आज सुबह टहलने निकले। घर के बाहर ही एक पेड़ के पास गिलहरी फुदकती हुई दिखी। इधर-उधर फुदकने पर उसकी हिलती पूंछ देखकर किसी बच्ची की हिलती-डुलती चुटिया का ध्यान आया। गिलहरी हमसे बेपरवाह फुदकने में जुटी रही।
पुल से कालोनी के गेट पर होली की शुभकामनाओं के बैनर फड़फड़ा रहे थे। कालोनी के नाम का बोर्ड अलबत्ता बीच से पूरा खाली था। टें बोल चुके एक किनारे पर बस ' टै' चिपका हुआ था। इससे अंदाज लगा कि कालोनी शायद टैगोर जी के नाम पर है।
पुल के नीचे ट्रेन गुजर रही थी। ट्रेन की सवारियां डब्बों की रेलिंग पकड़े बाहर झांक रही थी । ट्रेन के गुजर जाने पर पटरियां तसल्ली से धूप सेंकने लगीं। पटरियों के चेहरे पर पड़ती धूप फेशियल क्रीम की तरह उनका चेहरा चमका रही थी। क्या पता आपस में बतियाते हुए वे पूछ भी रहीं हो -'बता तो कैसी लग रही हूँ? देख कहीं क्रीम ज्यादा तो नहीं लग गयी? '
पुल के नीचे गन्ने के रस वाला अपना ठेला सजा रहा था। पुल के मुहाने पर किसी सत्संग का बड़ा होर्डिग लगा था। सबसे पहले किसी रसिक जी महाराज का फ़ोटो लगा था। इससे अंदाज़ लगा कि आजकल सत्संग में रसिकता बढ़ती जा रही है। साधु जी की जगह रसिक जी महाराज ने ले ली है।
होर्डिंग के बीचोबीच किसी जनप्रतिनिधि का बैनर फटे लंगोट सा लटक रहा था। शायद सत्संग का होर्डिंग लगाने वालों ने बैनर फाड़ दिया हो ताकि रसिक जी महाराज का बोर्ड साफ दिखे। हवाओ का भी सहयोग रहा होगा उनके इस काम में।
पुल पर रेलगाड़ी गुजर रही थी। पूरी पुल की लंबाई बराबर लंबी है ट्रेन। ट्रेन आधी गुजरी थी पुल से कि उधर से दूसरी ट्रेन आती दिखी। जैसे एक ट्रेन की पूंछ से दूसरी ट्रेन की मुंडी निकल रही है। ट्रेन के गुजर जाने पर हमने वीडियो देखना चाहा लेकिन मोबाइल से वीडियो नदारद था। पता चला कि हमने वीडियो वाला बटन दबाया ही नहीं था। सिर्फ फोटो आया ट्रेन का। सारा दृश्य जेहन में सुरक्षित है। वह भी धीरे-धीरे गायब होता जाएगा। दिमाग की भी तो मेमोरी की सीमा होती है।
पुल पर से लोग आते-जाते दिख रहे थे। पैदल, साइकिल, टेम्पो, खड़खड़ा, कार सब एकसाथ चल रहे थे। सहअस्तित्व का भाव।
पुल पर एक लड़का पोज देकर फोटो खिंचवाने में जुटा था। होली का रंग पूरे चेहरे पर लगा था। फोटो खींचने वाली लड़की का चेहरा साफ था। हमने बगल से गुजरते हुए मजे लिए -'तुम्हारा रंग नहीं उतरा। बच्ची का उतर गया।' उसने हंसते हुए कहा -'इसने धो डाला रंग। हमने नहीं धोया।'
पुल के नीचे नदी बह रही थी। आहिस्ते-आहिस्ते। दुबली हो गई थी नदी। पहले जहां पानी था वहां अब बालू दिख रही थी। बालू देखकर लगा नदी की हड्डियां निकल आई हैं। नदी 'जल-दुर्बल' हो गयी है।
दूसरी तरफ सूरज का प्रतिबिम्ब नदी में दिख रहा था। मानो नदी के पानी में सूरज भाई अपना चेहरा दिख रहे हों। ऊपर अपना काम करते हुए भी चेहरा देखने का शौक है मानो सूरज भाई का।
नदी घाट से दूर हो गई थी। नाव घाट से पच्चीस-तीस मीटर दूर लगी थीं। गर्मी बढ़ते हुए और दूर होंगी नाव घाट से।
लौटते हुए पुल पर से गुज़रते ई-रिक्शा में गाना बज रहा था:
हमको किसी का डर नहीं,
कोई जोर जवानी पर नहीं।
हमको गाना सुनकर डर लगा। आजकल यह कहना बड़ा बावलिया काम है कि हम किसी से डरते नहीं। आजकल डर लगे न लगे लेकिन डरने का नाटक करना जरूरी है। लगता है हमारे डर को ई-रिक्शा वाले ने सुन लिया। आगे बोल सुनाई दिए -'धीरे-धीरे बोल कोई सुन न ले।'
पुल पर से वापस लौटते हुए साइकिल सवार साइकिल से उतरकर पुल चढ़ते दिखे। दो महिलाएं लपककर बगल से गुजरते दिखीं। शायद काम पर जा रहीं थीं।
घर के पास सड़क पर एक पिल्ला अपनी पिछली टांग से कान खुजाता दिखा। हमारे देखते-देखते उसकी टांग की गति तेज हो गयी। पिस्टन की तरह टांग तेजी से हिलाते हुए वह कान खुजाता रहा। कान खुजाकर वह आराम से टहलता हुआ चल दिया।
हमने कुत्ते के कान खुजाने का वीडियो बनाया था। लेकिन देखने लगे तो पता चला कि फोटो ही लिया था। एक दिन में ऐसा दूसरी बार हुआ कि वीडियो की जगह फोटो ले ली। दो मजेदार सीन रिकार्ड होने से बच गए।
हम टहलते हुए घर वापस आ गए।
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