By फ़ुरसतिया on August 11, 2005
मेरे लेखहैरी पाटर का जादू तथा हामिद का चिमटा पर स्वामीजी की प्रतिक्रिया थी:-
हैरी पाटर,वीडियो गेम,कांटा लगा तथा पिज्जा की तरह आज के फैशन की चीज है।यह मानने में ज्यादा आपत्ति नहीं है मुझे। हालांकि इसे इतना हल्का न स्वामीजी बताना चाहते थे न ही मैं समझा हूं।यह सच है कि कोई भी काम करने का तरीका अलग-अलग समाजों मे अलग-अलग हो सकता है।
बचपन में बेताल,मैंण्ड्रेक,चाचा चौधरी तथा अन्य हर तरह की किताबें पढ़ने के बावजूद हम अभी तक कलात्मक हिंसा को सराहने के काबिल नहीं बन पाये हैं।मुझे लगता है कि कलात्मक हिंसा को सराहने के लिये पढ़ाई-लिखाई के अलावा जो सामाजिक वातावरण का खाद-पानी चाहिये वह शायद न मिल पाना ही कारण रहा इसका।जितनी बढ़िया कलात्मक हिंसा माहौल की संगत में मिल सकती है वो मजा खाली पढ़ने-लिखने से नहीं आ पाता।
यह कलात्मक हिंसा का परिवेश ही है कि अमेरिका के किसी हाईस्कूल का छात्र बस यूं ही मूड आ जाने पर अपने दस-बारह साथियों को बिना किसी कारण के हंसते-हंसते गोली से उड़ा देता है।यह कलात्मक हिंसा ही बारूद के शक का बहाना लेकरकिसी देश को ‘कारपेट बाम्बिंग’से रौंदकर बताती है कि हमारा शक गलत निकला।ऐसी कलात्मकता खाली साहित्य,फिल्मों से नहीं आती। समाज को भी कुछ करते रहना पढ़ता है। कामना है कि कलात्मक हिंसा का यह भाव बाउन्सर बनकर ही निकल जाये।
साहित्य का उद्देश्य बल्कि ज्यादा सही होगा दिशा कहना तो समाज तत्कालीन समाज की स्थिति पर निर्भर करता है। भारत जब आजाद हो रहा था तो लोगों को जोड़ने के लिये वंशीधर शुक्ल लिख रहे थे-
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,अब रैन कहां जो सोवत है।
आजादी के बाद नई उमंगों के गीत वातावरण में गूंज रहे थे:-
नये खून से लिखेंगे हम फिर से नई कहानी।
इसके विपरीत दूसरे विश्वयुद्ध में पश्चिम में बरबादी के मंजर लिखे जा रहे थे क्योंकि वहां लड़ाई में बहुत टूट-फूट हुई। हालांकि अपने देश में भी देखादेखी लुटा-पिटा लिखने वाले भी थे।
यही बात बाल साहित्य की भी है। पढ़ने की आदत डालना भी बहुत अच्छा उद्देश्य है। हैरी पाटर इस मायने में बहुत सफल किताब है कि छपने के पहले ही उसका इतना हल्ला मचा कि दुनिया भर में उसे खरीदने की मारामारी मच गई। इस मारामारी में किताब की तो क्या बाजारू लटकों झटकों की अहम भूमिका रही।
अब बात जिस पर मैंने बहुत विचार किया वह यह क्या सच में ईदगाह कहानी अपराधबोध (गिल्ट मांगर)पैदा करने वाली कहानी है! बहुत विचार किया गया लिहाजा विचार बेतरतीब हो गये। उन्हें जस का तस रखा जा रहा है।
किसी कहानी का प्रभाव पाठक पर कैसा पड़ता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि पाठक कहानी से किस रूप में जुड़ता है। प्रभाव के लिये जुड़ाव जरूरी है। अगर कोई मध्यवर्गीय बच्चा इससे जुड़ाव महसूस करता है तो उस पर इसका प्रभाव उस रूप में ही पड़ेगा जिस रूप में यह कहानी से जुड़ा होगा। हामिद की भावनाओं से जुड़ा बच्चा तमाम लालचों से निकलकर अनायास जीतते हामिद की जीत को अपनी मानेगा। दूसरे बच्चों के साथ जिनका मन मिला होगा वे भी झटका भले खायें लेकिन असलियत यह भी है से ज्यादा परेशान नहीं होंगे।
ईदगाह कहानी साधनहीन को अपने सीमित साधनों में अकड़कर जीने की कहानी है। गरीब भी अपने साधनों में खुशियों की खोज कर सकता है। यह बताती है। अपने सुख को स्थगित करके अपने से जुड़े लोगों को सुखी करने की कोशिश अपना उदात्तीकरण है।
वो क्या कहते हैं:-
जीवन तमाम विसंगतियों से घिरा है। दुनिया का सबसे बेहतर समाज भी विसंगतियों से पूरी तरह मुक्त नहीं होगा। भावनाओं के घात-प्रतिघात चलते रहते हैं। सहज रूप में यदि उदात्त गुणों की स्थापना हो सके तो साहित्य का उद्देश्य पूरा हुआ ।
ईदगाह कहानी में दुखी अगर कोई होगा तो वह बाजार का पैरोकार होगा।उधार बांटने वाली कम्पनियां होंगी। बच्चे निश्चित तौर पर दुखी नहीं होंगे-यदि उनमें बचपना बचा है।
बच्चे अपराधबोध महसूस करेंगे यह कुछ उसी तरह लगता है जैसे -यहां से पचास-पचास कोस दूर जब कोई बच्चा रोता है तो उसकी मां कहती है -बेटा,सो जा नहीं तो गब्बर आ जायेगा। वैसे ही -ये कहानी मत पढ़ बेटा नहीं तो अपराध बोध आजायेगा।
आज के जटिल समाज में हम अपने मनोभावों की ‘कंडीशनिंग’ के आदी हो रहे हैं। जहां रोना चाहिये वहां मुस्कराते हैं।जहां क्रोध करना चाहिये वहां ‘लाफ्टर थिरेपी’ से (मुन्ना भाई एमबीबीएस) हंसने का अभ्यास करते हैं। इसीक्रम में आम तौर पर आत्मविश्वास पैदा करने वाली कहानी में अपराधबोध तलाश रहे हैं। यह भावों की ‘कंडीशनिंग’ हमें न जाने कितने ‘साइड -इफेक्ट’ देगी।यह भाव-विस्थापन की प्रवृत्ति हमें न जाने कहां ले जायेगी!
ईदगाह के सवाल यथार्थ के सवाल हैं। अभाव , दुख ,गरीबी से टकराते हुये अपना स्वाभिमान बचाये रखकर जीतने की कहानी है। ईदगाह जमीन से जुड़ी कहानी है जबकि हैरी पाटर हवा-हवाई है।
की धुआंधार बिक्री । आठ सौ रुपये में आप कूड़ा भी खरीदें तो उसका गुणगान करना आपकी मजबूरी बन जाती है। फिर यह तो एक बेस्टसेलर लेखक की बेहतरीन किताब है।
हैरी पाटर के हल्ले में बाजार का हल्ला ज्यादा है। यही बिंदु है जो इसे बहुप्रचारित ,बहुचर्चित बनाता है। यही वह बिंदु भी है जहां यह मुझे कमजोर लगती है। ईदगाह कहानी सत्तर साल बाद भी उतनी ही प्रासंगिक कहानी लगती है। देखना है हैरी पाटर की हवा कितने दिन बहती है।
स्वामीजी का मैं खास तौर पर आभारी हूं कि उन्होंने मेरे लेख को इतने ध्यान से पढ़कर सवाल उठाये थे। आशा है कि मेरी बात से कुछ सहमति होंगे। असहमति का भी स्वागत है। बाकी साथियों जिन्होनें मेरा लेख पढ़ा तथा पसंद किया उनका भी मैं आभारी हूं।
विडियो गेम खेलने से कबड्डी खेलना मन और स्वास्थ्य के लिये ज्यादा सही है.गालिब की गज़लें“कांटा लगा” छाप रीमिक्स से ज्यादा स्तरीय हैं. पिज्जा से दलिया ज्यादा उचित है. ऐसी तमाम तुलनाएं साहित्य के अलावा भी हर जगह कर सकता हूं. दुनिया मे हर चीज की एक जगह,एक बाजार और एक भूमिका है और कोई भी काम करने का तरीका अलग-अलग समाजों मे अलग-अलग हो सकता है.स्वामीजी को मैं बहुत सजग पाठक मानता हूं लिहाजा उनकी टिप्पणी को अनदेखा नहीं कर पाया।इस टिप्पणी ने मुझे सोचनेको मजबूर किया।कुछ बातें मुझे लगीं कि उनकी फिर से पड़ताल जरूरी है।लिहाजा टिप्पणी की बातों को लेते हुये अपने विचारलिख रहा हूं।
अगर आपने बचपन मे कामिक्स कथाएं नही पढीं तो आप स्पाईडर मेन किल-बिल १ और २, सिन सिटी जैसी फ़िल्मों मे दिखाई कलात्मक हिंसा – जी हां, कलात्मक हिंसा बहुत ही सुंदर, कलात्मक हिंसा सराहने के काबिल नही – बाकायदा बाउंसर निकल जाएगी – “इस मे क्या है” टाईप! भले ही सत्यजित राय वाली शतरंज के खिलाडी को समीक्षित कर सको और उपन्यास से कितना न्याय हुआ इस पर पेल मचा सको!पर आप किल-बिल मे क्विंटन टेरेन्टिनो ने क्या कमाल किया है समझ नही सकोगे संदेश कैसे दिया है समझ नही सकोगे!
साहित्य का उद्देश्य हमेशा शिक्षित करना ही क्यों हो? मनोरंजित करना भी तो हो – मनोरंजन के बाद, पढने की लत के बाद धीरे से स्वाद बदलो ना आप!आज हिंदी पढने वाले इस लिये कम है की या तो साहित्य मेलोड्रामा, कविता-शविता परोसता है या प्रवचन और उनको पढने वाले अपने आप को ज्यादा एलीट समझते हैं.
हामिद का चिमटा उन तमाम बच्चों को गिल्ट देता है जिन्होंने मध्यमवर्गिय परिवारों मे भी पैदा हो कर बाल हठ किये होंगे – सारे हामिद जैसे स्याने नही होते इस का ये मतलब नही की बाकी बच्चे अपने माता-पिता की आर्थिक सीमितता नही समझे होंगे, बाल-मन है खिलौना चाहेगा. और उन तमाम मा-बाप को ये शिक्षा देता है की तुम्हारा बच्चा हामिद है या नही इस की लिटमस टेस्ट लो और ना हो तो पडोसी की औलाद हामिद है वो नही है ये तुलना करने से मत चूको!क्या ये नही होता? क्या ये नही हुआ?? भाड मे गया हामिद और उसका चिमटा – मेरी चले तो ये कहानी कालिज के लेवल पर कोर्स मे होना चाहिए स्कूल के लेवल पर नही! गिल्ट-मांगरीग देसी मेन्टेलिटी को प्रमोट करती है ये कहानी!!
हैरी पाटर,वीडियो गेम,कांटा लगा तथा पिज्जा की तरह आज के फैशन की चीज है।यह मानने में ज्यादा आपत्ति नहीं है मुझे। हालांकि इसे इतना हल्का न स्वामीजी बताना चाहते थे न ही मैं समझा हूं।यह सच है कि कोई भी काम करने का तरीका अलग-अलग समाजों मे अलग-अलग हो सकता है।
बचपन में बेताल,मैंण्ड्रेक,चाचा चौधरी तथा अन्य हर तरह की किताबें पढ़ने के बावजूद हम अभी तक कलात्मक हिंसा को सराहने के काबिल नहीं बन पाये हैं।मुझे लगता है कि कलात्मक हिंसा को सराहने के लिये पढ़ाई-लिखाई के अलावा जो सामाजिक वातावरण का खाद-पानी चाहिये वह शायद न मिल पाना ही कारण रहा इसका।जितनी बढ़िया कलात्मक हिंसा माहौल की संगत में मिल सकती है वो मजा खाली पढ़ने-लिखने से नहीं आ पाता।
यह कलात्मक हिंसा का परिवेश ही है कि अमेरिका के किसी हाईस्कूल का छात्र बस यूं ही मूड आ जाने पर अपने दस-बारह साथियों को बिना किसी कारण के हंसते-हंसते गोली से उड़ा देता है।यह कलात्मक हिंसा ही बारूद के शक का बहाना लेकरकिसी देश को ‘कारपेट बाम्बिंग’से रौंदकर बताती है कि हमारा शक गलत निकला।ऐसी कलात्मकता खाली साहित्य,फिल्मों से नहीं आती। समाज को भी कुछ करते रहना पढ़ता है। कामना है कि कलात्मक हिंसा का यह भाव बाउन्सर बनकर ही निकल जाये।
साहित्य का उद्देश्य बल्कि ज्यादा सही होगा दिशा कहना तो समाज तत्कालीन समाज की स्थिति पर निर्भर करता है। भारत जब आजाद हो रहा था तो लोगों को जोड़ने के लिये वंशीधर शुक्ल लिख रहे थे-
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,अब रैन कहां जो सोवत है।
आजादी के बाद नई उमंगों के गीत वातावरण में गूंज रहे थे:-
नये खून से लिखेंगे हम फिर से नई कहानी।
इसके विपरीत दूसरे विश्वयुद्ध में पश्चिम में बरबादी के मंजर लिखे जा रहे थे क्योंकि वहां लड़ाई में बहुत टूट-फूट हुई। हालांकि अपने देश में भी देखादेखी लुटा-पिटा लिखने वाले भी थे।
यही बात बाल साहित्य की भी है। पढ़ने की आदत डालना भी बहुत अच्छा उद्देश्य है। हैरी पाटर इस मायने में बहुत सफल किताब है कि छपने के पहले ही उसका इतना हल्ला मचा कि दुनिया भर में उसे खरीदने की मारामारी मच गई। इस मारामारी में किताब की तो क्या बाजारू लटकों झटकों की अहम भूमिका रही।
अब बात जिस पर मैंने बहुत विचार किया वह यह क्या सच में ईदगाह कहानी अपराधबोध (गिल्ट मांगर)पैदा करने वाली कहानी है! बहुत विचार किया गया लिहाजा विचार बेतरतीब हो गये। उन्हें जस का तस रखा जा रहा है।
किसी कहानी का प्रभाव पाठक पर कैसा पड़ता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि पाठक कहानी से किस रूप में जुड़ता है। प्रभाव के लिये जुड़ाव जरूरी है। अगर कोई मध्यवर्गीय बच्चा इससे जुड़ाव महसूस करता है तो उस पर इसका प्रभाव उस रूप में ही पड़ेगा जिस रूप में यह कहानी से जुड़ा होगा। हामिद की भावनाओं से जुड़ा बच्चा तमाम लालचों से निकलकर अनायास जीतते हामिद की जीत को अपनी मानेगा। दूसरे बच्चों के साथ जिनका मन मिला होगा वे भी झटका भले खायें लेकिन असलियत यह भी है से ज्यादा परेशान नहीं होंगे।
ईदगाह कहानी साधनहीन को अपने सीमित साधनों में अकड़कर जीने की कहानी है। गरीब भी अपने साधनों में खुशियों की खोज कर सकता है। यह बताती है। अपने सुख को स्थगित करके अपने से जुड़े लोगों को सुखी करने की कोशिश अपना उदात्तीकरण है।
वो क्या कहते हैं:-
तुम्हारे सीने की जलन जरूर कम होगी,टाइप बात है। परदुखकातरता ,परहित-त्याग दुनिया की हर संस्कृति में उदात्त, अनुकरणीय आदर्श माने गये हैं।किसी को दूसरे के दुख को महसूस करते हुये आचरण करते देख यदि किसी के मन में अपराधबोध आता है तो इसका मतलब यह है कि या तो वह हामिद की जीत से दुखी है। या फिर वह यह सोचता है कि ये देखो हामिद अपनी दादी के लिये इतना त्याग करता है जबकि मैं अपने सुख के ही लिये परेशान करता हूं। यदि दूसरी बात है तो यह कहानी की सफलता है जिसने बालक की संवेदनायें उभार दीं।
किसी का पांव का कांटा निकाल के देखो।
जीवन तमाम विसंगतियों से घिरा है। दुनिया का सबसे बेहतर समाज भी विसंगतियों से पूरी तरह मुक्त नहीं होगा। भावनाओं के घात-प्रतिघात चलते रहते हैं। सहज रूप में यदि उदात्त गुणों की स्थापना हो सके तो साहित्य का उद्देश्य पूरा हुआ ।
भावनाओं के घात-प्रतिघात चलते रहते हैं। सहज रूप में यदि उदात्त गुणों की स्थापना हो सके तो साहित्य का उद्देश्य पूरा हुआ
ईदगाह तो प्रतीकात्मक कहानी है। चिमटा भी प्रतीक है। यह कहानी तो कम
साधन वाले को ज्यादा साधनों के सामने बिना समर्पण किये अपना सुख तलासने की
कहानी है। मध्यमवर्गीय बच्चे के भी कुछ सपने होंगे जो वह अपनी आर्थिक
स्थिति के दायरे में पूरा नहीं कर पाता होगा । ऐसा में वह बच्चा हामिद से
सीख लेकर अपने साधनों में सुख तलाश सकता है। किसी बच्चे की हैसियत स्कूटर
लेने की नहीं है तो वह ज्यादा लालच किये बिना साईकिल के पक्ष में तमाम
तर्क( प्रदूषणहीनता, कसरत,कम खर्चा ,शोर से मुक्ति आदि) देकर अपना सुख तलाश
सकता है।ईदगाह कहानी में दुखी अगर कोई होगा तो वह बाजार का पैरोकार होगा।उधार बांटने वाली कम्पनियां होंगी। बच्चे निश्चित तौर पर दुखी नहीं होंगे-यदि उनमें बचपना बचा है।
बच्चे अपराधबोध महसूस करेंगे यह कुछ उसी तरह लगता है जैसे -यहां से पचास-पचास कोस दूर जब कोई बच्चा रोता है तो उसकी मां कहती है -बेटा,सो जा नहीं तो गब्बर आ जायेगा। वैसे ही -ये कहानी मत पढ़ बेटा नहीं तो अपराध बोध आजायेगा।
आज के जटिल समाज में हम अपने मनोभावों की ‘कंडीशनिंग’ के आदी हो रहे हैं। जहां रोना चाहिये वहां मुस्कराते हैं।जहां क्रोध करना चाहिये वहां ‘लाफ्टर थिरेपी’ से (मुन्ना भाई एमबीबीएस) हंसने का अभ्यास करते हैं। इसीक्रम में आम तौर पर आत्मविश्वास पैदा करने वाली कहानी में अपराधबोध तलाश रहे हैं। यह भावों की ‘कंडीशनिंग’ हमें न जाने कितने ‘साइड -इफेक्ट’ देगी।यह भाव-विस्थापन की प्रवृत्ति हमें न जाने कहां ले जायेगी!
आज के जटिल समाज में हम अपने मनोभावों की ‘कंडीशनिंग’ के आदी हो रहे हैं। जहां रोना चाहिये वहां मुस्कराते हैं
इस तरह के सुरक्षित अहसासों मे बच्चों की परवरिश होने से बच्चे इतने
नाजुक हो जायेंगे कि जहां किसी भावना का झटका लगा तो गये काम से। जीवन के
हर आवेग का अपना महत्व होता है। हरा ही हरा देखकर पले-बढ़े बच्चे कोई दूसरा
रंग देखकर चौंधिया जायेंगे। सुख-दुख तो सापेक्ष हैं। जीवन को संवारने मे
दुख का भी महत्व होता है। फिराक गोरखपुरी का एक शेर है:-इक ग़म वो है इन्साँ को जो रहने न दे इन्साँ,तो अगर हामिद की कहानी पढ़कर किसी बच्चे को कोई दुख होता है यह इन्सान बनने का ग़म है:-
इक ग़म वो है इन्साँ को जो इन्सान बना दे।
मेरे सीने में न सही , तेरे सीने में सही,हैरी पाटर तथा ईदगाह का अंतर यथार्थ तथा कल्पना का है। हैरी के समाज में यथार्थ में कोई कष्ट नहीं है। कोई अभाव नहीं है। लिहाजा वह अपने खिलाफ काल्पनिक दुश्मनों की रचना करता है तथा फिर उनका संहार करता है। यह नेट प्रैक्टिस टाइप का मामला है।
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये।
ईदगाह के सवाल यथार्थ के सवाल हैं। अभाव , दुख ,गरीबी से टकराते हुये अपना स्वाभिमान बचाये रखकर जीतने की कहानी है। ईदगाह जमीन से जुड़ी कहानी है जबकि हैरी पाटर हवा-हवाई है।
आठ सौ रुपये में आप कूड़ा भी खरीदें तो उसका गुणगान करना आपकी मजबूरी बन जाती है। फिर यह तो एक बेस्टसेलर लेखक की बेहतरीन किताब है।
हैरी पाटर के दूसरे पहलू भी काबिले गौर हैं .हैरी पाटर आठ सौ रुपये की
किताब है। दुनिया के औसत मध्यवर्गीय मां-बाप जिनको पढ़ने की लत नहीं लगी है
इस किताब को खरीदने के पहले पचास बार सोचेंगे। उनमें भी किताब खरीद भारत
जैसे देश के मध्यमवर्गीयों की यह चिन्ता ज्यादा बड़ी भूमिका अदा करेगी कि
हमारा बच्चा इस हीन भावना से पीड़ित न हो जाये कि हाय,हमने हैरी पाटर नहीं
पढ़ी। दुनिया के ‘लेटेस्ट ट्रेन्ड’ से कदमताल करते रहने की मजबूरी ज्यादा
बड़ा कारण है इस किताबकी धुआंधार बिक्री । आठ सौ रुपये में आप कूड़ा भी खरीदें तो उसका गुणगान करना आपकी मजबूरी बन जाती है। फिर यह तो एक बेस्टसेलर लेखक की बेहतरीन किताब है।
हैरी पाटर के हल्ले में बाजार का हल्ला ज्यादा है। यही बिंदु है जो इसे बहुप्रचारित ,बहुचर्चित बनाता है। यही वह बिंदु भी है जहां यह मुझे कमजोर लगती है। ईदगाह कहानी सत्तर साल बाद भी उतनी ही प्रासंगिक कहानी लगती है। देखना है हैरी पाटर की हवा कितने दिन बहती है।
ईदगाह अपराधबोध की नहीं जीवनबोध की कहानी है।
हां ,अगर स्वामीजी माने तो यह कहना चाहूंगा कि ईदगाह अपराधबोध की नहीं
जीवनबोध की कहानी है। लेट गिल्टमांगर बि रिप्लेस्ड बाई लाईफ मांगर।स्वामीजी का मैं खास तौर पर आभारी हूं कि उन्होंने मेरे लेख को इतने ध्यान से पढ़कर सवाल उठाये थे। आशा है कि मेरी बात से कुछ सहमति होंगे। असहमति का भी स्वागत है। बाकी साथियों जिन्होनें मेरा लेख पढ़ा तथा पसंद किया उनका भी मैं आभारी हूं।
Posted in बस यूं ही | 17 Responses
इक ग़म वो है इन्साँ को जो इन्सान बना दे।
तो अगर हामिद की कहानी पढ़कर किसी बच्चे को कोई दुख होता है यह इन्सान बनने का ग़म है.
सालों पहले दूरदर्शन पर प्राख्यात अभिनेता शशी कपूर के इंटरव्यू मे उन्होने वाकया कहा था की जेनिफर (उनकी पत्नी)गर्भवती थीं, और वो शिकार खेलने जाने का कार्यक्रम बना रहे थे. जेनिफर ने कहा – “इधर मैं एक जीव को इस दुनिया मे लाने का यत्न कर रही हूँ उधर आप एक जीव की जान लेने जा रहे हो!” शशी कपूर ठिठके! शशी कपूर ने फिर कभी शिकार नही खेला! ये इन्सान हो जाना एक झटके मे होता है. कईयों का यह रूपाँतरण जीवन भर नही होता.
आज जब अमरीका मे टीवी पर शिकार खेलने को “रिक्रियेशनल हॉबी” और निशानेबाजी को कला कहलाते, शिकार की सुंदरता पर शिकारी को मोहित होते देखता हूँ तो इस “कलात्मक हिंसा” पर शशी कपूर का इंटरव्यु याद आता है! किसी की जान लेना खेल नही है, कुरूप है, विभत्स है और इस प्रकार का मनोरंजन विकृत है. ये समझदार आदमी की कुरूपता है.
जब ९/११ को टावर मे हवाई जहाज घुसे कई घरों के बच्चे टीवी पर देखते हुए बोले “वॉव .. कूल ” इन्हे लगा कोई फिल्मी दृश्य है – अब आप बच्चे का नजरिया देखो! उन्हे किसी की जान जा रही है पता नही पर पूरा सेट-अप आँखो को जबरदस्त लगा होगा – था भी! ये बचपन है – जब बच्चों को हकीकत बताई माता-पिता ने वो बहुत उदास हुए और दुखी, अपने जेब खर्च उन्होने सहायतार्थ भेजे गर्व के साथ – ये बच्चों की मासूमियत है. ये इन्सान होजाना नही है – बच्चों मे इन्सानियत तो थी ही मसूमियत भी पर नासमझी ज्यादा थी. जो मुझे सुंदर लगती है – इस बचपन और नासमझी की उम्र यूँ भी ज्यादा नही होती. ये बहुत कीमती चीज है .
क्या आप बच्चों जैसे भोलेपन से हिंसक हुए बिना हिंसा की सुंदरता सराह सकते हो? उसे मे अनलर्निंग लगती है और वो भी बहुत कीमती चीज है.
मेरा बस चले दुनिया इतनी कुरूप ना हो की बच्चों को समय से पहले बडा होना पडे और फिर ये समय से पहले बडा होना महिमामंडित हो. मेरे लिये हामिद के को समय से पहले बडा होना पडा मै इसे जस्टिफाई नही कर पाता! इस के लिए हामिद से हमदर्दी होती है – वो कोई हीरो नही मजबूर है – समय से पहले बडा होने के लिए मजबूर क्योंकि उन्हे सही दुनिया और परिवेश नही बना कर दिया गया.
हामिद की कहानी हो या की जीवन की और कुरूपताओं के दुख – दोनो परेशान करते हैं और मेरे विचार मे बच्चों को समय से पहले उन दुखों और परेशानियों को दुखद तरीके से परिचित करवाते हैं. इस मे नाजुक बनाने वाली कोई बात नही है, मै बच्चों को नाजुक बनाने का पक्षधर नहीं – टाईमिंग की बात है और तरीके की! मुझे तो लगता है की आज-कल बच्चे यूँ भी बहुत जल्दी समझदार हो जाते हैं -शायद दोनो ही ओर (समाज और बच्चों मे) मासूमियत की उम्र कम ही होती जा रही है और मियाद भी! शायद इसीलिए बच्चे भी हिंसक होते जाते हैं.
एक शेर मै भी पेल देता हूँ –
बच्चों को छोटे हाथों को चाँद-सितारे छूने दो
चार किताबें पढकर ये भी हम जैसे हो जाएंगे.
कि बच्चों जल्दी बडा होने के तुम खिलाफ हो. किसी भी
आदमी में इंशानियत ,हैवानियत जैसी बातें तो सब होती ही
हैं. कोई फीती थोडी काटना पडता है उसे पैदा करने के लिये.
समय मिलने पर गुण उभर आता है.ये समझ लो गुण/अवगुण
तो ईंधन हैं जो हमेशा स्टाक में रहते हैं. कोई खास परिस्थिति
बन जाती है .स्पार्क तथा इग्नीशन प्वाइंट से मामला ऊपर चला
जाता है.हामिद कौनो पैदाइसी हीरो नही है.परिस्थितियोँ का
शिकार है.विपरीत परिस्थितियों मे उसके गुण उभरते हैं.यह
लेखक का आदर्श है. वास्त्विकता मे कुछ कम होगा कुछ ज्यादा.
हैरी भी कल्पना है.दोनोँ लेखकों की कल्पनायें अपने समाज,
समय के अनुसार विस्तार लेती हैं.
यह सच है कि हामिद की परिस्थितियां किसी भी समाज के
लिये शर्म की बात है.आदर्श स्थिति में ऐसा नहीं होना चाहिये.
लेकिन वास्तव में जो है हम उसे सिर्फ इसलिये अनदेखा नहीं
कर सकते कि वह चुभता है.जी को बुरा लगता है.यह सोच
तो-’मुंदुह्वु आंख कतहुं कछु नाहीं’ वाली है.
और स्वामीजी, अगर हामिद का सच चुभता है जो कि बहुसंख्यक
दुनिया का सच है तो यह तो और भयावह है कि हैरी जैसा मासूम
बच्चा खिलौने खेलने की उमर में संहारक शक्तियों की उपासना कर्
रहा है.शैतान को संहार करने के लिये उस उमर मे लगा है
जब उसे खिलौने चाहिये.यहां हामिद तो कम से कम
बच्चोँ से रुबरु है तथा खिलौने देखे के ललचाता है.मिठाई
देखकर मुंह मे पानी आता है.हैरी तो जुटा है सँहार करने
मेँ.क्या बचपना है!
एक बात जो सबसे अहम है वह यह कि किसी भी भाव
को ग्रहण करने की कोई उमर नहीं होती.चलो सुन लो
तुम भी एक शेर्-
घर से मस्जिद बहुत दूर है चलो यूं कर ले,
किसी रोते हुये बच्चे को हंसाय जाये.
अनलर्निँग की बात तो ठीक है पर फिट नहीं हो पायी
ठीक से लगता है.क्या हिँसा सीखना इसलिये सराहनीय
है कि बाद में जब कहीं कोई बम/जहाज गिरे तब
जब बडे लोग हमें समझायें तब हम झट से हिंसा को
‘अनलर्न’करके करुणा लपेट लेँ .अनलर्निग तो यार
मैनेजमेंट् का फंडा है.जो ग्यान का बोझ कम करने के
लिये बताया जाता है.यह तो गेजुएशन के बाद की कहानी है.
कहां बच्चोँ मेँ ठेल रहे हो इसे.बहरहाल तुमने इतनी
टाइपिंग कराई है जवाब देने के लिये.ऊपरवाला सारा
हिसाब देख रहा होग.
अतुल ,आशीष को पढने सराहने के लिये शुक्रिया.चन्द्र्कान्ता
को नेट पर् लाने का कुछ काम चल रहा है.
हामीद का समय से पहले बडा हो जाना, हमे चुभता है यह इस कहानी की सफलता है.
रहा सवाल हरी पुत्तर(हैरी पोटर) का चन्द्रकांता उसका सबसे बडा जवाब है, लेकीन हमारी मानसीकता ही कुछ ऐसी बन गयी है कि हमे आयातीत चिजे ही पसंद आती है. हमारे चाचा चौधरी, बिल्लु, पिन्की किसी से कम हैं क्या ?
पंचतत्र या हितोपदेश की कहानिया बच्चो को मायावी दुनिया मे नही ले जाती, वे स्वस्थ मनोरंजन के साथ एक अच्छे व्यक्तित्व की निवं भी डालती है. लेकीन हम अपनी चिजो पर ध्यान उस वक्त देते है जब कोई विदेशी हमे बताता है कि आपकी ये चिज काफी अच्छी है(योग, आयुर्वेद इसके उदाहरण है).
आशिष
हैरी पाटर कल्पनाशीलता को उभारता है और इस के लिए अनोखे चरित्रों का सहारा लेता है. आज के सेल फोन कभी विज्ञान फँतासी स्टार-ट्रेक का हिस्सा थे तब के बच्चो ने उसे आज कर दिखाया. आज उडने वाली कारों की परिकल्पना कल का सच होंगी. आईंस्टाईन ने कहा था “कल्पना ज्ञान पर भारी है!” कौन जाने हैरी का कोई जादूई नुस्खा कोई बालक कल हकीकत मे बदल दे.
ने कहा कि हैरी से कोई सीख नहीं मिलती तथा फिर
बता रहे हो कि मैं यह नहीं मानता. मैंने बहुत शुरु
में ही कहा था कि न मुझे हैरी पाटर से चिढ है न ही
लगाव. वह भी एक चरित्र है,हामिद भी एक चरित्र है.
मुझे हमिद का सच अपना सच लगता है. यह तब से
लगता आया है जब आर्थिक रूप में हामिद के आसपास
था.इससे तथा इस जैसी कहानियों से ताकत लेकर मैं
उस समय भी अपनी तमाम वंचनाओं की ऐसी-तैसी
करता रह और आज भी जो कोई भी अभाव का भाव्
हाबी नहीं हो पाता तो उसका बहुत बडा कारण इस
जैसी ही कुछ कहानियां रहीं.ऐसा ही साहित्य रहा.
न इसने मुझमें तब अपराध-बोध दिया न आज देती
है.यह तब भी मुझको ताकत देती थी आज भी उतनी
ही अपनी लगती है.यह निर्भर करता है कि आप किसी
से किस रूप में क्या ग्रहण करते हैँ.अगर हैरी पाटर
से आप कुछ सीख लेते हैँ तो इसके लिये आप आजाद
हैं.ये जो गुप्तजी की कविता है वह भी अपवादोँ को नियम
के कपडे पहनाने वाली बात है.अगर एक डाकू वाल्मीकि
बन गया तो सारे दुनिया के डाकुओ की पूजा करो काहे
से कि ये आगे चल के वाल्मीकि बनने वाले हैं.स्टार ट्रैक
/सेलफोन वाली बात पर तो हम यह ही कहेंगे कि यह
हमारे धार्मिक लोगों वाला अँदाज है जो यह मानता है
कि दुनिया में आज जो हो रहा है वो तो हजारों साल
पहले भारत में हो चुका है.पुष्पक विमान,एटम बम
सब थे हमारे यहां.स्टारट्रेक तो अभी आया ,हमारे
यहां तो हजारों सालोँ पहले था यह सब कुछ.
यह बात तो बहुत बढिया लगी।
@ मध्यमवर्गीयों की यह चिन्ता ज्यादा बड़ी भूमिका अदा करेगी कि हमारा बच्चा इस हीन भावना से पीड़ित न हो जाये कि हाय,हमने हैरी पाटर नहीं पढ़ी। दुनिया के ‘लेटेस्ट ट्रेन्ड’ से कदमताल करते रहने की मजबूरी ज्यादा बड़ा कारण है इस किताब
की धुआंधार बिक्री । आठ सौ रुपये में आप कूड़ा भी खरीदें तो उसका गुणगान करना आपकी मजबूरी बन जाती है।
और हां, ईस्वामी जी ने जो शशि कपूर का वाकया बयां किया है तो एक वाकया मुझे भी याद आ रहा है जिसे मैंने मन्नू भण्डारी जी की आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ में पढ़ा था जिसमें उन्होंने लिखा है कि जब उनकी छोटी सी बच्ची की तबीयत खराब हुई और वह उसे अस्पताल ले जाने की जद्दोजहद में लगीं थी तब राजेन्द्र यादव उसे अस्पताल ले जाने की बजाय अपने लेखकीय मित्र मंडली से मिलने गये एक अदद बहाना बनाकर। यह भेद बाद में किसी फोन से पता चला कि उन्हें अपनी बच्ची की चिंता की बजाय अपने मित्र मंडली में समय बिताना ज्यादा ठीक लगा।
खैर, इंसान इंसान में फर्क होता है, किसी पर किसी बात का क्या असर पड़ता है यह बहुत कुछ परिस्थितियों और मानसिकता पर भी डिपेंड करता है।
पुरानी पोस्टें लगता है अभी और खंगालनी होगी ।
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)
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