Tuesday, August 13, 2024

इंसानियत पर भरोसा दिलाती बातें



क़िस्सा 1986 का है। क़रीब 38 साल पुराना। हम बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। एमटेक कर रहे थे। हम सभी साथियों को स्कालरशिप मिलती थी। मिलने वाली सकालरशिप इतनी होती थी कि हमारा खर्च बहुत आराम से चल जाता। कुछ बचा भी लेते। घर से पैसे मंगाने बंद हो गए थे।
एक बार ऐसा हुआ कि वज़ीफ़ा मिलने में देरी हुई। हम इंतज़ार करते रहे लेकिन वज़ीफ़ा हमारे खाते में आया नहीं। लोगों के पास जमा पैसा ख़त्म होने लगा। बात उधारी तक पहुँच गयी। लेकिन उधारी कौन देता? सभी साथियों के हाल क़रीब एक जैसे ही हो गए थे।
एक दिन हम लोग एक बार फिर आफिस में स्कालरशिप के बारे में पता करने गए। आफिस का क्लर्क जी शायद हमारी अक्सर होने वाली पूछताछ से बोर गये थे । हमने पूछा तो फिर उकताई आवाज़ में बोले -'आ जाएगा पैसा। जब आएगा तब बता देंगे।'
हम लोगों ने पूछा -'कब तक आएगा पैसा? देर क्यों हो रही है ?'
क्लर्क जी हमारे तक़ादे से शायद झल्ला गए थे। झल्लाहट में बोले-' हम तुम्हारे नौकर नहीं हैं जो तुम्हारी हर बात का जबाब दें।'
यह सुनकर हमारे साथ के यादव जी तमतमा गए। तेज आवाज़ में बोले -' सुनो बाबू जी। तुम हमारे नौकर हो। केवल तुम ही नहीं, सामने बैठे HOD भी हमारे नौकर हैं।'
क्लर्क जी थोड़ा सकपका कर यादव जी की तरफ़ देखने लगे। उनको आशा नहीं थी कि कोई छात्र उनको इस तरह जवाब देगा।
यादव जी ने अपनी बात को समझाते हुए और भी तेज आवाज़ में कहा -' हम यहाँ इस लिए नहीं पढ़ने आते हैं कि तुम लोग यहाँ नौकरी करते हो। बल्कि तुम लोगों को यहाँ इसलिए नौकरी मिली है क्योंकि हम यहाँ पढ़ने आते हैं।'
इसके बाद हम लोग वापस चले आए। यादव जी की ऊँची आवाज़ शायद सामने कमरे में बैठे HOD तक भी पहुँची होगी। जो भी रहा हो , हम लोगों की स्कालरशिप अगले दिन हमारे खाते में आ गयी।
38 साल पहले की यह घटना हमारे दिमाग़ में हमेशा के दिए दर्ज हो गयी।अपने सेवाकाल में अक्सर मैं यह बात अपने साथियों के साथ साझा करता रहा। सेवा के किसी भी मौक़े पर यह याद करता और तदनुसार आचरण का प्रयास करता रहा। सफल होना, असफल रहना अलग बात है लेकिन अपने साथी की कही यह बात हमेशा याद रही।
हमारे साथी यादव जी कोई बड़े विद्वान या तर्क शास्त्री नहीं थे। सामान्य बुद्धि के छात्र थे। उनकी बाद की ज़िंदगी का मुझे पता नहीं लेकिन उनकी कही एक बात मुझे जीवन भर याद रही।

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आज अनायास यह बात याद आई। तमाम लोगों को जो सेवा के मौक़े मिलते हैं वो उसको अपनी ऐंठ में गँवा देते हैं। अपनी ऐंठ को सही ठहराने के अनेक बहाने भी खोज लेते हैं। भाषा बहुत बड़ा हथियार होती है अपनी ग़लतियाँ छिपाने के लिए। लोग नरसंहार को भी सही ठहरा लेते हैं।
बड़ी बातें आमतौर पर सामान्य लोगों के बीच से ही आती हैं और नज़ीर बनाती हैं। हाल ही में भाला फेंक प्रतियोगिता में जीते खिलाड़ियों की माताओं ने दूसरों के बेटों के लिए सहज रूप में कहा -'वो भी हमारा ही बेटा है। उसके लिए दुआ करती हूँ।'
आज जबकि दुनिया बहुत तेज़ी से चालाक, क्रूर, संहारक और विनाशक होती जा रही है ऐसे समय ऐसी भली लगने वाली मासूम बातें इंसानियत पर भरोसा दिलाती हैं।

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