Thursday, September 19, 2024

सड़क पर गाय , सांड, कुत्ता और आदमी



 
कल शाम को टहलने निकले। जगह-जगह गायें खड़ी दिखीं। कहीं-कहीं सांड भी दिखे। सभी सांड निस्तेज दिखे। चुपचाप खड़े। उदास । ऐसे जैसे किसी लोकतांत्रिक देश के पढ़े-लिखे , बेरोज़गार युवा। बिना किसी से बात किए वे अकेले खड़े थे। समय और सांड एक दूसरे को काट रहे थे।
आगे गली में एक कुत्ता पीछे लग लिया। हमें लगा कहीं काट न ले। हमने झूठमूठ में हाथ में पत्थर होने का नाटक करते हुए कुत्ते की तरफ़ फेंक कर मारने का इशारा किया। कुत्ता मेरे हाथ में पत्थर होने के झाँसे की इज्जत करते हुए थोड़ा पीछे हट गया। हम आगे बढ़ गए। कुत्ता फिर पीछे आया। हमने फिर उसको पत्थर मारने का इशारा किया। वह फिर पीछे हुआ। ऐसा कुछ देर चला। थोड़ी देर में उसने अपने साथियों को बुला लिया। अब तीन-चार कुत्ते पीछे लग गए। हमने इस बार तेज पत्थर मारने के इशारा किया। कुत्ते फिर पीछे हो गए। थोड़ी देर में कुत्ते बोर हो गए और वे मुड़ कर इधर-उधर हो गए।
चौराहे पर कुछ गाएँ बैठी हुई जुगाली कर रही थीं। गायों के बीच अभी तक मोबाइल का चलन नहीं हुआ है लिहाज़ा वे एक-दूसरे की तरफ़ मुँह लिए एक -दूसरे को देखते हुए आँख मूँदे गुफ़्तगू कर रहीं थी।
आगे एक दिव्यांग कुत्ता तीन टांगों पर उचकता हुआ आता दिखा। उसकी एक टांग शायद किसी हादसे में चोटिल हो गयी थे। चोटिल टांग को ज़मीन के ऊपर उचकाए हुए कुत्ता दौड़ने की कोशिश करता तीन पैरों पर चला आ रहा था। उसे देखकर ऐसा लगा कोई लोकतंत्र , जिसका एक खंभा चोटिल हो गया है, उचकता हुआ चला आ रहा था। चोटिल टांग मानों किसी लोकतंत्र का मीडिया। जो हो भले लस्टम-पस्टम लेकिन हरकतें हवा-हवाई। उसकी कमजोरी के कारण बाक़ी तीन खम्भे भी ग़रीबी रेखा से नीचे टाइप लगें।
सड़क पर एक आदमी अंधेरे में सड़क की तरफ़ पीठ किए बरसात से गीली ज़मीन को और गीली कर रहा था। हमको वहाँ से गुजरते देख हमारी तरफ़ पीठ किए -किए बोला -'इतना धीमे टहलने से कुछ नहीं होगा।' हमें लगा हमारा कोई परिचित है। लेकिन ऐसा था नहीं। हम बिना कुछ बोले आगे बढ़ गए।
कुछ देर में पीछे मोटरसाइकिल से शायद वही आदमी आया। मेरे बग़ल में रुककर बिना कोई भूमिका बांधे बताने लगा कि वह चेन्नई का रहने वाला है। कानपुर में दस साल से है। हमसे बुरा न मानने का अनुरोध करते हुए उसने कहा -'कानपुर के लोग बहुत हरामी हैं।’ हमने ऐतराज करना मुनासिब नहीं समझा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान प्रद्दत्त अधिकार है।
कानपुर वालों को ख़राब बताने से शुरू करके उसने कनपुरियों को मोटी-मोटी, वज़नी गालियाँ देने लगा। हम उसकी बात का बुरा माने तब तक उसने यह भी बता दिया कि वह रोज़ तो नहीं पीता लेकिन आज पी हुई है। उसके ,पी हुई है , बता देने के बाद तो उसकी गालियों का बुरा मानने का हमारा अधिकार एकदम ही ख़त्म हो गया। माँ-बहन घराने की गालियाँ बक रहा था इससे लगा कि वह पास के ठेका देशी शराब में सरकार की आमदनी में इज़ाफ़ा करके आया है। इंगलिश शराब पीकर आया होता तो अंग्रेज़ी घराने की गालियाँ देनी पड़ती उसे।
आदमी हिन्दी बोलने में लड़खड़ा रहा था। ऐसा उसके हिन्दी ज्ञान और दारू की गठबंधन सरकार के चलते रहा होगा। लेकिन गालियाँ वह पूरी सफ़ाई और आत्मविश्वास के साथ बक रहा था। उसको देखकर लगा कि भाषाएँ सीखने के लिए गालियाँ सहज पुल का काम करती हैं।
आदमी अपनी फ़ैक्टरी के लोगों के रवैए से दुखी था। उसका विस्तार से विवरण देते हुए उसने बताया कि बेटी के लिए दवाई लेने जा रहा है। बेटी की दवाई लाने के पहले अपनी दवाई न सिर्फ़ ले ली वरण उदरस्थ भी कर ली।
कुछ देर बहकने के बाद वह फिर बेटी के बारे में बताने लगा कि वह बीमार है। इससे यह लगा कि नशा करने के बाद लोग अपने घर वालों के प्रति कितना ज़िम्मेदार हो जाते हैं। हमने उसको लगभग ठेलते हुए बेटी के लिए दवा लेने भेजा। चलते हुए अपनी सब बातों के लिए माफ़ी माँगी और सारा दोष पेट के अंदर पहुँच चुकी शराब के माथे मढ़ दिया। हमने उससे विदा ली और आगे बढ़ गए।
लौटते में देखा मसवानपुर वाली पुलिया के पहले बरसात का पानी इकट्ठा था। लोग पानी में मंझाते हुए पुलिया पार करके मसवानपुर से आ-जा रहे थे।
आर्मापुर थाने के पास एक लड़का मेरे बग़ल में मोटरसाइकिल रोककर आर्मापुर-आर्मापुर कहने लगा। हमें लगा वह आर्मापुर का कोई पता पूछ रहा है। लेकिन बाद में पता चला कि वह आर्मापुर गेट तक की कोई सवारी खोज रहा था। मेरा मन किया कि आर्मापुर गेट तक जाएँ साथ में और फिर लौटकर आ जाएँ। लेकिन फिर इरादा बदल दिया। आगे बढ़ गए। लड़के को भी कोई सवारी मिली नहीं। वह भी अकेले ही आगे चला गया।
आगे फिर कुछ सांड और गाएँ उदास से खड़े दिखे। शायद उनका रात का खाना हो चुका था। सब 'आफ़्टर डिनर जुगाली' कर रहे थे। सांड कुछ सोचपूर्ण मुद्रा में खड़ा था। क्या पता सोच रहा हो कि उनके घराने के लोगों के नाम पर समाज में निरीह लोग मारे जा रहे हैं। इससे उनका नाम बदनाम हो रहा है। हमें उनका दर्द जायज़ लगा। वे जानवर हैं। वे लोकतंत्र के जनप्रतिनिधि तो हैं नहीं जो सोचें कि बदनामी से मुफ़्त की पब्लिसिटी होती है।
टहलते हुए अपन घर वापस आ गए। घर आकर देखा बेटे अनन्य ने सूरज भाई की ख़ूबसूसरत फ़ोटो लगाई है। खुद भी खड़ा है साथ में। सूरज भाई विदा होते हुए मुस्करा रहे थे।
हम भी मुस्करा रहे हैं। आप भी मुस्कुराइए। मुस्कान अभी भी टैक्स फ्री है।

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