Wednesday, August 14, 2024

जनता से कटे हुए शासकों का पतन अवश्यम्भावी होता है



[जब संस्थान खोखले और लोग चापलूस हो जायें तो जनतंत्र धीरे-धीरे डिक्टेटरशिप को रास्ता देता जाता है। फिर कोई डिक्टेटर देश को कुपित आंखों से देखने लगता है। तीसरी दुनिया के किसी भी देश के हालात पर दृष्टिपात कीजिये। डिक्टेटर स्वयं नहीं आता, लाया और बुलाया जाता है और जब आ जाता है तो प्रलय उसके साथ-साथ आती है।- खोया पानी]
पिछले दिनों बांगलादेश में सत्ता परिवर्तन हुआ। आंदोलनकारियों ने हसीना शेख़ की चुनी हुई सरकार को नकारकर उनको देश से भागने के लिए मजबूर कर दिया। देश में अराजकता की स्थिति पैदा हुई। अल्पसंख्यको पर अत्याचार होने लगे। उनके घर, सम्पत्तियों को नुक़सान पहुँचाया गया।
आंदोलनकारी छात्रों ने नोबल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार का मुखिया बनाया। 84 वर्षीय मोहम्मद यूनुस ने अल्पसंख्यकों पर हिंसा रोकने की अपील की। यह भी कहा -'अगर अल्पसंख्यकों पर हिंसा न रुकी तो वे देश छोड़ देंगे।' बांगलादेश से आए समाचारों के अनुसार वहाँ हिंसा में कमी आई है। हिंसा रुकी है। बांगलादेश के एक समाचार पत्र के सम्पादक के अनुसार वहाँ के कट्टरपंथी संगठन ने भी हिंसा रोकने और अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों और सम्पत्तियों की रक्षा करना शुरू किया है।
मोहम्मद यूनुस ढाका के प्रसिद्ध मंदिर जाकर स्थितियों को सामान्य करने का प्रयास किया है। आज बीबीसी के एक वीडियो में दिखा कि ढाका शहर में हालात सामान्य हो रहे हैं। छात्र टैफ़िक पुलिस का काम कर रहे हैं। दूर-दराज के इलाक़ों में भी ऐसा ही हो रहा होगा। सम्भव है दूर के हिस्सों में हिंसा का प्रसार ही न हुआ।
बांगलादेश में पिछले पंद्रह वर्षों से शेख़ हसीना का शासन था। उनके कार्यकाल में बांगलादेश ने आर्थिक तरक़्क़ी के नए आयाम छुए थे। भारत-बांगलादेश सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। तमाम समस्यायों का निपटारा हुआ था। बांगलादेश में शेख़ हसीना की सरकार का अपदस्थ होना भारत के लिए एक मित्र देश की सरकार का अपदस्थ होना है।
बांगलादेश में सत्ता परिवर्तन के पहले तक वहाँ की कोई नकारात्मक खबर समाचारों में नहीं थी। सत्ता परिवर्तन होने के बाद तमाम पुरानी कहानियाँ सामने आने लगीं। शेख़ हसीना की सत्ता पर पकड़। उनके लोकतंत्र की आड़ में तानाशाह जैसे रवैए की कहानियाँ सामने आयीं। जिसने भी उनका विरोध किया उसको जेल में डाल दिया। नोबल पुरस्कार विजेता मोह्म्मद यूनुस भी जेल जा चुके थे। उनकी विरोधी ख़ालिद जिया कई वर्षों से जेल में थीं।
शेख़ हसीना के ख़िलाफ़ आंदोलन 2018 से शुरू हुआ था। आरक्षण को लेकर शुरू हुआ आंदोलन अदालत के फ़ैसले के बाद समाप्त हो जाना चाहिए था। लेकिन लोगों के ग़ुस्से के कारण शायद और भी थे। सत्ता की हनक में शेख़ हसीना ने आंदोलनकारियों से बात करना भी गवारा नहीं किया। उनको 'रजाकार' (ग़द्दार) बताया। रजाकार इसलिए कि बांगलादेश के निर्माण के समय उन लोगों ने अवामी लीग का साथ देने के बजाय पाकिस्तान के साथ सहानुभूति प्रकट की थी। उसका साथ दिया था।
आंदोलनकारियों को 'रजाकार' कहने ने पेट्रोल में स्पार्क का काम किया। लोग भड़क गए। लोग सड़क पर उमड़ पड़े। प्रधानमंत्री आवास घेर लिया गया। शेख़ हसीना को बांगलादेश छोड़कर भागना पड़ा।
आंदोलन कारियों को ग़द्दार कहना उसी तरह से है जैसे अपने देश की आज़ादी के आंदोलन में अंग्रेजो का साथ देने वालों को आज ग़द्दार कहना।
लोगों ने इस सत्ता परिवर्तन की अपने-अपने हिसाब से व्याख्या की। सत्ता परिवर्तन में अमेरिका/चीन /पाकिस्तान का हाथ बताया। हाथ किसी का रहा हो लेकिन यह साफ़ है कि बांगलादेश की जनता का बड़ा हिस्सा उनके ख़िलाफ़ हो गया था। जिस अवामी लीग के वोटों से चुनकर वे प्रधानमंत्री बनी थीं उन लोगों की भी हिम्मत नहीं हुई कि अपनी प्रधानमंत्री के बचाव में सड़क पर उतरें।
दुखद स्थिति यह है कि अब देश के सभी तरफ़ पड़ोसियों से हमारे देश के सम्बन्ध भरोसेमंद नहीं हैं। सभी पड़ोसी देशों की सरकारें या तो हमारे देश के साथ तनावपूर्ण संबंध हैं या वे हमारे दुश्मन देशों के प्रभाव में हैं। यह हमारी विदेश नीति की असफलता है। हम या तो पड़ोसी देशों के अच्छे सम्बन्ध बनाने में असफल रहे या उनको दूसरे देशों के प्रभाव में जाने से रोक नहीं पाए।
अपने प्रधानमंत्री जी के भक्त उनके सम्मान में क़सीदे काढ़ने वाले लोग कहते हैं -'वे हैं तो मुमकिन हैं।' यही मुमकिन हुआ कि हमारे सारे पड़ोसी देश हमारे ख़िलाफ़ हो गए। यह बड़ी सफलता है।
बांगलादेश में हालिया सत्ता परिवर्तन के मूल में लोकतंत्र के चुने हुए शासक का अलोकतांत्रिक होते हुए तानाशाह होते चले जाना रहा। शेख़ हसीना ने देश के हर संस्थान पर अपने पिट्ठू बैठाए हुए थे। वे उनके इशारे पर काम करते थे। उनकी मर्ज़ी के बिना उन संस्थानों में पत्ता हिलना तो दूर, शायद हवा भी नहीं चलती थी। न्यायालय, विश्वविद्यालय, पुलिस सब जगह वही होता था जो शेख़ हसीना चाहती थी। यह किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए घातक होता है।
लोकतांत्रिक देशों में लम्बे समय तक शासक रहने वाले को भ्रम हो जाता है कि देश का भला केवल वही कर सकता है। इस मामले में अमेरिकी व्यवस्था सही है कि कोई भी राष्ट्रपति अधिकतम दस साल तक (दो कार्यकाल लिखना था। अमेरिका के संदर्भ में आठ साल ) रह सकता है। हर लोकतांत्रिक देश में यह व्यवस्था लागू होनी चाहिए।
लोकतंत्र में जिन लोगों को सत्ता मिलती है वे इससे चिपके रहना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि आजकल सत्ता से जुड़े रहने पर बेशुमार सम्पत्ति सुनिश्चित होती है। जो लोग किसी सरकार को चुनने के लिए पैसा देते हैं वे चाहते हैं कि सरकार बनी रहे ताकि वे पैसा पीटते रहें। मुनाफ़ा कमाते रहें। सत्ता और पैसेवालों का आपराधिक गठजोड़ दिन पर दिन मज़बूत होता जाता है।
आशा है कि अपने देश के लोग बांगलादेश की समस्या से सबक़ लेंगें। सबसे बड़ा सबक़ यह की उनको जो सत्ता मिली है वो सेवा के लिए मिली है। कमाई या तानाशाही के लिए नहीं। जनता का भला किससे होना यह बात जनता से जुड़ने पर ही पता चलती है। जो लोग जनता से कट जाते हैं उनका पतन देर-सबेर अवश्यम्भावी होता है। बड़े से बड़े नेता को इतिहास समय के कूड़ेदान में फेंक देता है।

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