट टहल लिया जाए। थोड़ी देर टहले भी। बड़े से बोर्ड पर उड़ानों के विवरण लगे थे। कई एयरलाइन के बड़े -बड़े काउंटर थे। लेकिन उनमें भीड़ जैसी नहीं थी। लोग अपने-आप बोर्डिंग पास निकाल कर अंदर जा रहे थे।
टहलते हुए हमको एटीएम दिखा। हमने सोचा देख लें कि अपना एटीएम यहाँ काम करता है क़ि नहीं। बैंक में तो बताया गया था कि काम करेगा। हमने बीस डालर निकालने के लिए एटीएम को अर्ज़ी लगाई। एटीएम ने पूछा भी कि दस डालर के दो नोट लोगे कि बीस डालर का एक। हमने बताया -‘दस डालर के दो नोट दे दो।’
आगे बढ़ने पर एटीएम महोदय बोले -‘पैसा निकालने की फ़ीस लगेगी 3 डालर। 3 डालर मतलब लगभग 250 रुपए। पहले मन किया मना कर दें कि हमें नहीं चाहिए। लेकिन फिर सोचा अनुभव लिया जाए कि निकलता है पैसा कि नहीं। आगे बढ़ने के लिए आदेश दिया।
लेकिन एटीएम ने पैसा नहीं निकाला। थोड़ा घूमकर खड़ा हो गया और बता दिया कि पैसा नहीं निकल सकता। देश में होते तो बैंक मैनेजर को फोनियाते। अब यहाँ से क्या कहें? आगे बढ़ गए। सोचा लौटा जाए।
लौटने के लिए पहले हमने सोचा कि पैदल चला जाए। लेकिन मौसम बारिश के प्रभाव में था। बूँदा-बांदी हो रुकते-रुकते हो रही थी। दूसरी रास्ता टैक्सी का था जैसे आए थे। तीसरा रास्ता लोकल ट्रेन का था जिसमें कुल चार-पाँच डालर में घर तक पहुँचने का विवरण था। आने में टैक्सी में 27.79 डालर (2268.55 रुपए) लगे थे।
ट्रेन जहां से जाती है वहाँ तक पहुँचने का रास्ता हमने काउंटर पर पूछा। बुजुर्ग थे वहाँ। नहीं बता पाए। एक से और पूछा उसको भी नहीं पता था। हमने फिर नोटिस बोर्ड, मैप और इधर-उधर खोजकर रास्ता खोजा। पता चला गेट G के आगे से मिलेगी ट्रेन। वहाँ तक जाने के लिए एयरपोर्ट की शटल सेवा हाज़िर थी।
समय हमारे पास इफ़रात था इसलिए हमको घूमने-भटकने में संकोच नहीं हुआ। अलबत्ता जब ज़्यादा भटकने लगे तो यह डर लगने लगा कि कहीं किसी अनधिकृत जगह पर न पहुँच जाएँ जहां जाना वर्जित हो। पकड़ जाने पर लेने के देने पड़ जाएँ।
एयरपोर्ट शटल सेवा का उपयोग करके हम गेट G तक पहुँचे। वहाँ से ट्रेन के स्टेशन पर। ट्रेन के स्टेशन पर टिकट खुद निकालना था। हमने सोचा घर तक का टिकट लेंगे लेकिन विकल्प में स्टेशन नहीं था। डालर के टिकट मिल रहे थे। नेट के हिसाब से 4.85 डालर का टिकट था। हमने छह डालर का टिकट निकाला। वहाँ भी अपना कार्ड काम नहीं किया तो बेटे का क्रेडिट कार्ड लगाया। छह डालर का टिकट का टिकट बाहर आते ही बेटे का फ़ोन आ गया (उसको मेसेज गया होगा कि ट्रेन टिकट ख़रीदा गया है) -‘आप ट्रेन से क्यों आ रहे ? परेशान हो जाएँगे।’
हमने कहा -‘अरे कोई नहीं, ज़रा अनुभव लेते हैं। आ जाएँगे। चिंता न करो।’
टिकट लेकर हम आगे बढ़े। स्टेशन के अंदर जाने के लिए टिकट घुसाया। गेट खुला नहीं। फिर कोशिश की फिर नहीं खुला। पता चला टिकट उल्टा घुसा रहे थे। पलट के टिकट घुसाया। गेट स्वागत मुद्रा में खुल गया। हम अंदर गए। सहायक से पूछा गाड़ी के बारे में। उसने बताया नीचे जाओ वहाँ ट्रेन मिलेंगी। उसकी बात दो बार में समझ पाए हम। दो बार में इसलिए कि कुछ उसको हमारी अंग्रेज़ी नहीं समझ नहीं आई कुछ हमको उसकी। बहरहाल, अंग्रेज़ी भले न समझ में आई हो लेकिन दो बार में बात समझ में आ गयी।
नीचे गए तो फिर एक से पूछा इस जगह के लिए ट्रेन कहाँ से मिलेगी। उसने जो बताया उसके हिसाब से हम ग़लत जगह पर आ गए थे। हम फिर वापस पहुँचे सहायक के पास। एक बार फिर अंग्रेज़ी का आदान-प्रदान हुआ। इस बार उसने धीमे थोड़ा सख़्त अंग्रेज़ी में कहा -‘ तीसरी बार पूछ रहे हो। मैं बता चुकी हूँ कि गाड़ी नीचे मिलेगी।’
हम सहमते हुए फिर नीचे आए। कई लोगों से पूछा लेकिन किसी को पता ही नहीं था। सब कह रहे थे -‘हमको नहीं पता। हम खुद नए हैं।’
इसकी तुलना अपने यहाँ दिल्ली, मुंबई की मेट्रो से करके देखें तो वहाँ हर अगला आदमी आपको आपके लिए रास्ता और ट्रेन बताने के लिए तैयार मिलेगा। यहाँ हर इंसान एप और मैप भरोसे है।न समझ में आया तो भटकते रहो।
आख़िर में हम एक ट्रेन में बैठ ही गए। सोचा जो होगा देखा जाएगा। ट्रेन के अंदर यात्री के नाम पर एक-दो लोग थे। उनसे पूछा तो उनको भी पता नहीं था। ट्रेन एकदम ख़ाली। इससे अच्छा तो उठाकर इसको दिल्ली में चला दिया जाए। आमदनी ही होगी कुछ न कुछ।
थोड़ी देर में हमने गाड़ी में मौजूद नक़्शा देखा। उसमें कहीं उस स्टेशन का नाम नहीं था जहां हमको जाना था। हम घबरा के उतर गए। हमको डर लगा कि कहीं ऐसा न हो कि दूसरी रूट पर चले जाएँ जिसका किराया छह डालर से ज़्यादा हो और कोई आकर जुर्माना ठोंक दे। लेकिन उतरने के बाद सोचा कि ऐसे कब तक इंतज़ार करते रहेंगे। हम फिर चढ़ गए ट्रेन में। इस बार हमारे चढ़ते ही चल दी।
हम रास्ते के नज़ारे देखते हुए सहमे से बैठे रहे ट्रेन में। थोड़ी देर में स्टेशन आया मिलब्रे (Millbrae)। हम वहीं उतर लिए। बाहर निकले। स्टेशन पर मौजूद महिला सहायक से पूछा -‘फ़ास्टर सिटी के लिए ट्रेन कहाँ से मिलेगी?’
उसने हमारा टिकट देखा। बताया कि प्लेटफ़ार्म नम्बर पाँच पर जाओ। दूसरा टिकट ख़रीदो। वहाँ दूसरी कम्पनी की टिकट मिलेगी। उससे आगे जाना होगा।
यह अहसास हुआ कि यहाँ अलग-अलग ट्रेन सेवाएँ हैं। एक का टिकट दूसरे में काम नहीं करेगा। यहाँ ट्रेन से वही चल सकता है तो रोज़ चलता रहा हो। ट्रेन यात्रा विवरण में भी ऐसा कुछ लिखा था -इस स्टेशन से उस स्टेशन जाओ, 170 मीटर पैदल चलो, अगली स्टेशन फिर वहाँ से 600 मीटर पैदल चलकर ठीहे पर पहुँचो। लेकिन नक़्शा जितना सरल था रास्ता उससे उलट कठिन था।
हमें लगता है कि अमेरिका एक कार प्रधान और जहाज़ प्रधान देश है। ट्रेन जैसे सार्वजनिक यात्रा के साधन यहाँ उतने चलन में नहीं हैं। कार बनाने वाले चाहते भी नहीं होंगे कि सार्वजनिक यात्रा के साधन प्रचलन में आएँ। नीतियाँ और व्यवस्थाएँ भी उसी हिसाब से बनती होंगी।
हमको समझ नहीं आया कि जब हम एक टिकट ख़रीद चुके हैं तो दूसरी क्यों ख़रीदें। उसने बहुत धैर्य से हमको कई बार समझाया। हमको यही समझ में आया कि घर पहुँचने के लिए सबसे उचित तरीक़ा यही है कि यहाँ ट्रेन छोड़ दी जाए और टैक्सी पकड़ कर घर चला जाए।
हम ट्रेन यात्रा का लालच त्यागकर स्टेशन से बाहर आ गए। वैसे भी एक स्टेशन तक की यात्रा का अनुभव ले ही चुके थे। स्टेशन से बाहर आकर हम टैक्सी लेने के एप में दाम के तुलनात्मक अध्ययन में लग गए।
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