कल के हिंदुस्तान अख़बार में 'डिजिटल डिमेंशिया' पर लेख पढ़ा। बताया गया कि डिजिटल उपकरणों का अधिक प्रयोग लोगों की याददाश्त पर विपरीत असर डाल रहा है। 'डिजिटल डिमेंशिया' मतलब 'डिजिटल भुलक्कड़ी' के निम्नलिखित संकेत बताए गए हैं:
1. थोड़े समय पहले की बात याद न रख पाना।
3. एक समय में अधिक कामों पर ध्यान न लगा पाना। ख़ासतौर पर अगर आप पहले ऐसा आसानी से करते थे।
4. एक काम पर लम्बे समय तक एकाग्र न हो पाना।
5. बहुत सूचनाएँ देखते ही विचलित हो जाना।
6. रचनात्मकता और समस्या के समाधान कौशल में कमी आना।
7. रास्तों को याद न रख पाना।
लोग नेट पर किसी बीमारी के लक्षण पढ़ते ही उसके डाक्टर खोजने लगते हैं। उसी तर्ज़ पर अपन ने अपने को 'डिजिटल भुलक्कड़ी' का मरीज़ घोषित कर दिया। लगभग सारे संकेतों के बल्ब हमारे ऊपर जलते-बुझते दिखे। ऐसे में निराश होना सहज बात थी।
लाज़िमी तौर पर हम निराशा के गर्त में डूबने ही वाले थे कि हमको परसाई जी की बात याद आ गयी-'बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है।'
हालाँकि बीमारी का मतलब बेइज़्ज़ती नहीं होती लेकिन मानने में क्या हर्ज है। आजकल देश-दुनिया में शर्म की बात पर गर्व करने का चलन है तो बीमारी को बेइज़्ज़ती मानने में क्या हर्ज । देश-दुनिया के हाकिम हुक्काम गुंडों-मवालियों की भाषा बोलते रहते हैं। जिस भाषा को सुनकर कभी लोग शर्म से अपना सर पीट लिया करते थे आज उस पर पढ़े-लिखे और समझदार माने जाने वाले लोग तक ताली पीटते बरामद हो रहे हैं।
बहरहाल, बात भुलक्कड़ी की हो रही थी। तो हमने तय किया कि इस बीमारी का इलाज यही सिद्ध करने में है कि हम साबित कर दें कि अपन अकेले थोड़े हैं। जैसे ही यह तय किया फ़ौरन पाया कि हमारे आसपास भुलक्कडों का हुजूम है। एक से एक भुलक्कड़ हमारे समाज में मस्ती कर रहे हैं।
देश के सर्वेसर्वा हाकिम हुक्काम लोग कुर्सी नशीन होते ही अपने वायदे भूल जाते हैं। भूल जाते हैं कि वे देश के मालिक नहीं जनता के सेवक हैं। दूसरे लोगों के बारे में तारीख़ों का सिलसिला भूलना तो ख़ैर आम बात है। अपनी कही बातों को भूल जाते हैं लोग।
ऐसा शायद इसीलिए होता होगा क्योंकि देश-दुनिया के हुक्मरान दिन-रात डिजिटल मीडिया पर अपने बारे में सच्ची-झूठी हांकते रहते हैं। नजीतजन 'डिजिटल भुलक्कड़ी' के मरीज़ बनते हैं । आएँ-बाएँ-साएँ बयान पोस्ट करते रहते हैं। इसके लिए दोष उनका नहीं बल्कि उन लोगों का है जिन्होंने उनको यह डिजिटल तामझाम मुहैया कराया।
हमको तो डर है कि कहीं अपनी 'डींग हांकने की आदत' और 'डिजिटल भुलक्कड़ी' के चलते कोई यह न कहने लगे -'हमारे बाप जब पैदा हुए थे तो हम बीए का इम्तहान दे रहे थे।'
ये बात हालाँकि कुछ ज़्यादा ऊँची खिंच गयी। ऐसे दावे पर तो कोई 'दिव्य भक्त' भी भरोसा नहीं करेगा। लेकिन इसको गणितीय सूत्रों के सहारे सिद्ध किया जा चुका है कि कोई प्रकाश की गति से तेज चलकर अपने अतीत से भी पहले मौजूद हो सकता है। यह अलग बात है कि जो बात गणितीय सूत्रों से सिद्ध हो चुकी है वह सहज बुद्धि के आधार पर यह कहते हुए नकार दी गयी है कि अगर ऐसा सम्भव होगा तो कोई बेटा अतीत में जाकर अपने बाप का टेटुआ दबा देगा। अगर किसी ने ऐसा किया तो वह खुद कैसे पैदा होगा। अब हर इंसान तो नानबायोलाजिकल हो नहीं सकता।
आज इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में छपे एक लेख के अनुसार आने वाले समय में देश बड़ी 'डिजिटल भुलक्कड़ी की महामारी' की चपेट में आने वाला है। खबर का पता लगते ही हमारी जीवन संगिनी ने एक सच्चे शुभचिंतक का फ़र्ज़ अदा करते हुए हमारा मोबाइल अपने क़ब्ज़े में लेकर कहीं छिपा दिया और फिर भूल गयीं है। अब हम दोनों उसे मिलकर खोज रहे हैं। खोजते-खोजते थक गए तो लैपटाप पर आकार यह लिख डाला।
आप इसे पढ़कर कैसा महसूस कर रहे हैं बताइएगा। आपकी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी तो हम यही समझेंगे कि आप भी हमारे साथ 'डिजिटल भुलक्कड़ी ' के शिकार हो गए हैं।
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