आज पन्द्रह अगस्त है। सबेरे उठा तो देखा नल में पानी नहीं आ रहा
था। पता किया चार पम्प पिछले पांच दिन से ‘डाउन’ थे । जो थोड़ा बहुत पानी आ
भी रहा था वह सब नलों की जगह आंखों में सप्लाई किया जा रहा है। ‘ऐ मेरे वतन के लोगों ,जरा आंख में भर लो पानी’ के
साथ संगत देने के लिये। देश के लिये रोने के लिये पानी भी तो देश को ही
देना पड़ेगा। सोचा जब पानी नहीं आ रहा है तो कुछ लिख -पढ़ ही लिया जाये।
जहां लिखने पढ़ने की बात सोची तीन जोड़ा हायकू बारिस में मेढकों की तरह के
की बोर्ड पर बैठ गये:-
आजाद हुये
अभी तो और होना
बड़ा झमेला!
सब रो रहे
तू पाल न झमेला
चल अकेला!
आगे चलोगे
सब दौड़ेंगे पीछे
बनेगा रेला!
चलूं तो यार
जाने क्या हो आगे
डर लागेला!
चल भाग जा
तुझ से नहीं होगा
हम चलेला!
मैं चला आगे
भीड़ भी साथ जुटी
हो गया रेला।
मैं और भी लिखता तब तक किसी ने टोक दिया -ये क्या लिख रहे हो? हायकू को तुमदर्पण समझ लिये हो जो जब देखो तब बंदरों की तरह थाम लेते हो!डा.व्योम पकड़ लेंगे तो दौड़ा लेंगे। हमने खतरे को महसूसा तथा गियर बदला । हायकू के पल्ले को किसीअल्पमत में आती सरकार की तरह झटककर देशभक्ति की विशाल उत्पत्यकाओं में विचरण करने लगा। विचरण में बाधा पहुंचाई लल्लन गुरु ने जो आते ही मेरे बच्चे से बोले -बेटा जरा दो कप चाय बनवा लाओ। पत्ती कड़क ,चीनी कम । पापा पियें तो इनके लिये भी ले आना।
चाय की व्यवस्था करने के बाद वो मुझसे मुखातिब हुये। फुरसतिया-लल्लन संवाद शुरु हुआ:-
लल्लन:- और सुनाओ ,कुछ नया लिखा या अभी तक चिमटा बजा रहे हो।
फुरसतिया:- लिखा तो नहीं पर सोच रहा हूं लिखने की।
लल्लन:- ये तुम लिखने के लिये सोचने की आदत काहे पाल रहे हो?ये बड़ी गंदी आदत है। इसके चक्कर में पड़े तो ठेलुहों की तरह फ्रीज हो जायेगा ‘फुरसतिया’ भी। तुम लिखते रहो। सोचने का काम पाठकों पर छोड़ दो।
फुरसतिया:- हां यह तो सच है। चलो अच्छा आज तुम्हीं बताओ क्या लिखा जाये?
लल्लन:- आज लिखने के लिये कैसा सोचना! लिखो आजादी के बारे में। ये आजादी झूठी है।देश नरक में जा रहा है।भ्रष्टाचार, अशिक्षा,लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद का बोलबाला है। यही सब लिखो । तल्खी का दरिया उड़ेल दो की बोर्ड पर। इसके अलावा कुछ लिखने की आदत भी तो नहीं है तुम्हारी।
फुरसतिया:- यह तो है ।पर लगता है कि क्या सच में देश में कुछ प्रगति नहीं हुई! मध्यवर्ग गुब्बारे की तरह फूल रहा है। तमाम जगह हम दुनिया के चंद देशों में हैं। विकसित देशों तक से लोग इलाज करवाने यहां आ रहे हैं। हमारे देश के वैज्ञानिक,डाक्टर,इंजीनियर और कम्प्यूटर विशेषज्ञ पूरी दुनिया मेंअपनी मेधा का झंडा फहरा रहे हैं।हमारे जो बच्चे कभी कानपुर से लखनऊ नहीं गये वे न्यूयार्क से दिल्ली ऐसे आते जाते हैं जैसे ड्राइंगरूम से बाथरूम आ-जा रहे हैं। क्या इसमें देश का कोई योगदान नहीं है?
फुरसतिया:- हमें समझ नहीं आ रहा कि खाली कोसने से क्या होगा? जो हालात हैं उन पर हमेशा स्यापा करने की बजाय कुछ करने की कोशिश की ।
लल्लन:- वत्स,तुम पर भावुकता का दौरा पड़ रहा है। यह खतरनाक लक्षण हैं।तुम भला अकेले क्या कर सकते हो? चने बराबर भी तो नहीं हो जो कोई भाड़ फोड़ने के ख्वाब देखो।
फुरसतिया:- अगर हम कुछ कर नहीं सकते तो फिर हमें दूसरे को कोसने का क्या हक है? हम खुद पूरी जिंदगी राष्ट्रगान गाने की मुद्रा में खड़े रहें और दूसरों से अपेक्षा करें कि वह देश के लिये दौड़ते रहें।यह कहां तक जायज है।
लल्लन:- अरे भाई, यही तो एक जागरूक नागरिक तथा एक आम नागरिक का फर्क है। जागरुक आदमी का काम है दिशा दिखाना ,कोसना,चिल्लाना, आगे बढ़ने के लिये उकसाना तथा कुछ असफलता मिलने पर गरियाना। जबकि आम नागरिक का काम है जागरूक नागरिक के कहे को सुनना और चुपचाप सिर हिलाना!इनसे अलग कुछ सिरफरे नागरिक होते हैं जिनकी आदत होती है जो ठीक लगे वह चुपचाप करते जाना। तुम चूंकि जागरूक नागरिक हो इसलिये ‘कोसना यज्ञ’ में अपनी आहुति देना शुरु करो।
फुरसतिया:- मित्र तुम कितनेभले हो। तुम मुझे कर्तव्य पथ से भटकने से हमेशा बचाते रहते हो। अब यह भी बताओ कि किस विषय को लेकर आज बात शुरु की जाये?
लल्लन:- जैसा कि अनुनाद सिंह जी बताते हैं कि ऐसा कोई अक्षर नहीं जिससेकोई मंत्र न बनता हो, ऐसी कोई जड़ नहीं जिससे कोई औषधि न बनती हो उसी तरह ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर देश को कोसा न सके।
फुरसतिया:- अच्छा यार ये बताओ कि बिना देश को कोसे हमारा खाना क्यों हजम होता। जो खराब है उसे बदलने का खुद प्रयास क्यों नहीं करते।
लल्लन:- तुम बार-बार बहक रहे हो। बार-बार खुद कुछ करने की बात वैसे ही कर रहे हो जैसे अपने ब्लाग को बार-बार देखते हो शायद कोई तारीफी टिप्पणी की गयी होगी।
फुरसतिया:- यार यह सच है । फिर भी ऐसा क्यों है कि हमें यह नहीं लगता कि हमने भी कुछ किया है या हम भी कुछ कर सकते हैं?
लल्लन:- तुम भी कहां सबेरे-सबेरे हमको उपदेश देने के लिये बाध्य कर रहे हो! अपने महामहिम कहते हैं:-
लगता है भारत का अपने ऊपर से भरोसा उठ गया है। भारत नकल का देश हो गया है। आजादी की नकल। अर्थव्यवस्था की नकल। उद्योग-व्यापार की नकल । यहां तक की साहित्य और मीडिया की नकल।मौलिक सोच करीब-करीब पूरे भारत से सिरे से गायब है। हर विदेशी चीज को श्रेष्ठ मानकर स्वीकारने का भाव। विदेशी के प्रति अंध आकर्षण का सीधा असर यह हुआ कि अपनी क्षमताओ से भरोसा जाता रहा। सबसे ज्यादा दुखद बात यह है कि विदेश की श्रेष्ठता का ढिंढोरा पीटने वाले में ऐसे लोग शामिल हैं जिन्हें पता है कि सौ फीसदी सही नहीं है।
फुरसतिया:-आगे क्या बोले महामहिम अब्दुल कलाम जी ! बताओ सुनने का मन कर रहा है!
लल्लन:- वे आगे बोले-यह सामूहिक विस्मृति की अद्भुत मिसाल है।भारत को अपना अतीत और उपलब्धियां याद नहीं हैं। जिन्हें याद है उन्हें इस पर भरोसा नहीं है। एक अजीब सी पराजित मानसिकता। टीपू सुल्तान के राकेट में विलियम कानग्रेव द्वारा किये गये सुधारों का पूरा ब्योरा मौजूद है लेकिन इसका विवरण किसी के पास नहीं है कि टीपू का राकेट किसने बनाया।उसका निर्माण कैसे हुआ। भारत के पढे-लिखे लोग भी जैसे मान बैठे हैं कि कोई अच्छा काम ,नया काम या बड़ा काम कोई भारतीय कर ही नहीं सकता।वह मानसिक रूप से हार गया है। किसी भी दिशा में आगे बढ़ने के लिये के लिये उसे सबसे पहले यह जंग जीतनी होगी। यही विजय उसे आत्मविश्वास देगी। इसी से उसके सोचने की क्षमता लौटेगी। हमारी सोचने की आजादी किसी ने हमसे छीनी नहीं हैं । उसे हमने खुद स्थगित कर रखा है। जब हम सवाल पूछेंगे-जवाब सामने आयेंगे।
लल्लन:- तुम हो किस लायक! क्या कर सकते हो?
फुरसतिया:- हम संकल्प ले सकते हैं:-
हम जहाँ हैं,
वहीं सॆ ,आगॆ बढॆंगॆ।
हम कह सकते हैं:-
मेरी पसंद
जा ,
तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतरकर
जल्द पृथ्वी परचलना सीखें
चांद-तारों सी अप्राप्य सच्चाइयों के लिये
मचलना सीखें।
हंसे
मुस्कराएँ
गाएँ
हर दिये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें
अपने पावों पर खड़े हों।
जा ,
तेरे स्वप्न बड़े हों।
-दुष्यन्त कुमार
आजाद हुये
अभी तो और होना
बड़ा झमेला!
सब रो रहे
तू पाल न झमेला
चल अकेला!
आगे चलोगे
सब दौड़ेंगे पीछे
बनेगा रेला!
चलूं तो यार
जाने क्या हो आगे
डर लागेला!
चल भाग जा
तुझ से नहीं होगा
हम चलेला!
मैं चला आगे
भीड़ भी साथ जुटी
हो गया रेला।
मैं और भी लिखता तब तक किसी ने टोक दिया -ये क्या लिख रहे हो? हायकू को तुमदर्पण समझ लिये हो जो जब देखो तब बंदरों की तरह थाम लेते हो!डा.व्योम पकड़ लेंगे तो दौड़ा लेंगे। हमने खतरे को महसूसा तथा गियर बदला । हायकू के पल्ले को किसीअल्पमत में आती सरकार की तरह झटककर देशभक्ति की विशाल उत्पत्यकाओं में विचरण करने लगा। विचरण में बाधा पहुंचाई लल्लन गुरु ने जो आते ही मेरे बच्चे से बोले -बेटा जरा दो कप चाय बनवा लाओ। पत्ती कड़क ,चीनी कम । पापा पियें तो इनके लिये भी ले आना।
चाय की व्यवस्था करने के बाद वो मुझसे मुखातिब हुये। फुरसतिया-लल्लन संवाद शुरु हुआ:-
लल्लन:- और सुनाओ ,कुछ नया लिखा या अभी तक चिमटा बजा रहे हो।
फुरसतिया:- लिखा तो नहीं पर सोच रहा हूं लिखने की।
लल्लन:- ये तुम लिखने के लिये सोचने की आदत काहे पाल रहे हो?ये बड़ी गंदी आदत है। इसके चक्कर में पड़े तो ठेलुहों की तरह फ्रीज हो जायेगा ‘फुरसतिया’ भी। तुम लिखते रहो। सोचने का काम पाठकों पर छोड़ दो।
फुरसतिया:- हां यह तो सच है। चलो अच्छा आज तुम्हीं बताओ क्या लिखा जाये?
लल्लन:- आज लिखने के लिये कैसा सोचना! लिखो आजादी के बारे में। ये आजादी झूठी है।देश नरक में जा रहा है।भ्रष्टाचार, अशिक्षा,लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद का बोलबाला है। यही सब लिखो । तल्खी का दरिया उड़ेल दो की बोर्ड पर। इसके अलावा कुछ लिखने की आदत भी तो नहीं है तुम्हारी।
फुरसतिया:- यह तो है ।पर लगता है कि क्या सच में देश में कुछ प्रगति नहीं हुई! मध्यवर्ग गुब्बारे की तरह फूल रहा है। तमाम जगह हम दुनिया के चंद देशों में हैं। विकसित देशों तक से लोग इलाज करवाने यहां आ रहे हैं। हमारे देश के वैज्ञानिक,डाक्टर,इंजीनियर और कम्प्यूटर विशेषज्ञ पूरी दुनिया मेंअपनी मेधा का झंडा फहरा रहे हैं।हमारे जो बच्चे कभी कानपुर से लखनऊ नहीं गये वे न्यूयार्क से दिल्ली ऐसे आते जाते हैं जैसे ड्राइंगरूम से बाथरूम आ-जा रहे हैं। क्या इसमें देश का कोई योगदान नहीं है?
हम खुद पूरी जिंदगी राष्ट्रगान गाने की मुद्रा में खड़े रहें और दूसरों से
अपेक्षा करें कि वह देश के लिये दौड़ते रहें।यह कहां तक जायज है।
लल्लन:- यार,ये सब पचड़े में पड़े तो हो गया तुम्हारा
लिखना। रोते रहो रांड की तरह। अपराधबोध पाले। जो ट्रेन्ड है उसको पकड़ो।
कोसना शुरु करो। बिस्मिल्ला करो नेता,अधिकारी,अपराधी गठजोड़ से।फुरसतिया:- हमें समझ नहीं आ रहा कि खाली कोसने से क्या होगा? जो हालात हैं उन पर हमेशा स्यापा करने की बजाय कुछ करने की कोशिश की ।
लल्लन:- वत्स,तुम पर भावुकता का दौरा पड़ रहा है। यह खतरनाक लक्षण हैं।तुम भला अकेले क्या कर सकते हो? चने बराबर भी तो नहीं हो जो कोई भाड़ फोड़ने के ख्वाब देखो।
फुरसतिया:- अगर हम कुछ कर नहीं सकते तो फिर हमें दूसरे को कोसने का क्या हक है? हम खुद पूरी जिंदगी राष्ट्रगान गाने की मुद्रा में खड़े रहें और दूसरों से अपेक्षा करें कि वह देश के लिये दौड़ते रहें।यह कहां तक जायज है।
लल्लन:- अरे भाई, यही तो एक जागरूक नागरिक तथा एक आम नागरिक का फर्क है। जागरुक आदमी का काम है दिशा दिखाना ,कोसना,चिल्लाना, आगे बढ़ने के लिये उकसाना तथा कुछ असफलता मिलने पर गरियाना। जबकि आम नागरिक का काम है जागरूक नागरिक के कहे को सुनना और चुपचाप सिर हिलाना!इनसे अलग कुछ सिरफरे नागरिक होते हैं जिनकी आदत होती है जो ठीक लगे वह चुपचाप करते जाना। तुम चूंकि जागरूक नागरिक हो इसलिये ‘कोसना यज्ञ’ में अपनी आहुति देना शुरु करो।
फुरसतिया:- मित्र तुम कितनेभले हो। तुम मुझे कर्तव्य पथ से भटकने से हमेशा बचाते रहते हो। अब यह भी बताओ कि किस विषय को लेकर आज बात शुरु की जाये?
लल्लन:- जैसा कि अनुनाद सिंह जी बताते हैं कि ऐसा कोई अक्षर नहीं जिससेकोई मंत्र न बनता हो, ऐसी कोई जड़ नहीं जिससे कोई औषधि न बनती हो उसी तरह ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर देश को कोसा न सके।
फुरसतिया:- अच्छा यार ये बताओ कि बिना देश को कोसे हमारा खाना क्यों हजम होता। जो खराब है उसे बदलने का खुद प्रयास क्यों नहीं करते।
लल्लन:- तुम बार-बार बहक रहे हो। बार-बार खुद कुछ करने की बात वैसे ही कर रहे हो जैसे अपने ब्लाग को बार-बार देखते हो शायद कोई तारीफी टिप्पणी की गयी होगी।
फुरसतिया:- यार यह सच है । फिर भी ऐसा क्यों है कि हमें यह नहीं लगता कि हमने भी कुछ किया है या हम भी कुछ कर सकते हैं?
लल्लन:- तुम भी कहां सबेरे-सबेरे हमको उपदेश देने के लिये बाध्य कर रहे हो! अपने महामहिम कहते हैं:-
लगता है भारत का अपने ऊपर से भरोसा उठ गया है। भारत नकल का देश हो गया है। आजादी की नकल। अर्थव्यवस्था की नकल। उद्योग-व्यापार की नकल । यहां तक की साहित्य और मीडिया की नकल।मौलिक सोच करीब-करीब पूरे भारत से सिरे से गायब है। हर विदेशी चीज को श्रेष्ठ मानकर स्वीकारने का भाव। विदेशी के प्रति अंध आकर्षण का सीधा असर यह हुआ कि अपनी क्षमताओ से भरोसा जाता रहा। सबसे ज्यादा दुखद बात यह है कि विदेश की श्रेष्ठता का ढिंढोरा पीटने वाले में ऐसे लोग शामिल हैं जिन्हें पता है कि सौ फीसदी सही नहीं है।
फुरसतिया:-आगे क्या बोले महामहिम अब्दुल कलाम जी ! बताओ सुनने का मन कर रहा है!
लल्लन:- वे आगे बोले-यह सामूहिक विस्मृति की अद्भुत मिसाल है।भारत को अपना अतीत और उपलब्धियां याद नहीं हैं। जिन्हें याद है उन्हें इस पर भरोसा नहीं है। एक अजीब सी पराजित मानसिकता। टीपू सुल्तान के राकेट में विलियम कानग्रेव द्वारा किये गये सुधारों का पूरा ब्योरा मौजूद है लेकिन इसका विवरण किसी के पास नहीं है कि टीपू का राकेट किसने बनाया।उसका निर्माण कैसे हुआ। भारत के पढे-लिखे लोग भी जैसे मान बैठे हैं कि कोई अच्छा काम ,नया काम या बड़ा काम कोई भारतीय कर ही नहीं सकता।वह मानसिक रूप से हार गया है। किसी भी दिशा में आगे बढ़ने के लिये के लिये उसे सबसे पहले यह जंग जीतनी होगी। यही विजय उसे आत्मविश्वास देगी। इसी से उसके सोचने की क्षमता लौटेगी। हमारी सोचने की आजादी किसी ने हमसे छीनी नहीं हैं । उसे हमने खुद स्थगित कर रखा है। जब हम सवाल पूछेंगे-जवाब सामने आयेंगे।
हमारी सोचने की आजादी किसी ने हमसे छीनी नहीं हैं । उसे हमने खुद स्थगित कर रखा है। जब हम सवाल पूछेंगे-जवाब सामने आयेंगे।
फुरसतिया:-बात तो ठीक ही कहते हैं -महामहिम जी! अब फिलहाल किसी को भी कोसने का काम आज के लिये स्थगित। अब जो हम कर सकते हैं करेंगे।लल्लन:- तुम हो किस लायक! क्या कर सकते हो?
फुरसतिया:- हम संकल्प ले सकते हैं:-
हम जहाँ हैं,
वहीं सॆ ,आगॆ बढॆंगॆ।
हम कह सकते हैं:-
जो होता है वह होने दो ,यह पौरुष-हीन कथन है,यह कहकर लल्लन-फुरसतिया जोड़ी लपक ली झंडारोहण के लिये।मैदान में राष्ट्रीय ध्वज आशाओं के खंभे पर सवार आसमान में भविष्य की सम्भावनाओं की तरह फहरा रहा था।
जो हम चाहेंगे वह होगा,इन शब्दों में जीवन है।
मेरी पसंद
जा ,
तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतरकर
जल्द पृथ्वी परचलना सीखें
चांद-तारों सी अप्राप्य सच्चाइयों के लिये
मचलना सीखें।
हंसे
मुस्कराएँ
गाएँ
हर दिये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें
अपने पावों पर खड़े हों।
जा ,
तेरे स्वप्न बड़े हों।
-दुष्यन्त कुमार
Posted in बस यूं ही | 4 Responses
आपका लेख और लेखन शैली बहुत पसन्द आयी। बधाई।
लक्ष्मीनारायण