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मैं लिखता इसलिये हूं कि…
By फ़ुरसतिया on August 9, 2007
(आज प्रमोद्जी ने श्रीलाल शुक्लजी का लेख पढ़वाकर हमें भी उकसा दिया। इसी उकसावे के चलते मैंने शुक्लजी के लेखों के संकलन की किताब जहालत के पचास साल में शामिल इस लेख को टाइप कर डाला। इसे टाइप करते हुये यह भी सोच रहा था कि इस बार श्रीलालजी के जन्मदिन (31 दिसम्बर)के पहले रागदरबारी को पूरा टीप कर नेट पर डाल दूं)
नदी किनारे जो मल्लाह रहते हैं उनके बच्चे होश संभालने से पहले ही नदी में तैरना शुरू कर देते हैं। अपने परिवार के कुछ बुजुर्ग लेखकों की नकल में मैंने भी बचपन से ही लिखना शुरू कर दिया था। चौदह-पन्द्रह साल की उम्र तक मैं एक महाकाव्य(अधूरा), दो लघु उपन्यास(पूरे), कुछ नाटक और कई कहानियां लिख चुका था। नये लेखकों को सिखाने के लिये उपन्यास-लेखन की कला पर एक ग्रन्थ भी शुरू किया था, पर वह दो अध्यायों के बाद ही बैठ गया।
वह साहित्य जितनी आसानी से लिखा गया, उतनी ही आसानी से गायब भी हुआ। गांव के जिस घर में मेरी किताबें और कागज पत्तर रहते थे, उसमें पड़ोस का एक लड़का मेरे चाचाजी की सेवा के बहाने आया करता था। उसे किताबें पढ़ने और चुराने का शौक था। इसलिये धीरे-धीरे मेरी किताबों के साथ मेरी पांडुलिपियां भी लखनऊ के कबाड़ियों के हाथ में पहुंच गयीं। बी.ए. तक आते-आते मैंने दो उपन्यास लिखे, तीन कविता संग्रह दो साल पहले ही तैयार हो चुके थे। वे भी लखनूऊ के कबाड़ियों के हाथ पड़्कर पड़ोसी के लड़के के लिये दूध-जलेबी के रूप में बदल गये। एक तरह से यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि पूर्ण वयस्क होकर जब मैंने लिखना शुरू किया तो मेरी स्लेट बिल्कुल साफ़ थी। मैं अतीत का खुमार ढोने वाला कोई ऐरा-गैरा लेखक न था; मैं एक पुख्ता उम्र की ताजा प्रतिभा विस्फोट की तरह साहित्य के चौराहों पर प्रकट हुआ, यह अलग बात है कि यह सोचने में काफ़ी वक्त लगा कि कहां से किधर की सड़क पकड़ी जाये।
बहरहाल, सवाल फ़िर भी अपनी जगह बना हुआ है: मैं क्यों लिखता हूं? सच तो यह है कि इस पर मैंने कभी ज्यादा सोचा नहीं, क्योंकि जब-जब सोचा तो लिखना बन्द हो गया। अब इसका जवाब कुछ अनुमानों से ही दे सकता हूं। पहला तो यह कि लेखन-कर्म महापुरुषों की कतार में शामिल होने का सबसे आसान तरीका है। चार लाइने लिख देने भर से मैं यह कह सकता हूं कि मैं व्यास, कालिदास, शेक्सपीयर, तोल्सताय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और प्रेमचन्द की बिरादरी का हूं।
इसके लिये सिर्फ़ थोड़े से कागज और एक पेंसिल की जरूरत है। प्रतिभा न हो तो चलेगा, अहंकार से भी चल जायेगा- पर इसे अहंकार नहीं लेखकीय स्वाभिमान कहिये। लेखकों के बजाय आप किसी दूसरी जमात में जाना चाहें तो वहां काफ़ी मसक्कत में करनी पड़ेगी; घटिया गायक या वादक बनने के लिये भी दो-तीन साल का रियाज तो होना चाहिये ही। लेखन ही में यह मौज है कि जो लिख दिया वही लेखन है, अपने लेखन की प्रशंसा में भी कुछ लिख दूं तो वह भी लेखन है।
जैसे निराला ने ‘गीतिका’ लिखी; वह कविता थी। उसकी प्रशंसा में ‘मेरे गीत मेरी कला’ लिखी ;वह आलोचना थी।
इसके लिये सिर्फ़ थोड़े से कागज और एक पेंसिल की जरूरत है। प्रतिभा न हो तो चलेगा, अहंकार से भी चल जायेगा- पर इसे अहंकार नहीं लेखकीय स्वाभिमान कहिये। लेखकों के बजाय आप किसी दूसरी जमात में जाना चाहें तो वहां काफ़ी मसक्कत में करनी पड़ेगी; घटिया गायक या वादक बनने के लिये भी दो-तीन साल का रियाज तो होना चाहिये ही। लेखन ही में यह मौज है कि जो लिख दिया वही लेखन है, अपने लेखन की प्रशंसा में भी कुछ लिख दूं तो वह भी लेखन है।
जैसे निराला ने ‘गीतिका’ लिखी; वह कविता थी। उसकी प्रशंसा में ‘मेरे गीत मेरी कला’ लिखी ;वह आलोचना थी।
अब चाहे बचपन की आदत या बड़ों की देखा देखी साहित्यकारों की कतार में घुसने का शौक -जिस किसी भी कारण से आप जब लिखना शुरू करेंगे तो पायेंगे कि उससे कुछ हसीन खुशफहमियां फूट रही हैं। पहली तो यह कि “मैं बिना लिखे नहीं रह सकता” या “लिखना मेरे लिये आत्माभिव्यक्ति की मजबूरी है।” दूसरी यह कि “पांच दसक से मैं गहरी साहित्य साधना में लीन हूं।” यानी, एक ओर जब नई पीढ़ी शोर मचाकर हिंदी के इस बहुप्रचलित मुहावरे का प्रयोग आप पर कर रही हो कि ‘यह लेखक चुक गया है’ तब अपनी रायल्टी, पारिश्रमिक आदि तो आप बोनस में लीजिये और ‘दीर्घ कालीन, संघर्षपूर्ण साहित्य साधना’ की ढींग ऊपर से हांकिये। मुगालता टूट रहा हो तो अपना अभिनन्दन कराके साहित्य सम्मेलनी भाषा में अपने को ‘मां वाणी का अमर पुत्र’ घोषित करा लीजिये।
लिखने का एक कारण मुरव्वत भी है। आपने गांव की सुन्दरी की कहानी सुनी होगी। उसकी बदचलनी के किस्सों से आजिज आकर उसकी सहेली ने जब उसे फ़टकार लगाई तो उसने धीरे समझाया कि ” क्या करूं बहन, लोग जब इतनी खुशामद करते हैं और हाथ पकड़ लेते हैं तो मारे मुरव्वत के मुझसे ‘नहीं’ नहीं कहते बनती।” तो बहुत सा लेखन इसी मुरव्वत का नतीजा है- कम से कम , यह टिप्पणी तो है ही! उनके सहयोगी और सम्पादक जब रचना का आग्रह करने लगते हैं
तो कागज पर अच्छी रचना भले ही न उतरे, वहां मुरव्वत की स्याही तो फ़ैलती ही है।
तो कागज पर अच्छी रचना भले ही न उतरे, वहां मुरव्वत की स्याही तो फ़ैलती ही है।
इतनी देर से मैं लिखने के जो भी कारण बता रहा था, आपने देखा होगा कि घुमा-फ़िराकर मैं वही कह रहा हूं जो साहित्य के पुराने आचार्य पहले ही कह गये हैं।
जैसे, काव्यं यशसे( कविता यश प्राप्त करने के लिये लिखी जाती है), अर्थकृते (रुपये के लिये लिखी जाती है) आदि-आदि। मेरे बुजुर्ग भगवतीचरण वर्मा रुपये वाले कारण को ही साहित्य रचना का प्रेरणा स्रोत मानते थे, भले ही उन्हें खुद ही उस पर पूरा यकीन न रहा हो। 1940 के आसपास गंगा पुस्तकमाला के संचालक दुलारेलाल भार्गव से उन्होंने कुछ आर्थिक सहायता मांगी। भार्गवजी ने कहा,” पहले कोई किताब दीजिये।” वर्माजी ने बाजार जाकर एक मोटी कापी खरीदी, उसमें एक दिन के भीतर पचास-साठ कवितायें और गद्यगीत आशुकवि वाले अन्दाज में लिखे और दूसरे दिन उसे भार्गवजी को देकर उनसे मनचाहा एडवांस ले आये। इस कविता-पुस्तक का नाम ,जैसा कि होना चाहिये, ‘एक दिन’ है। पहली कविता की शुरुआत यूं होती है-
जैसे, काव्यं यशसे( कविता यश प्राप्त करने के लिये लिखी जाती है), अर्थकृते (रुपये के लिये लिखी जाती है) आदि-आदि। मेरे बुजुर्ग भगवतीचरण वर्मा रुपये वाले कारण को ही साहित्य रचना का प्रेरणा स्रोत मानते थे, भले ही उन्हें खुद ही उस पर पूरा यकीन न रहा हो। 1940 के आसपास गंगा पुस्तकमाला के संचालक दुलारेलाल भार्गव से उन्होंने कुछ आर्थिक सहायता मांगी। भार्गवजी ने कहा,” पहले कोई किताब दीजिये।” वर्माजी ने बाजार जाकर एक मोटी कापी खरीदी, उसमें एक दिन के भीतर पचास-साठ कवितायें और गद्यगीत आशुकवि वाले अन्दाज में लिखे और दूसरे दिन उसे भार्गवजी को देकर उनसे मनचाहा एडवांस ले आये। इस कविता-पुस्तक का नाम ,जैसा कि होना चाहिये, ‘एक दिन’ है। पहली कविता की शुरुआत यूं होती है-
एक दिन
चौबीस घंटे
एक घंटे में मिनट हैं साठ!
गनीमत है कि व्रर्माजी की एक पुस्तक का नाम ‘तीन वर्ष’ भी है।
-श्रीलाल शुक्ल
(श्रीलाल शुक्लजी की पुस्तक जहालत के पचास साल से साभार)
(श्रीलाल शुक्लजी की पुस्तक जहालत के पचास साल से साभार)
Posted in मेरी पसंद, लेख | 18 Responses
फिर ‘पहला पड़ाव’ और ‘विश्रामपुर का संत’ की बारी आएगी. उसका भी रास्ता निकलेगा. और नहीं तो उसी के लिए मैं कुछ बच्चे पैदा करने को मजबूर हो जाऊंगा.
राग दरबारी के लिये शुभ कामनाये..
आप तो गुरु पढ़वाते ही रहो बस ऐसे ही!!
राकेशजी, डालेंगे प्रकाश भी।
सभी की प्रतिक्रियायों का शुक्रिया।