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टाइटिल-टिप्पणी सटे-सटे से
आज आलोक पुराणिक और ज्ञानदत्त ,दोनों जी , ने लिखने का मूड बिगाड़ दिया। आलोक जी लेट हो गये और पांडेयजी तो लगता है लेट ही गये।
अब समय चूक गया तो पछताने से क्या होगा? सोचते हैं जो लेख लिखे गये उनके शीर्षक और उन पर अपनी प्रतिक्रिया ही आपको बता दें-
१. आज़ादी की एक और वर्षगांठ नहीं मना पायेंगे - निराश न हों। आदमी चाहे तो क्या नहीं कर सकता। मना ही लीजिये। सिर्फ़ बदलाव के लिये ही सही। जस्ट फ़ार अ चेंज!
२.रोज एक शेर - शेर के अकेलेपन को दूर करने के लिये शेरनी का भी इंतजाम किया जाये। जोड़े से लायें।
३. बस्तर लोहा गरम है- मारा जाये ह्थौड़ा। आये कोई स्वयंसेवक हम अभी पोस्ट लिख रहे हैं।
४. हिंदुस्तान अमरीका बन जाये तो कैसा होगा”- वही होगा जो मंजूरे खुदा होगा।
५.आमंत्रण है उद्घाटन का- फ़ीता कौन काटेगा राकेशजी! फूल-माला,
नारियल-वारियल मंगवा चुके हैं। किसके सर पर फोड़ा जाये।
नारियल-वारियल मंगवा चुके हैं। किसके सर पर फोड़ा जाये।
६. हैदराबाद: सात पसंदीदा बातें- सात ही क्यों सत्तर क्यों नहीं? बाकी की क्या सागर बतायेंगे? नापसंद बातें कौन बतायेगा? आधा-अधूरा काम हमें पसंद नहीं भाई।
७.मानसून में संसद- कहीं डूब न जाये। नाव, मोटरबोट, लाइफ़ जैकेट और कल्लू मल्लाह को बुलावा लें।
८. दिल के दरमियाँ की हॉफ सेंचुरी: अब थोड़ा तेज बैटिंग कीजिये। स्कोर बढ़ाना है। कोलस्ट्राल चेक करवा लें, ईसीजी, टीएमटी वगैरह भी करवा दें। पचास के बाद सावधान रहना चाहिये।
९.बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन से हाथापाई: ये अच्छी बात नहीं है।
१०. स्टेटस सिम्बल: हमारे पास भी आओ न!
११. तस्लीमा, हम शर्मिंदा हैं:अरे इसमें शरमाना कैसा? ये तो यहां होता ही रहता है। इट्स रूटीन। सब ठीक हो जायेगा। हम हैं न!
१२.शाम-ए-अवध: अरे अब सबेरा हो गया! उठो लाल अब आंखें खोला/पाया आया होगा मुंह धो लो।
१३.तन में तंत्र मन में मंत : यही है अपने भारतदीप का गणतंत्र!
१४. स्वतन्त्रता संग्राम से थका देश : सठियाने पर थकान स्वाभाविक है। थोड़ा आराम कर लें। च्युंगम चबायें, थ्रेप्टिन के बिस्कुट खायें। सारी थकान दूर भगायें।
१५. सोनिया गाँधी को आप कितना जानते हैं: हम बीबी, बाल-बच्चे वाले हैं। परायी बहू-बेटियों के बारे में ताक-झांक नहीं करते। और फिर सोनियाजी ही कौन हमारे बारे में कुछ जानती हैं।
१६. फल खाने लायक कोई नहीं.. : किसी डाक्टर से किसी कम्पनी का रियल जूस टाइप नुस्खा लिखवा लें।
१७. अज़ब पागल सी लड़की है : इसके चक्कर में न ही पड़ो मनीष तो अच्छा है। चिट्ठी विट्ठी भी मत लिखो। लफ़ड़ा होगा बेकार में। बच के रहना। तुम्हारे घर में ब्लागिंग भी नहीं करता कोई जो बचाव के लिये सामने आ जाये।
१८. शादी से पहले और शादी के बाद: सब तरफ़ बवाल है।
१९.माउंटबेटन के कारण जल्दी मिली आजादी!: सच! उनको भारत रत्न मिला कि नहीं अभी तक!
२०. ज़िंदगी, मेरे घर आना, ज़िंदगी !:आयेंगे रवि भाई आयेंगे आपके घर भी आयेंगे। अभी तो दम मारने की फ़ुरसत नहीं है। आप भी कभी-कभी निकला करिये घर से। भांजी की सगाई तक मे घर में बने रहे। उसकी शादी में आ रहे हैं न एक दिसम्बर को!
२१. आज 9 अगस्त है: कैलेंडर देखो संजय जी। आज दस हो गयी।
अब जब इत्ती देर हो गयी तब आये पाण्डेयजी। बता रहे हैं कि श्रीलाल शुक्ल जी की याद में खोये थे।
लेकिन अब हम कुछ नहीं बोलेंगे। हम जाइति है दफ़्तर! बहुत काम परा है!
ये भी देखें:
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फ़ुरसतिया
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
कतने अच्छे हो आप, ऐसन चर्चा कर देत हौ कि सब इहैं मिल जात है पढ़ने को। शुक्रिया!!
हा हा, बहुत खूब
देरी के लिए क्षमा, असुविधा के लिए खेद है
भविष्य में शिकायत का अवसर ना मिले, ऐसा प्रयास रहेगा।
आपके वन लाइनर धांसू व फांसू होते हैं, ऐसा कहना निहायत पुनरावृत्ति होगी।
क्या ये नियमित नहीं ना हो सकता।
आलोक पुराणिक
neelima ji
aap nae jo kuch likha woh bilkul sahii tha per aap us samey kyo chup thi jab maseejivi ji nae mujeh nishana banaya tha . kyoki aap ki kalam ki dhar nae ek nari ek paksh mae likhnae sae inkar kiya ? kya nari patni bakar naari hona bhul jaati hae
shmaa kare dukh daene ki mansha nahin he per such hae kii aap ko us samey bhi likna chaheeyae tha jab mae akeli virodh kar rahin thi . mujeh bhi us din yehi mehsoos hua that ki mujeh naari honae ki vajeh sae samjhaya ja rahaa hae aaur naa samajeh aanae ki sithtii mae blogging kae maadhyam sae maseejevi ji apani brras nikal rahen rhaen hae .
vase patni dharm nibhana kab sae galat hogyaa !! pataa nahin chalaa
इन्दौर। इन्दौर की ऐतिहासिक इमारत ’राजवाड़ा’ के निकट स्थित वूलन शालों के लिये प्रसिद्ध प्रतिष्ठान ’नन्दलाल स्टोर्स’ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर अपने सफ़ल व सार्थक 59 वर्ष पूर्ण कर 60 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। संस्थान के प्रमुख श्री धनराज वाधवानी ने बताया कि ’नन्दलाल स्टोर्स’ की स्थपना वर्ष 1948 में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ दिन स्व. श्री नन्दलाल वाधवानी ने की थी। वूलन शॉल के व्यापार में अग्रणी ’नन्दलाल स्टोर्स’ की देश में अपनी साख है। श्री वाधवानी अपनी सफ़लता का श्रेय ग्राहकों के विश्वास एवं ग्राहकों की सन्तुष्टि को देते हैं। ’नन्दलाल स्टोर्स’ पर समस्त उत्तरी भारत की शॉलें प्रमुख रूप से उपलब्ध हैं। संस्थान काश्मीरी, हिमाचल व पंजाब आदि की कढ़ाई-बुनावट वाली, प्लेन पोत, टाई एण्ड डाई, बार्डर–पल्लू, बूटी, जाल-बार्डर वाली आदि आकर्षक रंगों व कलात्मक डिज़ाईनों में सभी प्रकार की, रोजमर्रा के पहनने योग्य, विशेष व शुभ अवसरों पर पहनने, घर में या सफ़र में पहनने–ओढ़ने लायक, सगाई, शादी-विवाह, बिदाई, स्वागत व सम्मान समारोह आदि अवसरों पर भेंट में देने योग्य, चिरस्थाई यादगार बन जाने वाली विभिन्न किस्म की लेडिज़ व जेंट्स शालों के व्यवसाय में संलग्न है। ’नन्दलाल स्टोर्स’ का स्लोगन ही है- ’शालें ही शालें, दुकान ही शालों की’ । श्री वाधवानी बताते हैं कि परम्परागत, लाजवाब भारतीय शालों का विश्व के किसी अन्य देश मे कोई जवाब नहीं है। इसी प्रकार विभिन्न विदेशी ब्राण्डेड मिलों द्वारा शॉल बनाने के भरपूर प्रयासों के बावजूद, इस हस्त शिल्प के मुकाबले किसी को भी विशेष सफ़लता नहीं मिली है। श्री वाधवानी के अनुसाअर ’नन्दलाल स्टोर्स’ को शॉल की दुकान मात्र कहना नाकाफ़ी होगा, वस्तुतः यह शॉल रूपी कलाकृतियों का संग्रहालय या कहना चाहिये कि इनसाक्लोपीडिया है। यहां की शॉलें सिर्फ़ शॉलें नहीं होकर लुप्तप्रयः हो रहे कारीगरों द्वारा सॄजन की हुई, करीने से सजाई हुई, कल्पनाएं संजोई हुई, सम्मान-सत्कार, स्मॄतियों, सद्भावनाओं व स्नेह की निरंतर प्रतीक बन जाने वाली कलाकृतियां हैं। श्री धनराज वाधवानी के अनुसार शालों के चयन में उनके बुजुर्गों का, सदियों का, परखने का अनमोल अनुभव उन्हें विरासत में मिला है। कॄत्रिमता से दूर, वूलन शालों का निर्माण प्राकृतिक रा-मटेरियल से होने के कारण प्राकृतिक अहसास करवाता है। देश के अनेक ठण्डे क्षेत्रों में घर-घर में बनारसी साड़ियों की तरह कढ़ाई–बुनाई से ये कृतियां बनती हैं। जहां तक काश्मीर का सवाल है, हालात खराब होने के बावजूद वहां शॉल की कारीगरी में कोई कमी नहीं आई है बल्कि पर्यटन में अवरोध के कारण इस कला की ओर विशेष अतिरिक्त ध्यान दिया जा रहा है। शालों के कपड़े, कढ़ाई–बुनाई की किस्मों व नामों का कोई अंत नहीं है। नित नये नाम रखे जाते हैं, कला की नई सृष्टि होती रहती है। शालों का फ़ैशन अनंतकाल तक चलता रहेगा, सैकड़ों वर्ष पूर्व प्रचलित शॉलें भी हमेशा फ़ैशन में बनी रहेंगी। जो सुख परमपरागत शालों के औढ़ने व भेंट करने में मिलता है वह अमूल्य है और अन्य वस्तुओं से मिलना दुश्वार है, अतः शॉल का कोई अन्य विकल्प नहीं हो सकता है। वूलन शॉल व्यवसाय वैसे तो सीजनल है किन्तु ’नन्दलाल स्टोर्स’ बारहों महीनें इसमे संलग्न रहता है। आशय यह है कि ’नन्दलाल स्टोर्स’ शॉल का पर्यायवाची बन गया है। वर्षगांठ के अवसर पर श्री धनराज वाधवानी ने समस्त स्नेहियों एवं शुभचिंतकों का ह्रदय से आभार माना है।