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मनुष्य खत्म हो रहे हैं, वस्तुयें खिली हुई हैं (१)- अखिलेश
By फ़ुरसतिया on October 5, 2008
[सुपरिचित कथाकार अखिलेश का नाम हिंदी कथा पाठकों के लिये जाना-पहचाना नाम है। उनकी कहानी चिट्ठी
में देश के तमाम पढ़े-लिखे युवा अपने को या अपने परिवेश को किसी न किसी न
रूप में मौजूद पाते हैं। अखिलेश का एक आत्मक्थ्य नुमा लेख मेरे पसंदीदा
लेखों में हैं। प्रख्यात साहित्यिक कथापत्रिका, ‘कथादेश’, के फरवरी २००० के
अंक में प्रकाशित यह लेख पत्रिका के नियमित स्तम्भ ‘मैं और मेरा समय’में
छ्पा था। इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रसिद्ध लेखकों के अपने समय के बारे में
अनुभव व विचार प्रस्तुत किये जाते हैं। हिंदी ब्लाग जगत में जब सृजन शिल्पी
के एक लेख पर संजय बेंगाणी पर की टिप्पणी , उस पर अमित का लेख और फिर नीरज दीवान का बड़ी मेहनत से लिखा विचारोत्तेजक लेख
प्रकाशित हुआ तो मुझे एक बार फिर यह लेख बहुत याद आया। इसलिये मैं
अखिलेशजी के इस लेख को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। आशा है कि लेख अपनी
पर्याप्त लंबाई के बावजूद आपको पढ़ने और सोचने के लिये मजबूर करेगा। ]
वह मानव जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले तत्व अर्थ-व्यवस्था मे हैं,वह शासन और राजनीति में हैं। वह हमारी चेतना और शरीर में है। वह वृद्ध में है,युवा में है और शिशु में है। वह अपराध में है और दंड में है। पुण्य में है तो पाप में भी है। वह संग्रह में है तो त्याग में भी है। वह भोग में भी है और योग में भी है। नीति-अनीति दोनों में उसका अंश है। प्रेम,विवाह,तलाक किसमें नहीं है वह। रूप,रस,गन्ध,स्पर्श, श्रवण सभी पर उसकी छाप है। शान्ति और युद्ध दोनों उसकी इच्छा से जन्म लेते हैं। वह शोषण में है,समाजवाद में है। स्त्री, पुरुष, पशु, वृक्ष, जड़,चेतन कौन उससे अछूता है। कोई यशस्वी होगा तो उसकी कृपा से,कोई धनी होगा तो उसकी कृपा से। सन्ततियाँ उसके ही इशारे से उन्नति करेंगी। उसकी छत्रछाया होने पर ही प्रणय बन्धन सुदृढ़ होंगे। धर्म, अर्थ, काम ,मोक्ष सभी उस पर आश्रित हैं। ऐसे सर्वशक्तिमान,सर्वव्यापी,सिद्धफलदायी,सर्वसंचालक! तुम्हारी भर्त्सना करने के लिये मैं यहाँ उपस्थित हूँ।
बाजार वन्दना
सबमें वह है। उसी में सब हैं। वह कहाँ नहीं है। अर्थात हर जगह है। वह पृथ्वी,नभ और भू -गर्भ सर्वत्र विराजमान है।संसार के समस्त क्रिया व्यापारों का संचालन उसकी मुट्ठी में हैं।
मेरी एक बड़ी ट्रेजडी है कि मैं ईश्वर की तरह हूं जिसके अनेक रूप हैं। हालांकि मैं ईश्वर का विलोम मनुष्य हूं। वाकई मेरे कई रूप हैं। मैं ही हूँ, जो उदास, गम्भीर और एकान्तप्रिय हूँ। मैं ही मितभाषी हूँ, मैं ही बकबक करने वाला हूँ। मैं आधुनिकता, कुलीनता को चाहने वाला हूँ और मैं ही फूहड़ गँवार हूँ। मैं ही सांवली सुन्दरियों का दीवाना हूं और मैं ही हूं जो गौरवर्णी रूपसियों पर लट्टू रहता हूं। मैं भावुकता की हंसी उडाता हूं,जबकि स्वयं बहुत भावुक हूं। जो चिरकुट, कायर, काहिल, घरघुसना, साहसी, फुर्तीला, घुमक्कड़ और सज्जन है वह भी मैं ही हूं। जो विश्वसनीय, मददगार, शाहखर्च है वह भी मैं ही हूं। जो संदिग्ध, ह्दयहीन और मक्खीचूस है वह भी मैं हूं। मैं एक साथ उच्च, नीच, श्रेष्ठ, घटिया, प्रिय, अप्रिय, सुन्दर और कुरूप हूं।
इन विभिन्न द्वैतों से मुक्त होने के लिये- एक उज्ज्वल चरित्र बनने के लिये- मेरे संघर्ष का रजत जयन्ती वर्ष होने जा रहा है लेकिन मैं अभी एक तरह का नहीं हो सका हूं। वैसे ही हूं- पापी और पुण्यात्मा, योगी और ढोंगी, पवित्र और गंदला, संशयात्मा और प्रतिबद्ध।
मेरे पास अपने विषय में बतालाने के लिये ज्यादा कुछ नहीं है। मेरे जीवन में गाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोग कुछ भी घटित नहीं हुआ। उसमें न कला फिल्मों के दुख हैं न मसाला फिल्मों के सुख। यह दोयम दर्जे की यथार्थवादी कथा की तरह है। खांटी निम्न मध्यवर्गीय। पिता क्लर्क…मां त्यागमयी बराबर दुख सहती हुई…कस्बाई माहौल…।
लेखक से एक सवाल अक्सर किया जाता है कि उसने लिखना कैसे शुरू किया? यह प्रश्न हमेशा हास्यास्पद होगा। उसी प्रकार जैसे प्रेम में डूबे व्यक्ति से पूछा जाय कि उसे प्रेम कैसे हुआ तो उसकी तरफ़ से जो जवाब आयेगा वह निश्चय ही प्रेम की गरिमा एवं उदात्तता को ठेस पहुंचाने वाला होगा। मसलन लड़के की तरफ़ से यह जवाब हो सकता है कि वह लड़की पर तब मर मिटा था जब उसके उसके गोरे गाल पर एक फुंसी निकल आयी थी। किसी दूसरे लड़के का जवाब हो सकता है कि वह तब दिल दे बैठा जब लड़की की एक पांव की चप्पल टूट गयी थी और वह पैर घसीटते हुये चल रही थी। इसी प्रकार किसी युवक को दोनों हाथ छोड़कर स्कूटर चलाता देखकर किसी युवती में प्रेम के अंकुर फूट सकता है। यकीन मानिये, दुनिया के महान से महान प्रेम के नायक या नायिका के भीतर प्यार के स्फुरण की वजह अति साधारण, तुच्छ और हंसोड़ रही होगी। इसी तरह विश्व के अधिकतर लेखकों के लेखन की शुरुआत भी किसी हीन कारण से होती है।
प्रारम्भ जैसे भी हुआ, लेकिन लेखन कर्म अपना लेने के बाद, वह मुझे हमेशा एक श्रेष्ठ तथा सार्थक गतिविधि महसूस हुआ। बुरे वक्त में, दुर्दिन में, घोर हताशा और घनघोर अंधेरी मन:स्थिति में भी अपने चयन को लेकर मुझे कोई पछ्तावा नहीं हुआ। यह भी कभी नहीं लगा कि मैं कुछ और क्यों नहीं हुआ। मैं समाज के अन्य कार्यक्षेत्रों को साहित्य से नीचे नहीं ठहरा रहा हूं। बल्कि यह कहने की विनम्र कोशिश कर रहा हूं कि साहित्य सृजन किसी भी दशा में कम महत्वपूर्ण या घटिया कार्य नहीं है।
यह मानव जाति की विशेषीकृत प्रतिभा है। कलाऒ को ही लें तो नाना प्रकार की कलाऒं की प्रस्तुति मनुष्येतर समुदाय द्वारा सम्भव है। चित्र निर्माण, नृत्य, संगीत, अभिनय जैसे अनेक कला रूपों में पशु भी क्षमतायें हासिल कर सकते हैं किंतु यह नामुमकिन है कि कोई बन्दर कविता लिख दे या रीछ कहानी, उपन्यास लिखे। गधा, शेर, लोमड़ी, भेड़- जानवर कभी कुछ नहीं लिख सकते। लेखक बनने को मैं नियामत क्यों न मानूं। उसने मुझको संसार को तीव्रता से मह्सूस करने और समझने की क्षमता दी। लेखक होने की वजह से ही मेरी त्वचा स्पर्श के साथ एक और स्पर्श अनुभव करती है। मैं कोई रंग देखता हूं तो उसका एक और रंग देख लेता हूं। तमाम कोलाहल में मैं एक खोयी हुयी ध्वनि भी सुनता हूं। सत्य के साथ एक और सत्य, यथार्थ के साथ एक और यथार्थ देख सकता हूं। ऐसा केवल आज के लेखक के साथ नहीं है। हर समय, हर युग में और धरती के किसी भी भू-भाग के लेखक को उक्त नियामत हासिल हुई है।
मगर आज का लेखक बीते दिनों के लेखक से बहुत भिन्न भी है। उसका समाज, उसका समय, उसके संकट, संघर्ष और उसकी अवस्थिति घातक रूप से बदल गयी है। इसीलिये अपने बाहर के संसार से उसका घमासान और उसकी आन्तरिक यातना-और फिर दोनों रचनात्मक रूपान्तरण की समस्याएं- सभी में गहरी तब्दीलियां, परेशानियां पैदा हो गयी हैं। यह बात भारतीय लेखक के संदर्भ में अधिक दृढ़ता एवं तीक्ष्णता से कहीं जा सकती है।
यूं तो कहा जा सकता है, जैसा इधर की रचनाऒं, साक्षात्कारों और व्याख्यानों में रोज-रोज कहा जा सकता है कि हम बहुत हिंस्र या बहुत क्रूर या हत्यारे या कठिन समय में रह रहे हैं। अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य विशेषण वाले समय में रह रहें
हैं। लेकिन क्या सचमुच जघन्यतम समय आ गया है? घोर कलयुग! यदि ऐसा है तो क्यों एक बड़ा समुदाय कहता हुआ मिलता है कि यह बहुत अच्छा, अग्रगामी समय है। स्त्री से आप पूछिये कि कि क्या वह पुराने समय की स्त्री होना चाहेगी? दलितों से पूछिये कि क्या वे पुराने समय में वापस जाने या पुराने समय को वापस लाने की इच्छा करते हैं? बच्चे से पूछिये, यहां तक कि पुराने समय के किसी वयोव्रद्ध से ही पूछिये कि इस वृद्धावस्था में उन्हें पुराने जमाने के भूगोल में डाल दिया जाये ? बल्कि दिल्ली में रहकर दिल्ली को कोसने वाले कवियों से पूछिये कि वे आदिवासियों के किसी गांव में बसना पसन्द करेंगे? हर जगह नकारात्मक होगा।
सुख, सूचना और सम्पर्क के बेइन्तिहा साधन हो चुके हैं। शिक्षा, चिकित्सा, यातायात सभी में अभूतपूर्व तरक्की हुई है। विवाह के बाद बेटी की आवाज सुनने के लिये मां को अब तरसना नहीं पड़ता है। प्रेमचन्द छप्पन वर्ष की अवस्था में कोलाइटिस से मर गये थे, आज शायद वे बच सकते थे। मेरे बाबा मामूली बीमारी से मर गये थे, आज होते तो मैं उन्हें बचा लेता। मेरे जन्म के पहले मेरा एक भाई बुखार में मर गया। आज शायद न मरता।
उक्त स्थूल और भौतिक ब्यौरों को छोड़ दें तो भी बहुत सारी उल्लेखनीय बातें वर्तमान समय के पास हैं। इसे क्रूरताऒं के जर्जर
होने का समय कहा जा सकता है। पति द्वारा पत्नी पर, बड़ों द्वारा बच्चों पर, भाई द्वारा बहन पर अब पहले जैसी निरंकुशता और दादागीरी नहीं रही। रिश्तों के बीच स्वतंत्रता और समानता बढ़ी है। अफसर, पुलिस, सेना का चरित्र अभी भी बर्बर है लेकिन यह भी सच है कि अब इनकी निरंकुशता पहले जैसी निर्बाद नहीं है। यहां तक कि पशुऒं तक पर हमारा सुलूक अब पुराने जमाने की तरह निर्मम नहीं रहा है। उनकी स्वतंत्रता, उनके जीने के अधिकार के पक्ष में आवाजें और विचार हैं। यही समझ धीरे-धीरे व्रक्षों के बारे में विकसित हो रही है। यह इसी समय में हो रहा है कि शंकराचार्य सती प्रथा, बलि प्रथा के विरुद्ध वक्तव्य देते हैं। यह भी इसी समय में हो रहा है कि परिधि की शक्तियों ने केंद्र की शक्ति को औकात बता दी है। स्त्रियां सरपंच बन रही हैं। दलित पिछड़ों की अपनी राजनीतिक ताकत हैं जिसे वे पहचान चुके हैं और इस्तेमाल कर रहे हैं।
तो क्या हम स्वर्णकाल में हैं? आधुनिक पदावली में भी देखिये, मुद्रास्फीति कम हुई है, राष्ट्रीय विकास दर बढ़ रही है। नागरिकों के पास उपभोक्ता वस्तुऒं से लेकर राजनीतिक पार्टियों तक में चुनने के ढेर सारे विकल्प हैं। जीवन शैली में समाज का हस्तक्षेप लगातार घट रहा है। राजनीतिक पतनशीलता, प्रशासन तन्त्र के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार को छोड़ दें तो आम आदमी की ऒर से शिकायत के निशाने पर कम चीजें होंगी।
फिर लेखक मौजूदा समय को लेकर क्यों रोता-सिसकता रहता है। उसका स्वर भिन्न क्यों है? लेकिन ऐसा पहली मर्तबा नहीं हो
रहा है। लगभग पांच सौ वर्ष पहले कबीरदास के दिल से हूक निकली थी। सुखिया सब संसार है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै औ रोवै। जब सब मस्ती कर रहे होते हैं, ज्यादा मस्ती मार रहे होते हैं तब लेखक रोता है। जब सब लोग बेहोश रहते हैं, गाफिल रहते हैं उस वक्त भी लेखक जाग रहा होता है। इसलिये लेखक वह सब भी देख लेता है जो अन्य लोग सोते रहने के कारण नहीं देख पाते हैं। वह भोजन में मिले विष को, स्वागत में निहित साजिश को, यात्रा में होने वाली दुर्घटना को, सुन्दर शरीर में छिपे रोग को देख लेता है, अत: रोता है। उसका रुदन-उसका अफसोस-उसके जागने के ही कारण हैं।
जब कोई लेखक बनता है तो उसे एक शाप लग जाता है जो कि वरदान भी होता है। उसके भीतर सम्वेदनात्मक ज्ञान की, ज्ञानात्मक सम्वेदना की, अतीन्दियता की अग्नियां जल जाती हैं। इसी प्रकार की तमाम और चीजों की अग्नियां जल जाती हैं। यकीन मानिये- एक सच्चे लेखक के भीतर ढेर सारी अग्नियां जलती रहती हैं जिनमें उसकी बहुत सी प्रसन्नता, आराम, इत्मिनान, उसकी खुदगर्जी, उसका ढेर सारा सुअरपन जलकर राख हो जाता है। इन अग्नियों के कारण उसके अनुभव सामान्य इनसानों की तरह कच्चे नहीं रह पाते, पक जाते हैं। बाहर का संसार जब उसके भीतर आता है तो ये अग्नियां उसमें से गुजरकर या उसे अपने भीतर गुजारकर एक खास तरह की आंच सिपुर्द करती हैं। आंच के कारण उस संसार के बहुत सारे ठोस और ठस्स पिघल जाते हैं। द्रव वाष्प बन जाते हैं। अवांछनीय नष्ट हो जाते हैं। कुछ चीजें आंच पाकर नया आकार ले लेती है। सोना आभूषण बन जाता है लोहा हथियार। यही कारण है कि जब बाहर का संसार लेखक के भीतर की अग्नियों से गुजरकर बाहर रचना प्रकट होता है तो असलियत में वही संसार रहता लेकिन वह वही संसार बिल्कुल नहीं रहता है।
लेखक के भीतर जब इतनी सारी तपिश, रोशनी, ज्वाला और रासायनिक क्रियायें रहेंगी तो वहां चैन कैसे बचेगा। वह सो कैसे सकेगा। ज्यादातर लेखक लम्बे समय तक इस यातना को सह नहीं पाते हैं। लगातार जागने, जलने और रोने से वे थक जाते हैं, घबड़ा जाते हैं, ऊब जाते हैं। वे आरामदायक बिस्तर पर गहन बेहोशी चाहने लगते हैं। तब वे अग्नियां बुझ जाती हैं। उनकी राख के नीचे कुछ चिंगारियां भले बची रह जायें, जिनके सम्बल से छिटपुट कवितायें,कहानियां, इक्का-दुक्का उपन्यास और ढेर सारे व्याख्यान बन सकते हैं लेकिन अभिशाप की सौगात उन अग्नियों की अनुपस्थिति में कोई सच्चा लेखक बना व बचा नहीं रह सकता है।
इस वक्त को व्याख्यायित करने की कोशिश करते हुये लगता है कि हम जिस समय में हैं उसमें दु:स्वप्नों की तुलना में सच अधिक भयावह है। दुर्घटनायें, न्रशंसतायें, बरबादी आदि कल्पना से ज्यादा यथार्थ में उपस्थित हैं। स्वातंत्रयोत्तर भारत में किसने
आशंका की थी कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस की और उससे उपजे दंगों की, दंगों के बाद दंगों की। देश की प्रशासनिक मशीनरी
,मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, फौज सबकी इच्छानुसार सबकी मिली भगत से बाबरी मस्जिद ढहा दी जायेगी- ऐसा दु:स्वप्न किसने देखा-सोचा था? साध्वि्यां, राजनीतिज्ञ अफसर, सिपाही, और महंत उल्लास से चिल्ला रहे थे और मस्जिद तोड़ी जा रही थी, यह सपने में सम्भव था? क्या यह भी सपने में सम्भव था कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस और दंगों के अपराधी ग्रहमंत्री, शिक्षा संस्कृति मंत्री, मुख्यमंत्री बन जायेंगे।
किसको इस अनहोनी की आशंका थी कि माफिया डान, बलात्कारी, हत्यारे, डकैत, लौंडेबाज, मसखरे और मूर्ख भारत की संसद तथा विधानसभाऒं को अपनी चिल्लाहट, गुंडागर्दी, साम्प्रदायिकता के वायुविकार से भर देंगे।
किसी को अंदाजा नहीं था कि हत्यारा हजारों युवकों के सम्मुख डामर के ड्रम पर हमारे एक देसी कवि का सिर रखकर काट देगा। इस वध और वधिक के प्रतिरोध में वहां एक भी हाथ नहीं उठेगा, एक भी आवाज नहीं सुनाई पड़ेगी। यह भी किसको अन्दाजा था कि दूसरा कवि एक इमारत की दसवीं मंजिल से इसलिये छ्लांग लगा लेगा कि जिन्दगी में उसकी रुचि समाप्त हो गयी थी। एक दार्शनिक सड़क दुर्घटना में मारा जायेगा लेकिन उसके नगर को महीनों इसकी खबर नहीं मिलेगी।
कोई शराब मांगेगा, आइसक्रीम मांगेगा, स्त्री का शरीर मांगेगा, घूस मांगेगा, कुछ भी मांगेगा। उसे नहीं मिलेगा तो गोली मार देगा । कोई कहेगा कि उसका धर्म सर्वोच्च है, यदि सामने वाले ने स्वीकार नहीं किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा।
ध्यान देने की बात यह है कि कवि, ईसाई धर्म प्रचारक, माडल, दुकानदार की हत्या हो या जयपुर में भरे बाजार स्त्री का अपहरण, बलात्कार, सभी जनसमूह के सामने दिन दहाड़े हुये। अत: यह केवल जनजीवन की असुरक्षा का मामला नहीं है।
बल्कि यह समकालीन मनुष्य की कायरता और उसकी आत्मा के अन्त का प्रसंग भी है।
हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी यह है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है। इधर हम अपनी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े ही हार रहे हैं। अपसंस्क्रति, नवसाम्राज्यवाद, सम्वेदना का विनाश- किसी से हम लड़े नहीं। यह और भी कुत्सित है कि लड़ने की कौन कहे, लोग उनका स्वागत कर रहे हैं। खुशी से चिल्ला रहे हैं, खिलखिला रहे हैं, नितम्ब मटका रहे हैं।
ऐसा शायद इसलिये हो पा रहा है कि बाजार की अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के कारण विचारधारा और विचार दोनों हाशिये पर धकेल दिये गये हैं। कम्युनिस्ट देशों के पतन के कारण नहीं बाजार की शक्तियों से यह स्थापित हुआ कि मार्क्सवाद मर चुका है। जबकि
मार्क्सवाद का जन्म समाजवादी व्यवस्था के पहले हो चुका था, इसलिये सिर्फ व्यवस्था के पतन से वह कैसे मिट सकता है।
विचारधारा के अन्त तक गनीमत है थी, क्योंकि उसकी लतरें धूप और खाद पाकर पुन: फैल जाती हैं लेकिन भूमंडलीकरण-बाजार-लोगों को विचार से बेदखल बना रहा है। विचार, ज्ञान, विवेक ये जब तक रहेंगे-बाजार का हमला अबाध नहीं रहेगा। इसलिये सबसे पहले लोगों को विचार से चिढ़ना और नफरत करना सिखाऒ। सिखाऒ कि ज्ञान का अर्थ, तमाम विषयों का अध्ययन और उनके अन्तरसम्बंधों की पड़ताल, व्याख्या नहीं, बल्कि प्रश्नोत्तरी है। सिखाऒ कि प्रतिभाशाली का अर्थ फिल्मी अंताक्षरी में अव्वल आना है। सिखाऒ कि कुछ करने के पहले ठिठककर सोचना पिछड़ापन और मूर्खता है। सिखाऒ कि पश्चाताप और प्रायश्चित कोई शब्द नहीं है। सिखाऒ कि मनुष्य कुछ भी नहीं, सबसे श्रेष्ठ मशीन है। सिखाऒ कि अंतरात्मा कुछ नहीं होती, चेतना कुछ नहीं होती।
किसी समाज में बाजार के नियामकों का वर्चस्व तब तक स्थापित नहीं हो पाता है जब तक सच्चे मनुष्य और मूल्य बचे रहते हैं। इसीलिये बाजार की ताकतें हमारे समय की थोड़ी सी बची हुयी सच्चाई, नैतिकता और इनसानियत पर घात लगा रही है। कभी टी.वी के कार्यक्रमों, कभी विज्ञापनों, कभी सूचना प्रौद्योगिकी, कभी भूमंडलीकरण के कीर्तिगान जैसे अमोघ अस्त्रों से वे वार करती हैं। लोगों के सरोकारों को उच्चवर्गीय चकाचौंध से भर दिया जाता है। टेलिविजन, सिनेमा के पर्दे पर धूसर, कत्थई और मटमैले रंगों की अनुपस्थिति अनायास नहीं है। वहां आलीशान घर और दफ्तर हैं। भव्य कारे हैं। अपराध और शेयर हैं।अरबों-खरबों (रुपये)हैं। विवाहपूर्व और विवाहेतर शारीरिक सम्बन्धों की यश:गाथा है। सुंदर स्वस्थ बच्चे हैं। खुशहाल तथा सम्पन्न परिवार हैं। नफ़ीस ग्रहणियां हैं। मां का कैरेक्टर अब निरुपा राय नहीं, पैंतीस साल तक की जवान, हसीन और साबुत चमकीले दांतों वाली छम्मकछल्लो करती हैं जिनकी अपनी सेक्स अपील होती है। ढेर सारी पत्र-पत्रिकायें यही काम कर रही हैं।यानि कि घोषित किया जा रहा है कि वैभवपूर्ण एवं भोगमय यह संसार ही असल हकीकत है। आपके पास जो दुख, संघर्ष और असुंदर है, अपवाद है। नैतिकता, मूल्यपरकता, सच्चाई तो फैंटेसी हैं, स्वप्न हैं। यथार्थ केवल भोग है, आराम और विलास है। यदि वह आपके पास नहीं है तो आप यथार्थ के लिये एक विसंगति हैं-एक बेसुरा।
हम दूसरों को कोसें लेकिन अपने साहित्य संसार में भी झांके। जब से हमारे आसमान पर बाजारवाद ने उड़ान भरी यानी कि करीब एक दशक से, कहानियों, उपन्यासों में मामूली आदमी की हाजिरी झीण होती जा रही है। जब वे सब समाज में हैं तो साहित्य से क्यों गायब हो रही हैं? ज्यादातर रचनाऒं में उच्च मध्यवर्ग, नाटकीयता, चटख रंगों और चटखारों की प्रचुरता है। यहां तक कि यदि स्त्री विमर्श है तो अधिकांशत: बड़े शहर की धनाढ्य स्त्रियां केन्द्र में हैं। दलित कथा साहित्य में भी पढ़े-लिखे, शहरी नौकरी पेशा लोगों का प्रभुत्व है।
अत्यन्त अफसोस की बात है कि मौजूदा वक्त में लेखकगण लेखक के रूप में बचे नहीं रह पा रहे हैं।
लेख का शेष भाग आप यहां पढ़ें- मनुष्य खत्म हो रहे हैं.. वस्तुयें खिली हुई हैं (२)- अखिलेश । पूर्व प्रकाशित लेख पर टिप्पणियां यहां देखें।
अखिलेश
जन्म: 1960, उ.प्र. के सुल्तानपुर जिले के कादीपुर कस्बे में।
शिक्षा: इलाहाबाद वि.वि. से एम.ए. हिंदी।
कृतियाँ:’आदमी नहीं टूटता’, ‘मुक्ति’, ‘शापग्रस्त’, अंधेरा (कहानी संग्रह), अन्वेषण(उपन्यास)।
अन्य संलग्नयाएं:वर्तमान साहित्य, माया,अतएव पत्रिकाऒं में समय-समय पर सम्पादन। छोटे पर्दे के लिये शोध, आलेख, पटकथा। कुछ कहानियों का प्रशिद्ध निर्देशकों द्वारा मंचन।
पुरस्कार: परिमल सम्मान, बालकृष्ण शर्मा’नवीन’ कथा पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, इंदु शर्मा कथा सम्मान, वनमाली पुरस्कार।
सम्प्रति: साहित्यिक पत्रिका ‘तद्भव’ का प्रकाशन।
सम्पर्क: 18/271, इंदिरा नगर, लखनऊ, उ.प्र.।मोबाइल: 094151 59243
अखिलेश
बाजार वन्दना
सबमें वह है। उसी में सब हैं। वह कहाँ नहीं है। अर्थात हर जगह है। वह पृथ्वी,नभ और भू -गर्भ सर्वत्र विराजमान है।संसार के समस्त क्रिया व्यापारों का संचालन उसकी मुट्ठी में हैं।वह मानव जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले तत्व अर्थ-व्यवस्था मे हैं,वह शासन और राजनीति में हैं। वह हमारी चेतना और शरीर में है। वह वृद्ध में है,युवा में है और शिशु में है। वह अपराध में है और दंड में है। पुण्य में है तो पाप में भी है। वह संग्रह में है तो त्याग में भी है। वह भोग में भी है और योग में भी है। नीति-अनीति दोनों में उसका अंश है। प्रेम,विवाह,तलाक किसमें नहीं है वह। रूप,रस,गन्ध,स्पर्श, श्रवण सभी पर उसकी छाप है। शान्ति और युद्ध दोनों उसकी इच्छा से जन्म लेते हैं। वह शोषण में है,समाजवाद में है। स्त्री, पुरुष, पशु, वृक्ष, जड़,चेतन कौन उससे अछूता है। कोई यशस्वी होगा तो उसकी कृपा से,कोई धनी होगा तो उसकी कृपा से। सन्ततियाँ उसके ही इशारे से उन्नति करेंगी। उसकी छत्रछाया होने पर ही प्रणय बन्धन सुदृढ़ होंगे। धर्म, अर्थ, काम ,मोक्ष सभी उस पर आश्रित हैं। ऐसे सर्वशक्तिमान,सर्वव्यापी,सिद्धफलदायी,सर्वसंचालक! तुम्हारी भर्त्सना करने के लिये मैं यहाँ उपस्थित हूँ।
बाजार वन्दना
सबमें वह है। उसी में सब हैं। वह कहाँ नहीं है। अर्थात हर जगह है। वह पृथ्वी,नभ और भू -गर्भ सर्वत्र विराजमान है।संसार के समस्त क्रिया व्यापारों का संचालन उसकी मुट्ठी में हैं।
मेरी एक बड़ी ट्रेजडी है कि मैं ईश्वर की तरह हूं जिसके अनेक रूप हैं। हालांकि मैं ईश्वर का विलोम मनुष्य हूं। वाकई मेरे कई रूप हैं। मैं ही हूँ, जो उदास, गम्भीर और एकान्तप्रिय हूँ। मैं ही मितभाषी हूँ, मैं ही बकबक करने वाला हूँ। मैं आधुनिकता, कुलीनता को चाहने वाला हूँ और मैं ही फूहड़ गँवार हूँ। मैं ही सांवली सुन्दरियों का दीवाना हूं और मैं ही हूं जो गौरवर्णी रूपसियों पर लट्टू रहता हूं। मैं भावुकता की हंसी उडाता हूं,जबकि स्वयं बहुत भावुक हूं। जो चिरकुट, कायर, काहिल, घरघुसना, साहसी, फुर्तीला, घुमक्कड़ और सज्जन है वह भी मैं ही हूं। जो विश्वसनीय, मददगार, शाहखर्च है वह भी मैं ही हूं। जो संदिग्ध, ह्दयहीन और मक्खीचूस है वह भी मैं हूं। मैं एक साथ उच्च, नीच, श्रेष्ठ, घटिया, प्रिय, अप्रिय, सुन्दर और कुरूप हूं।
इन विभिन्न द्वैतों से मुक्त होने के लिये- एक उज्ज्वल चरित्र बनने के लिये- मेरे संघर्ष का रजत जयन्ती वर्ष होने जा रहा है लेकिन मैं अभी एक तरह का नहीं हो सका हूं। वैसे ही हूं- पापी और पुण्यात्मा, योगी और ढोंगी, पवित्र और गंदला, संशयात्मा और प्रतिबद्ध।
मेरे पास अपने विषय में बतालाने के लिये ज्यादा कुछ नहीं है। मेरे जीवन में गाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोग कुछ भी घटित नहीं हुआ। उसमें न कला फिल्मों के दुख हैं न मसाला फिल्मों के सुख। यह दोयम दर्जे की यथार्थवादी कथा की तरह है। खांटी निम्न मध्यवर्गीय। पिता क्लर्क…मां त्यागमयी बराबर दुख सहती हुई…कस्बाई माहौल…।
लेखक से एक सवाल अक्सर किया जाता है कि उसने लिखना कैसे शुरू किया? यह प्रश्न हमेशा हास्यास्पद होगा। उसी प्रकार जैसे प्रेम में डूबे व्यक्ति से पूछा जाय कि उसे प्रेम कैसे हुआ तो उसकी तरफ़ से जो जवाब आयेगा वह निश्चय ही प्रेम की गरिमा एवं उदात्तता को ठेस पहुंचाने वाला होगा। मसलन लड़के की तरफ़ से यह जवाब हो सकता है कि वह लड़की पर तब मर मिटा था जब उसके उसके गोरे गाल पर एक फुंसी निकल आयी थी। किसी दूसरे लड़के का जवाब हो सकता है कि वह तब दिल दे बैठा जब लड़की की एक पांव की चप्पल टूट गयी थी और वह पैर घसीटते हुये चल रही थी। इसी प्रकार किसी युवक को दोनों हाथ छोड़कर स्कूटर चलाता देखकर किसी युवती में प्रेम के अंकुर फूट सकता है। यकीन मानिये, दुनिया के महान से महान प्रेम के नायक या नायिका के भीतर प्यार के स्फुरण की वजह अति साधारण, तुच्छ और हंसोड़ रही होगी। इसी तरह विश्व के अधिकतर लेखकों के लेखन की शुरुआत भी किसी हीन कारण से होती है।
प्रारम्भ जैसे भी हुआ, लेकिन लेखन कर्म अपना लेने के बाद, वह मुझे हमेशा एक श्रेष्ठ तथा सार्थक गतिविधि महसूस हुआ। बुरे वक्त में, दुर्दिन में, घोर हताशा और घनघोर अंधेरी मन:स्थिति में भी अपने चयन को लेकर मुझे कोई पछ्तावा नहीं हुआ। यह भी कभी नहीं लगा कि मैं कुछ और क्यों नहीं हुआ। मैं समाज के अन्य कार्यक्षेत्रों को साहित्य से नीचे नहीं ठहरा रहा हूं। बल्कि यह कहने की विनम्र कोशिश कर रहा हूं कि साहित्य सृजन किसी भी दशा में कम महत्वपूर्ण या घटिया कार्य नहीं है।
यह मानव जाति की विशेषीकृत प्रतिभा है। कलाऒ को ही लें तो नाना प्रकार की कलाऒं की प्रस्तुति मनुष्येतर समुदाय द्वारा सम्भव है। चित्र निर्माण, नृत्य, संगीत, अभिनय जैसे अनेक कला रूपों में पशु भी क्षमतायें हासिल कर सकते हैं किंतु यह नामुमकिन है कि कोई बन्दर कविता लिख दे या रीछ कहानी, उपन्यास लिखे। गधा, शेर, लोमड़ी, भेड़- जानवर कभी कुछ नहीं लिख सकते। लेखक बनने को मैं नियामत क्यों न मानूं। उसने मुझको संसार को तीव्रता से मह्सूस करने और समझने की क्षमता दी। लेखक होने की वजह से ही मेरी त्वचा स्पर्श के साथ एक और स्पर्श अनुभव करती है। मैं कोई रंग देखता हूं तो उसका एक और रंग देख लेता हूं। तमाम कोलाहल में मैं एक खोयी हुयी ध्वनि भी सुनता हूं। सत्य के साथ एक और सत्य, यथार्थ के साथ एक और यथार्थ देख सकता हूं। ऐसा केवल आज के लेखक के साथ नहीं है। हर समय, हर युग में और धरती के किसी भी भू-भाग के लेखक को उक्त नियामत हासिल हुई है।
मगर आज का लेखक बीते दिनों के लेखक से बहुत भिन्न भी है। उसका समाज, उसका समय, उसके संकट, संघर्ष और उसकी अवस्थिति घातक रूप से बदल गयी है। इसीलिये अपने बाहर के संसार से उसका घमासान और उसकी आन्तरिक यातना-और फिर दोनों रचनात्मक रूपान्तरण की समस्याएं- सभी में गहरी तब्दीलियां, परेशानियां पैदा हो गयी हैं। यह बात भारतीय लेखक के संदर्भ में अधिक दृढ़ता एवं तीक्ष्णता से कहीं जा सकती है।
यूं तो कहा जा सकता है, जैसा इधर की रचनाऒं, साक्षात्कारों और व्याख्यानों में रोज-रोज कहा जा सकता है कि हम बहुत हिंस्र या बहुत क्रूर या हत्यारे या कठिन समय में रह रहे हैं। अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य विशेषण वाले समय में रह रहें
हैं। लेकिन क्या सचमुच जघन्यतम समय आ गया है? घोर कलयुग! यदि ऐसा है तो क्यों एक बड़ा समुदाय कहता हुआ मिलता है कि यह बहुत अच्छा, अग्रगामी समय है। स्त्री से आप पूछिये कि कि क्या वह पुराने समय की स्त्री होना चाहेगी? दलितों से पूछिये कि क्या वे पुराने समय में वापस जाने या पुराने समय को वापस लाने की इच्छा करते हैं? बच्चे से पूछिये, यहां तक कि पुराने समय के किसी वयोव्रद्ध से ही पूछिये कि इस वृद्धावस्था में उन्हें पुराने जमाने के भूगोल में डाल दिया जाये ? बल्कि दिल्ली में रहकर दिल्ली को कोसने वाले कवियों से पूछिये कि वे आदिवासियों के किसी गांव में बसना पसन्द करेंगे? हर जगह नकारात्मक होगा।
सुख, सूचना और सम्पर्क के बेइन्तिहा साधन हो चुके हैं। शिक्षा, चिकित्सा, यातायात सभी में अभूतपूर्व तरक्की हुई है। विवाह के बाद बेटी की आवाज सुनने के लिये मां को अब तरसना नहीं पड़ता है। प्रेमचन्द छप्पन वर्ष की अवस्था में कोलाइटिस से मर गये थे, आज शायद वे बच सकते थे। मेरे बाबा मामूली बीमारी से मर गये थे, आज होते तो मैं उन्हें बचा लेता। मेरे जन्म के पहले मेरा एक भाई बुखार में मर गया। आज शायद न मरता।
उक्त स्थूल और भौतिक ब्यौरों को छोड़ दें तो भी बहुत सारी उल्लेखनीय बातें वर्तमान समय के पास हैं। इसे क्रूरताऒं के जर्जर
होने का समय कहा जा सकता है। पति द्वारा पत्नी पर, बड़ों द्वारा बच्चों पर, भाई द्वारा बहन पर अब पहले जैसी निरंकुशता और दादागीरी नहीं रही। रिश्तों के बीच स्वतंत्रता और समानता बढ़ी है। अफसर, पुलिस, सेना का चरित्र अभी भी बर्बर है लेकिन यह भी सच है कि अब इनकी निरंकुशता पहले जैसी निर्बाद नहीं है। यहां तक कि पशुऒं तक पर हमारा सुलूक अब पुराने जमाने की तरह निर्मम नहीं रहा है। उनकी स्वतंत्रता, उनके जीने के अधिकार के पक्ष में आवाजें और विचार हैं। यही समझ धीरे-धीरे व्रक्षों के बारे में विकसित हो रही है। यह इसी समय में हो रहा है कि शंकराचार्य सती प्रथा, बलि प्रथा के विरुद्ध वक्तव्य देते हैं। यह भी इसी समय में हो रहा है कि परिधि की शक्तियों ने केंद्र की शक्ति को औकात बता दी है। स्त्रियां सरपंच बन रही हैं। दलित पिछड़ों की अपनी राजनीतिक ताकत हैं जिसे वे पहचान चुके हैं और इस्तेमाल कर रहे हैं।
तो क्या हम स्वर्णकाल में हैं? आधुनिक पदावली में भी देखिये, मुद्रास्फीति कम हुई है, राष्ट्रीय विकास दर बढ़ रही है। नागरिकों के पास उपभोक्ता वस्तुऒं से लेकर राजनीतिक पार्टियों तक में चुनने के ढेर सारे विकल्प हैं। जीवन शैली में समाज का हस्तक्षेप लगातार घट रहा है। राजनीतिक पतनशीलता, प्रशासन तन्त्र के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार को छोड़ दें तो आम आदमी की ऒर से शिकायत के निशाने पर कम चीजें होंगी।
फिर लेखक मौजूदा समय को लेकर क्यों रोता-सिसकता रहता है। उसका स्वर भिन्न क्यों है? लेकिन ऐसा पहली मर्तबा नहीं हो
रहा है। लगभग पांच सौ वर्ष पहले कबीरदास के दिल से हूक निकली थी। सुखिया सब संसार है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै औ रोवै। जब सब मस्ती कर रहे होते हैं, ज्यादा मस्ती मार रहे होते हैं तब लेखक रोता है। जब सब लोग बेहोश रहते हैं, गाफिल रहते हैं उस वक्त भी लेखक जाग रहा होता है। इसलिये लेखक वह सब भी देख लेता है जो अन्य लोग सोते रहने के कारण नहीं देख पाते हैं। वह भोजन में मिले विष को, स्वागत में निहित साजिश को, यात्रा में होने वाली दुर्घटना को, सुन्दर शरीर में छिपे रोग को देख लेता है, अत: रोता है। उसका रुदन-उसका अफसोस-उसके जागने के ही कारण हैं।
जब कोई लेखक बनता है तो उसे एक शाप लग जाता है जो कि वरदान भी होता है। उसके भीतर सम्वेदनात्मक ज्ञान की, ज्ञानात्मक सम्वेदना की, अतीन्दियता की अग्नियां जल जाती हैं। इसी प्रकार की तमाम और चीजों की अग्नियां जल जाती हैं। यकीन मानिये- एक सच्चे लेखक के भीतर ढेर सारी अग्नियां जलती रहती हैं जिनमें उसकी बहुत सी प्रसन्नता, आराम, इत्मिनान, उसकी खुदगर्जी, उसका ढेर सारा सुअरपन जलकर राख हो जाता है। इन अग्नियों के कारण उसके अनुभव सामान्य इनसानों की तरह कच्चे नहीं रह पाते, पक जाते हैं। बाहर का संसार जब उसके भीतर आता है तो ये अग्नियां उसमें से गुजरकर या उसे अपने भीतर गुजारकर एक खास तरह की आंच सिपुर्द करती हैं। आंच के कारण उस संसार के बहुत सारे ठोस और ठस्स पिघल जाते हैं। द्रव वाष्प बन जाते हैं। अवांछनीय नष्ट हो जाते हैं। कुछ चीजें आंच पाकर नया आकार ले लेती है। सोना आभूषण बन जाता है लोहा हथियार। यही कारण है कि जब बाहर का संसार लेखक के भीतर की अग्नियों से गुजरकर बाहर रचना प्रकट होता है तो असलियत में वही संसार रहता लेकिन वह वही संसार बिल्कुल नहीं रहता है।
लेखक के भीतर जब इतनी सारी तपिश, रोशनी, ज्वाला और रासायनिक क्रियायें रहेंगी तो वहां चैन कैसे बचेगा। वह सो कैसे सकेगा। ज्यादातर लेखक लम्बे समय तक इस यातना को सह नहीं पाते हैं। लगातार जागने, जलने और रोने से वे थक जाते हैं, घबड़ा जाते हैं, ऊब जाते हैं। वे आरामदायक बिस्तर पर गहन बेहोशी चाहने लगते हैं। तब वे अग्नियां बुझ जाती हैं। उनकी राख के नीचे कुछ चिंगारियां भले बची रह जायें, जिनके सम्बल से छिटपुट कवितायें,कहानियां, इक्का-दुक्का उपन्यास और ढेर सारे व्याख्यान बन सकते हैं लेकिन अभिशाप की सौगात उन अग्नियों की अनुपस्थिति में कोई सच्चा लेखक बना व बचा नहीं रह सकता है।
इस वक्त को व्याख्यायित करने की कोशिश करते हुये लगता है कि हम जिस समय में हैं उसमें दु:स्वप्नों की तुलना में सच अधिक भयावह है। दुर्घटनायें, न्रशंसतायें, बरबादी आदि कल्पना से ज्यादा यथार्थ में उपस्थित हैं। स्वातंत्रयोत्तर भारत में किसने
आशंका की थी कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस की और उससे उपजे दंगों की, दंगों के बाद दंगों की। देश की प्रशासनिक मशीनरी
,मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, फौज सबकी इच्छानुसार सबकी मिली भगत से बाबरी मस्जिद ढहा दी जायेगी- ऐसा दु:स्वप्न किसने देखा-सोचा था? साध्वि्यां, राजनीतिज्ञ अफसर, सिपाही, और महंत उल्लास से चिल्ला रहे थे और मस्जिद तोड़ी जा रही थी, यह सपने में सम्भव था? क्या यह भी सपने में सम्भव था कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस और दंगों के अपराधी ग्रहमंत्री, शिक्षा संस्कृति मंत्री, मुख्यमंत्री बन जायेंगे।
किसको इस अनहोनी की आशंका थी कि माफिया डान, बलात्कारी, हत्यारे, डकैत, लौंडेबाज, मसखरे और मूर्ख भारत की संसद तथा विधानसभाऒं को अपनी चिल्लाहट, गुंडागर्दी, साम्प्रदायिकता के वायुविकार से भर देंगे।
किसी को अंदाजा नहीं था कि हत्यारा हजारों युवकों के सम्मुख डामर के ड्रम पर हमारे एक देसी कवि का सिर रखकर काट देगा। इस वध और वधिक के प्रतिरोध में वहां एक भी हाथ नहीं उठेगा, एक भी आवाज नहीं सुनाई पड़ेगी। यह भी किसको अन्दाजा था कि दूसरा कवि एक इमारत की दसवीं मंजिल से इसलिये छ्लांग लगा लेगा कि जिन्दगी में उसकी रुचि समाप्त हो गयी थी। एक दार्शनिक सड़क दुर्घटना में मारा जायेगा लेकिन उसके नगर को महीनों इसकी खबर नहीं मिलेगी।
कोई शराब मांगेगा, आइसक्रीम मांगेगा, स्त्री का शरीर मांगेगा, घूस मांगेगा, कुछ भी मांगेगा। उसे नहीं मिलेगा तो गोली मार देगा । कोई कहेगा कि उसका धर्म सर्वोच्च है, यदि सामने वाले ने स्वीकार नहीं किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा।
ध्यान देने की बात यह है कि कवि, ईसाई धर्म प्रचारक, माडल, दुकानदार की हत्या हो या जयपुर में भरे बाजार स्त्री का अपहरण, बलात्कार, सभी जनसमूह के सामने दिन दहाड़े हुये। अत: यह केवल जनजीवन की असुरक्षा का मामला नहीं है।
बल्कि यह समकालीन मनुष्य की कायरता और उसकी आत्मा के अन्त का प्रसंग भी है।
हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी यह है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है। इधर हम अपनी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े ही हार रहे हैं। अपसंस्क्रति, नवसाम्राज्यवाद, सम्वेदना का विनाश- किसी से हम लड़े नहीं। यह और भी कुत्सित है कि लड़ने की कौन कहे, लोग उनका स्वागत कर रहे हैं। खुशी से चिल्ला रहे हैं, खिलखिला रहे हैं, नितम्ब मटका रहे हैं।
ऐसा शायद इसलिये हो पा रहा है कि बाजार की अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के कारण विचारधारा और विचार दोनों हाशिये पर धकेल दिये गये हैं। कम्युनिस्ट देशों के पतन के कारण नहीं बाजार की शक्तियों से यह स्थापित हुआ कि मार्क्सवाद मर चुका है। जबकि
मार्क्सवाद का जन्म समाजवादी व्यवस्था के पहले हो चुका था, इसलिये सिर्फ व्यवस्था के पतन से वह कैसे मिट सकता है।
विचारधारा के अन्त तक गनीमत है थी, क्योंकि उसकी लतरें धूप और खाद पाकर पुन: फैल जाती हैं लेकिन भूमंडलीकरण-बाजार-लोगों को विचार से बेदखल बना रहा है। विचार, ज्ञान, विवेक ये जब तक रहेंगे-बाजार का हमला अबाध नहीं रहेगा। इसलिये सबसे पहले लोगों को विचार से चिढ़ना और नफरत करना सिखाऒ। सिखाऒ कि ज्ञान का अर्थ, तमाम विषयों का अध्ययन और उनके अन्तरसम्बंधों की पड़ताल, व्याख्या नहीं, बल्कि प्रश्नोत्तरी है। सिखाऒ कि प्रतिभाशाली का अर्थ फिल्मी अंताक्षरी में अव्वल आना है। सिखाऒ कि कुछ करने के पहले ठिठककर सोचना पिछड़ापन और मूर्खता है। सिखाऒ कि पश्चाताप और प्रायश्चित कोई शब्द नहीं है। सिखाऒ कि मनुष्य कुछ भी नहीं, सबसे श्रेष्ठ मशीन है। सिखाऒ कि अंतरात्मा कुछ नहीं होती, चेतना कुछ नहीं होती।
किसी समाज में बाजार के नियामकों का वर्चस्व तब तक स्थापित नहीं हो पाता है जब तक सच्चे मनुष्य और मूल्य बचे रहते हैं। इसीलिये बाजार की ताकतें हमारे समय की थोड़ी सी बची हुयी सच्चाई, नैतिकता और इनसानियत पर घात लगा रही है। कभी टी.वी के कार्यक्रमों, कभी विज्ञापनों, कभी सूचना प्रौद्योगिकी, कभी भूमंडलीकरण के कीर्तिगान जैसे अमोघ अस्त्रों से वे वार करती हैं। लोगों के सरोकारों को उच्चवर्गीय चकाचौंध से भर दिया जाता है। टेलिविजन, सिनेमा के पर्दे पर धूसर, कत्थई और मटमैले रंगों की अनुपस्थिति अनायास नहीं है। वहां आलीशान घर और दफ्तर हैं। भव्य कारे हैं। अपराध और शेयर हैं।अरबों-खरबों (रुपये)हैं। विवाहपूर्व और विवाहेतर शारीरिक सम्बन्धों की यश:गाथा है। सुंदर स्वस्थ बच्चे हैं। खुशहाल तथा सम्पन्न परिवार हैं। नफ़ीस ग्रहणियां हैं। मां का कैरेक्टर अब निरुपा राय नहीं, पैंतीस साल तक की जवान, हसीन और साबुत चमकीले दांतों वाली छम्मकछल्लो करती हैं जिनकी अपनी सेक्स अपील होती है। ढेर सारी पत्र-पत्रिकायें यही काम कर रही हैं।यानि कि घोषित किया जा रहा है कि वैभवपूर्ण एवं भोगमय यह संसार ही असल हकीकत है। आपके पास जो दुख, संघर्ष और असुंदर है, अपवाद है। नैतिकता, मूल्यपरकता, सच्चाई तो फैंटेसी हैं, स्वप्न हैं। यथार्थ केवल भोग है, आराम और विलास है। यदि वह आपके पास नहीं है तो आप यथार्थ के लिये एक विसंगति हैं-एक बेसुरा।
हम दूसरों को कोसें लेकिन अपने साहित्य संसार में भी झांके। जब से हमारे आसमान पर बाजारवाद ने उड़ान भरी यानी कि करीब एक दशक से, कहानियों, उपन्यासों में मामूली आदमी की हाजिरी झीण होती जा रही है। जब वे सब समाज में हैं तो साहित्य से क्यों गायब हो रही हैं? ज्यादातर रचनाऒं में उच्च मध्यवर्ग, नाटकीयता, चटख रंगों और चटखारों की प्रचुरता है। यहां तक कि यदि स्त्री विमर्श है तो अधिकांशत: बड़े शहर की धनाढ्य स्त्रियां केन्द्र में हैं। दलित कथा साहित्य में भी पढ़े-लिखे, शहरी नौकरी पेशा लोगों का प्रभुत्व है।
अत्यन्त अफसोस की बात है कि मौजूदा वक्त में लेखकगण लेखक के रूप में बचे नहीं रह पा रहे हैं।
लेख का शेष भाग आप यहां पढ़ें- मनुष्य खत्म हो रहे हैं.. वस्तुयें खिली हुई हैं (२)- अखिलेश । पूर्व प्रकाशित लेख पर टिप्पणियां यहां देखें।
अखिलेश
जन्म: 1960, उ.प्र. के सुल्तानपुर जिले के कादीपुर कस्बे में।
शिक्षा: इलाहाबाद वि.वि. से एम.ए. हिंदी।
कृतियाँ:’आदमी नहीं टूटता’, ‘मुक्ति’, ‘शापग्रस्त’, अंधेरा (कहानी संग्रह), अन्वेषण(उपन्यास)।
अन्य संलग्नयाएं:वर्तमान साहित्य, माया,अतएव पत्रिकाऒं में समय-समय पर सम्पादन। छोटे पर्दे के लिये शोध, आलेख, पटकथा। कुछ कहानियों का प्रशिद्ध निर्देशकों द्वारा मंचन।
पुरस्कार: परिमल सम्मान, बालकृष्ण शर्मा’नवीन’ कथा पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, इंदु शर्मा कथा सम्मान, वनमाली पुरस्कार।
सम्प्रति: साहित्यिक पत्रिका ‘तद्भव’ का प्रकाशन।
सम्पर्क: 18/271, इंदिरा नगर, लखनऊ, उ.प्र.।मोबाइल: 094151 59243
जीवन पीछे नहीं जाता, वह आगे जा रहा है। आज का समय इतिहास का सब से अच्छा समय है। आने वाला उस से अच्छा होगा। जरूर और जरूर। आगे जाने वाला पीछे मुड़ कर नहीं देखता।
fir se shershth karya ke liye badhaaee
साहित्य (या किसी अन्य कृतित्व की सार्थकता; वह हमारे जीवन के बाद कितने साल और चलता है – इसपर निर्भर करती है।
अगर एक साहित्यकार रिलेटिव अभाव में जी कर मरने के बाद डबल जिन्दगी जी सकता है अपनी रचनाओं में; तो उसको मैं अपनी अफसरी जिन्दगी से कहीं अधिक सफल मानूंगा। Provided, he does not compromise on Good Character of his own.
अब क्या लिखूँ ? ऎसी कालजयी क्रूतियाँ, टिप्पणी के दो शब्दों की मोहताज़ नहीं हुआ करतीं !
अभी दुबारा तिबारा भी पढ़ूँगा, अभी से बताये जा रहा हूँ !
एक बार फिर धन्यवाद अनूप जी.
नवाजिश करम शुक्रिया मेहरबानी
saagar की हालिया प्रविष्टी..कुछ तो नाज़ुक मिजाज़ हम भी, और ये चोट नई है अभी