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बहुत दिन पहले पढ़े एक गीत की लाइने काफ़ी दिन से याद आ रही हैं- चुपाय रहव दुलहिन मारा जाई कउवा।
पूरा गीत काफ़ी खोजा लेकिन अभी तक मिला नहीं। पता चला है कि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का गीत है यह। देखते हैं कब मिलता है।
चुपाय रहव दुलहिन मारा जाई कउवा का मतलब यही है कि कोई सास अपनी बहू से कह रही होगी- अरे बहू चुप हो जा, ये कौवा मारा जायेगा।
कौवा असगुन का प्रतीक माना जाता है। जिसकी सर/छत पर आकर बोलता है वहां किसी बुरी खबर के आने की आशंका होती है। गांव में लोग कमाने- धमाने के लिये बाहर जाते होंगे। किसी की छत की मुडेर पर आकर कौवा कांव-कांव करने लगा होगा। दुल्हिन सिहर जाती होगी। हाय कहीं कोई बुरी खबर तो नहीं दे रहा है ये कौवा। वह आशंकित हो जाती होगी। अब हमारा क्या होगा? अब कोई मोबाइल तो होगा नहीं उसके पास जो झट से पूंछे- कैसे हो? हाऊ आर यू? सुबह से फोन क्यों नहीं किया? कब आओगे? आई मिस यू?
बहू डर जाती है। बु्रे की आशंका से। कहीं कुछ अघटित न घट गया हो? रोने लगती होगी। सास उसे चुप कराती है। चुप हो जाओ। ये बुरी खबर सुनाने वाला मारा जायेगा। पूरे गीत के पता नहीं क्या मतलब हों लेकिन शीर्षक यही संकेत देता है। बुरी खबर सुनाने वाला मार दिया तो मानो सब कुछ सही हो जायेगा।
इससे यह भी लगता है कि सास को अपनी बहू के दुख की चिंता है। उसे दुखी देखकर वह चिंतित हो जाती है। उसे समझाने का प्रयास करती है। उसके परिवार में आया हुआ अपशकुन उसके लिये भी उत्ता ही बुरा हो शायद लेकिन वह उन्हें झेलने की आदी हो गयी हो्गी। उसे दुख सुनने-सहने की आदत हो गयी हो गयी होगी। तभी वह बहू को और उसके बहाने शायद अपने को बहलाती होगी।
यह भी लगता है कि उस समय संयुक्त परिवार होते होंगे। सासें बाकायदा बहुओं का ख्याल रखती होंगी। जरा सा रोते देखा, चुपवाने में जुट गयीं।
कौवा न जाने क्या -क्या सोचवाता है। बड़ा नठिया है। मारा जायेगा।
सीन बदल के देखो तो एक गाने में बालिका उछ्लती हुई गाती है- माई रे माई मुडेर पे मेरी बोल रहा है कागा!
कन्या रत्न उल्फ़ुल्ल है उस कौवे को बोलते देखकर जिसकी बोली सुनकर बहू हलकान हो गयी।
बहू जिसे सुनकर रोती है उसी को देखकर बिटिया गाना गाती है?
सास जिसकी तरफ़ से बहू का ध्यान हटाती है, उसे चुप कराती है, बिटिय़ा उसकी तरफ़ इशारा करके खुशी जताती है।
यह अंतर क्या समय का अंतर है? समय के साथ बातों के मायने बदल गये हैं। जिस कौवे का बोलना अपशकुन माना जाता था वह अब चहकने का वायस बन गया है।
इसे क्या बहू और बेटी का अंतर मान जाये! जिस बात को देखकर बहू रोने लगती है उसे देखकर बिटिया चहकने लगती है।
इस बीच कौवे ने क्या अपनी इमेज सुधार ली है?
चुपाय रहव दुलहिन मारा जाई कउवा
By फ़ुरसतिया on September 26, 2008
पूरा गीत काफ़ी खोजा लेकिन अभी तक मिला नहीं। पता चला है कि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का गीत है यह। देखते हैं कब मिलता है।
चुपाय रहव दुलहिन मारा जाई कउवा का मतलब यही है कि कोई सास अपनी बहू से कह रही होगी- अरे बहू चुप हो जा, ये कौवा मारा जायेगा।
कौवा असगुन का प्रतीक माना जाता है। जिसकी सर/छत पर आकर बोलता है वहां किसी बुरी खबर के आने की आशंका होती है। गांव में लोग कमाने- धमाने के लिये बाहर जाते होंगे। किसी की छत की मुडेर पर आकर कौवा कांव-कांव करने लगा होगा। दुल्हिन सिहर जाती होगी। हाय कहीं कोई बुरी खबर तो नहीं दे रहा है ये कौवा। वह आशंकित हो जाती होगी। अब हमारा क्या होगा? अब कोई मोबाइल तो होगा नहीं उसके पास जो झट से पूंछे- कैसे हो? हाऊ आर यू? सुबह से फोन क्यों नहीं किया? कब आओगे? आई मिस यू?
बहू डर जाती है। बु्रे की आशंका से। कहीं कुछ अघटित न घट गया हो? रोने लगती होगी। सास उसे चुप कराती है। चुप हो जाओ। ये बुरी खबर सुनाने वाला मारा जायेगा। पूरे गीत के पता नहीं क्या मतलब हों लेकिन शीर्षक यही संकेत देता है। बुरी खबर सुनाने वाला मार दिया तो मानो सब कुछ सही हो जायेगा।
इससे यह भी लगता है कि सास को अपनी बहू के दुख की चिंता है। उसे दुखी देखकर वह चिंतित हो जाती है। उसे समझाने का प्रयास करती है। उसके परिवार में आया हुआ अपशकुन उसके लिये भी उत्ता ही बुरा हो शायद लेकिन वह उन्हें झेलने की आदी हो गयी हो्गी। उसे दुख सुनने-सहने की आदत हो गयी हो गयी होगी। तभी वह बहू को और उसके बहाने शायद अपने को बहलाती होगी।
यह भी लगता है कि उस समय संयुक्त परिवार होते होंगे। सासें बाकायदा बहुओं का ख्याल रखती होंगी। जरा सा रोते देखा, चुपवाने में जुट गयीं।
कौवा न जाने क्या -क्या सोचवाता है। बड़ा नठिया है। मारा जायेगा।
सीन बदल के देखो तो एक गाने में बालिका उछ्लती हुई गाती है- माई रे माई मुडेर पे मेरी बोल रहा है कागा!
कन्या रत्न उल्फ़ुल्ल है उस कौवे को बोलते देखकर जिसकी बोली सुनकर बहू हलकान हो गयी।
बहू जिसे सुनकर रोती है उसी को देखकर बिटिया गाना गाती है?
सास जिसकी तरफ़ से बहू का ध्यान हटाती है, उसे चुप कराती है, बिटिय़ा उसकी तरफ़ इशारा करके खुशी जताती है।
यह अंतर क्या समय का अंतर है? समय के साथ बातों के मायने बदल गये हैं। जिस कौवे का बोलना अपशकुन माना जाता था वह अब चहकने का वायस बन गया है।
इसे क्या बहू और बेटी का अंतर मान जाये! जिस बात को देखकर बहू रोने लगती है उसे देखकर बिटिया चहकने लगती है।
इस बीच कौवे ने क्या अपनी इमेज सुधार ली है?
कऊवे की इमेज़ काहे बिगाड़ रहे हो ? उसके इतने बुरे दिन तो नहीं कि
ब्लागर का बुद्धिविलास विषय बने । यहाँ की काँव काँव में कऊव्वे की
क्या गति होगी…. जरा विचार कर देखो गुरु ? उसे बख़्स दो, वही तो
अब विरहिणी का एकमात्र संबल रह गया है !
कागा सबतन खाइयो चुन चुन खाइयो मांस
दो नैना मत खाइयो जिन पिया मिलन की आस
मुंडेरी पर बैठा कऊव्वा देख रहा है, कि..
पिया निर्मोहिया मोबाइल ही नहीं उठा रहे हैं !
वहू का मा्ड्डाले की अपशगुनी बात करके करेजा झकझोरे दे रहो है !
इतनी जोरदार पोस्ट के लिए अब कृपा कर एक मदद -गिरिराज किशोर जी का टेलीफोन नम्बर ,ई मेल और घर का पोस्टल अड्रेस देने का कष्ट करें .
drarvind3@gmail.com
पोस्ट का कद सही है
वैसे काले कौए का स्थान काले मोबाइल ने ले लिया है.
Regards
—————————————–
चुपाई मारो दुल्हिन
मारा जाई कौआ.
[१]
दे रोटी?
गयी कहाँ थी बड़े सबेरे
कर चोटी?
लाला के बाजार में,
मिली दुअन्नी
पर वह भी निकली खोटी,
दिन भर सोयी,
बीच बाजार में बैठ के रोई,
सांझ को लौटी
ले खाली झौआ.
चुपाई मारो दुल्हिन
मारा जाई कौआ.
[२]
दे धोती?
दिन भर चरखा कात
सांझ को क्यों रोती?
सूत बेचकर
पी आए घर में ताड़ी,
छीन लँगोटी,
काटी बोटी-बोटी,
किस्मत ही निकली खोटी,
ऊपर नेग मांगते हैं
ये बाभन-नौआ.
चुपाई मारो दुल्हिन
मारा जाई कौआ.
—————————————
कौवे के बहाने हमको तो बड़ी मनोरंजक और सटीक पोस्ट लगी ये ! धन्यवाद !
रूहेलखंड में मुंडेर पर कौए के बोलने का अर्थ, किसी मेहमान के आगमन की पूर्व सूचना मानी जाती है !बहुत प्यारा लेख है !
और कौवे बचे ही कहाँ है इमेज बचाने के लिए. यहाँ तो नहीं दीखते, हाँ कानपुर में बड़े दीखते थे… शाम को हजारों की झुंड में हमारे कैम्पस के पेड़ों पर आते थे.
बाकी गीत पहले नही सुना ।
बैठी सगुन मानवती माता
कब अययही मोरे बाल कुसल घर
कहहु काग फुरी बाता …
लेख सुन्दर लगा !!!!
यह सास-बहू के बीच की नोंक-झोंक का गीत है।
अनूप जी, आपको लोकसाहित्य का जो-जो याद आता जाय,उसे यहाँ ताजा कर डालिए। आगे की पीढ़ी आपको याद करेगी और धन्यवाद भी देगी।
अच्छी पोस्ट।
मैं तो अवधी का एक लोक गीत याद करता हूं – हन्नी-हन्ना (तारामण्डल जो काफी रात गये दीखता है) उग आये हैं, कचपचिया (तारामण्डल) दूर जा चुका है। सास जी अब क्या मेरे लिये हांड़ी हिला कर देख रही हो। उसमें तो जो कुछ था, उसे कुत्ता खा कर जा चुका है।
इस कहावत से तो यही लगता है- कौवा चले हंस की चाल
धन्यवाद
यह आलेख साईज परफेक्ट है A4 टाइप.
बहुत बेहतरीन लिखा है. बधाई.
aapka lekh padh hamesa kee hee tarah khush huye par lagata hai aap kauve ka sandarbh galat deyi baithe. kaua bolne se koyee aata hai ! dulhin ko chup karane me ek botal ghaslet hee kafee hai sas ke liye. vaise hamar confoosan to door karo.
bachpan me suraiya se sune the…….
MOREE ANTARIYA PE KAGA BOLE MORA JIYAA DOLE…….KOYEE Aa RaHaa HAI ……..aage tha…..
more joban pe chayee umang re,mora tadpat hai bayan ang re…..
par chodiye is umar me shringar ras se jyada hasya ras me maja aata hai……..CHILLAI RAHEE DULHIN MAR JAI KAUA??