कल मेरे पास एक संदेश आया कि क्या आप कोई जाब खोज रहे हैं? हमने लिखा नहीं। फिर आफ़र आया कि अगर चाहें तो २०३ रुपए प्रतिदिन से शुरू करके और भी कमा सकते हैं। २०३ रुपया प्रतिदिन मतलब एक अकुशल श्रमिक की दिहाड़ी से का लगभग एक चौथाई। हमने फिर मना किया। उसने फिर कहा - ‘सोच लो। अभी काम लग रहा मामला लेकिन आगे और बढ़ेगा पैसा।’
इससे आगे बात नहीं की। हमको लगा कि और बात की तो आगे के मेसेज में कोई लिंक आएगा। उस पर क्लिक करके काम ज्वाइन करने को बताया जा जाएगा। जैसे ही क्लिक किया वैसे ही हमारा काम लग जाएगा। हमारे पैसे कहीं और चले जाएँगे।
हमने नंबर ब्लाक किया और दूसरे काम में लग गए।
लिंक करके करके पैसे लूटने का तरीक़ा तो पुराना है। ओटीपी पूछकर खाता ख़ाली करना भी चलन में हैं। इसके चलते आनलाइन सामान ख़रीदने में डर लगने लगा है। हाल ही में इनकम टैक्स रिफ़ंड के लिए लिंक क्लिक करा के पैसे लूटने के किस्से भी सुनने में आए हैं।
इधर एक और नया तरीक़ा पता चला- डिजिटल अरेस्ट।
डिजिटल अरेस्ट के तरीक़े से पिछले दिनों SGPGI, लखनऊ की एसोसिएट प्रोफेसर के साथ साइबर फ्रॉड हुआ और इनसे 2.81 करोड़ रुपये का स्कैम किया गया। उनके पास फ़ोन आया कि उनके खाते से ऐसे लेनदेन हुए हैं जो आपराधिक प्रवृत्ति के हैं। उनसे कहा गया कि उनके खाते की जाँच हो रही है। उनके खाते के सारे विवरण ले लिए गए। यह भी कहा गया कि वे इस बारे में किसी को बताएँ नहीं अन्यथा उनके विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी। वे झाँसे में आ गयीं और उनके खाते से 2.81 करोड़ रुपए निकाल लिए गए। उन्होंने बाद में पुलिस को रिपोर्ट करायी। उन्होंने जिस तरह घटना का बयान किया उससे लगा कि वे उन लोगों के सामने एक आज्ञाकारी बालक की तरह फ्रॉड करने वालों के आदेश का पालन करतीं गयीं। लुटती गयीं। (लिंक कमेंट बक्से में बमार्फ़त Vivek Rastogi)
इस घटना के कुछ दिन पहले लखनऊ के ही प्रसिद्ध कवि नरेश सक्सेना जी को डिजिटली अरेस्ट किया गया। लूटने की कोशिश करने वालों ने उनको भला इंसान बताया गया। उनसे उनकी कविताएँ भी सुनी गयीं। उनसे पैसे ट्रांसफ़र करने को कहा गया। लेकिन नरेश सक्सेना जी इस झाँसे में नहीं आए। पैसे नहीं ट्रांसफ़र किए। उनके घर वालों को पता लगा तो उन्होंने फ़ोन काट दिया और वे साइबर फ्रॉड से बच गए। पैसे बच गए। डिजिटल गिरफ़्तारी की कोशिश करने वालों का समय खोटा हुआ।
नरेश सक्सेना जी की डिजिटल अरेस्ट का क़िस्सा काफ़ी चर्चा में रहा था। अख़बारों में भी आया था। शायद पढ़ नहीं पाईं होंगी एसजीपीजीआई की प्रोफ़ेसर साहिबा। पढ़ती तो लूटने से बच जातीं। इससे यह भी पता चलता है कि पुलिस से कितना डर है अपने यहाँ लोगों में।
डिजिटल अरेस्ट आर्थिक लूट का नया तरीक़ा है। किसी को डरा-धमका कर उससे पैसे लूट लिया। यह भी तभी सम्भव है जब पैसे ट्रांसफ़र करना आनलाइन सम्भव हो। पलक झपकते पैसे ट्रांसफ़र करना आसान हुआ तो एक झटके में पैसे लूट लिया जाना भी आसान हुआ। इस मामले में तकनीक कोई पक्षपात नहीं करती। लुटने वाले को और लूटने वाले को एक सी सुगमता प्रदान करती है।
डिजिटल अरेस्ट के इस तरीक़े में पैसे के नुक़सान तो पता चल जाता है। पैसे की लूट तो बचाई जा सकती है सावधान रहकर। लेकिन एक और तरह की डिजिटल अरेस्ट में हम फँसे हुए हैं। दिन रात जब मौक़ा मिले तब हम मोबाइल इंटरनेट की दुनिया में टहलते रहते हैं। मौक़ा न मिले तो भी निकाला जाता है। स्वयं डिजिटल गिरफ़्तारी के लिए खुद को पेश करते रहते हैं। बिना हथकड़ी के खुली जेल में अपनी डिजिटल गिरफ़्तारी देते हैं। कोई ज़मानत दिलाने की कोशिश करता है तो वह दुश्मन लगता है।
इस डिजिटल अरेस्ट के तमाम स्वरूप हैं। कोई सोशल मीडिया में लगा है, कोई रील बना रहा है, कोई सिनेमा देख रहा है, कोई बतिया रहा है, किसी को यूट्यूब की लत लगी है, कोई ब्रेकिंग न्यूज़ देखने में जुटा है। तमाम डिजिटल कुली अपनी-अपनी पार्टियों के समर्थन में और विरोधी पार्टी के ख़िलाफ़ पिले पड़े रहते हैं पोस्ट लिखने में, मेसेजिंग में। देश के देश इस डिजिटल ग़ुलामी में जुटे हुए हैं।
हमको लगता है कि पूरी दुनिया आज इंटरनेट में सिमट गयी है। वैसे तो इंटरनेट की दुनिया को आभासी दुनिया कहा जाता है। लेकिन आज के समय में यही रियल होती जा रही है। दुनिया में कहीं कुछ हो रहा है उसका होने का मतलब तभी है जब वह इंटरनेट पर भी अपनी हाज़िरी बजाए। इंटरनेट महाभारत की तरह हो गया है। जो दुनिया में है वह यहाँ भी है। जो यहाँ नहीं है वह समझ लिया जाए कि दुनिया में नहीं है।
लोग इंटरनेट के इतने आदी हो गए हैं कि बिना नेट के बेचैन होने लगते हैं। और कुछ आए न आए नेटवर्क आना चाहिए। कहीं पहुँचने पर सबसे पहले पूछे जाने वाले सवालों में ‘वाईफ़ाई का पासवर्ड’ होता है।
जिन लोगों को काम नहीं मिल रहा वे नेट पर जुटे हैं। सरकार के समर्थन या विरोध में नारे लगा रहा हैं। ‘समय बिताने के लिए करना है कुछ काम/शुरू करो नेटबाज़ी लेकर नेता जी का नाम’। घर में नहीं आटा माँग रहे हैं डाटा वाले हाल बने हुए हैं।
इंटरनेट की अधिकतर सेवा प्रदाता कम्पनियाँ अमेरिका में हैं। पूरी दुनिया को ये कम्पनियाँ अपनी गिरफ़्त में लिए हुए हैं। पूरी दुनिया को ‘डिजिटली अरेस्ट’ किए हैं। अपन को भी इस गिरफ़्तारी में मज़ा आ रहा है। डिजिटल ग़ुलामी का में जब मज़ा रहा तो इससे छुटकारे की कौन सोचे? डिजिटल दुनिया जग़र-मगर की दुनिया है। इसके चुंगल से बचना आसान नहीं।
यह तो हमारा सोचना हुआ। आप क्या सोचते हैं इस बारे में?
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