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एक ऐसे ही हड़बड़िया पोस्ट
By फ़ुरसतिया on February 16, 2008
आज की पांडेयजी की पोस्ट देखकर पढकर घर बैठे दफ़्तर याद आ गया। रोज सबेरे सोचते हैं कि आज सारे काम निपटा दिये जायेंगे लेकिन दफ़्तर पहुंचते ही लगता है कि काम तो न निपटेगा हम भले निपट जायें। कुछ ऐसे -
सबेरा अभी हुआ नहीं है
लेकिन लगता है कि
यह दिन भी सरक गया हाथ से
हथेली में जकड़ी बालू की तरह।अब सारा दिन फ़िर
इसी एहसास से जूझना होगा।
ऐसे में क्या विचार करें? ऐसा नहीं कि एकदम्मैं नहीं करते हैं। करते हैं। कई बार करते हैं लेकिन अक्सर फ़िर विचार को तहाकर किनारे रख देते हैं और बेचारे होकर काम में लग जाते हैं।
ऐसे समय में जब कि सरकारी उपक्रम कामचोरी और लेटलतीफ़ी के लिये जाने जाते हों अपने कई साथियों को सबेरे साढे़ आठ से लेकर शाम छह सात तक लगातार अपने-अपने काम में व्यस्त देखना भी अपने आप में खास अनुभव है।
इस बीच व्यस्तता के कारण लिखना भले कम हो गया लेकिन पढ़ना कुछ-कुछ होता रहता है। अक्सर बहसें भी पढ़ते हैं। कभी-कभी बहस का ‘अस्तर’ इतना उंचा होता ही है कि समझ में ही नहीं आता कि बहस वीर कहना क्या चाहते हैं। मजे की बात यह भी लगती है कि लोग किसी खास को हड़काते हुये जनता को भड़काते हुये लम्बी पोस्ट लिखते है। हमें अटपटा लगता है। हम सोचते कि कित्ती गलत बात है कि एक व्यक्ति को इत्ती बुरी तरह जलील करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन बाद में पता लगता है कि वे व्यक्ति को नहीं विचार को गरिया रहे थे।
हम सोचते हैं कि गुरू ये बढिया है। व्यक्ति विचार का पोस्ट बाक्स हो गया है। व्यक्ति पर चोट पहुंचेगी तो विचार अस्पताल पहुंच जायेगा मरहम पट्टी कराने।
बड़ा हीनभाव भी महसूस होता है जब उन जुमलों और शब्द समूहों के बारे में जानकारी ही नहीं होती मुझे जो बहसों में इस्तेमाल होते हैं। घेटो,……,……,……, न जाने कित्ते शब्द समूह हैं ऐसे। जानकारी के अभाव में मजा नहीं ले पाते बहस का। मजा शायद गलत लिख गये। बहस का मजा लेने से बहुत लोगों को कष्ट होता है। हुआ है। लेकिन लिख गये तो लिख गये। अब काटेंगे नहीं। खेद प्रकट कर देते हैं यहीं। जिनको बुरा लगा वे खेद भी ग्रहण करते जायें।
हमारा बहस का सौंदर्य बोध भी थोड़ा चौपट है। जो बात हमको लगती है कि इत्ती बुरी किसी व्यक्ति के लिये नहीं लिखी जानी चाहिये, किसी के विचार को उसके जातिवाद से नहीं जोड़ना चाहिये , यह नहीं कि किसी यशवंत सिंह ने प्रमोद सिंह जी के लिये कुछ लिखा तो वह सिर्फ़ जातिवाद से प्रेरित है। जो बात हमें टुच्ची लगती है पता लगता है वह स्वस्थ बहस है।
हम सच्ची में भ्रमित हैं।
बकिया फ़िर कभी। अभी तो दफ़्तर बुला रहा है।
Posted in सूचना | 8 Responses
इसी एहसास से जूझना होगा।”
वाह क्या सही लिखा है. हमारी भी यही कहानी है
ईर बोले बहस। बीर बोले बहस। फत्ते बोले बहस। त फुर्सतियउ बोले – हमहूं कहत हई बहस!
हथेली में जकड़ी बालू की तरह।
–सच में हर रोज यही होता है…..