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मनुष्य खत्म हो रहे हैं.. वस्तुयें खिली हुई हैं (२)- अखिलेश
By फ़ुरसतिया on October 9, 2008
इस लेख का पहला भाग आप यहां देखें मनुष्य खत्म हो रहे हैं, वस्तुयें खिली हुई हैं (१)- अखिलेश ।पूर्व प्रकाशित लेख पर टिप्पणियां यहां देखें।
[सुपरिचित कथाकार अखिलेश का नाम हिंदी कथा पाठकों के लिये जाना-पहचाना नाम है। उनकी कहानी चिट्ठी में देश के तमाम पढ़े-लिखे युवा अपने को या अपने परिवेश को किसी न किसी न रूप में मौजूद पाते हैं। अखिलेश का एक आत्मक्थ्य नुमा लेख मेरे पसंदीदा लेखों में हैं। प्रख्यात साहित्यिक कथापत्रिका, ‘कथादेश’, के फरवरी २००० के अंक में प्रकाशित यह लेख पत्रिका के नियमित स्तम्भ मैं और मेरा समय में छ्पा था। इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रसिद्ध लेखकों के अपने समय के बारे में अनुभव व विचार प्रस्तुत किये जाते हैं। हिंदी ब्लाग जगत में जब सृजन शिल्पी के एक लेख पर संजय बेंगाणी पर की टिप्पणी , उस पर अमित का लेख और फिर नीरज दीवान का बड़ी मेहनत से लिखा विचारोत्तेजक लेख प्रकाशित हुआ तो मुझे एक बार फिर यह लेख बहुत याद आया। इसलिये मैं अखिलेशजी के इस लेख को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। आशा है कि लेख अपनी पर्याप्त लंबाई के बावजूद आपको पढ़ने और सोचने के लिये मजबूर करेगा। ]
किसको इस अनहोनी की आशंका थी कि माफिया डान, बलात्कारी, हत्यारे, डकैत, लौंडेबाज, मसखरे और मूर्ख भारत की संसद तथा विधानसभाऒं को अपनी चिल्लाहट, गुंडागर्दी, साम्प्रदायिकता के वायुविकार से भर देंगे।
किसी को अंदाजा नहीं था कि हत्यारा हजारों युवकों के सम्मुख डामर के ड्रम पर हमारे एक देसी कवि का सिर रखकर काट देगा। इस वध और वधिक के प्रतिरोध में वहां एक भी हाथ नहीं उठेगा, एक भी आवाज नहीं सुनाई पड़ेगी। यह भी किसको अन्दाजा था कि दूसरा कवि एक इमारत की दसवीं मंजिल से इसलिये छ्लांग लगा लेगा कि जिन्दगी में उसकी रुचि समाप्त हो गयी थी। एक दार्शनिक सड़क दुर्घटना में मारा जायेगा लेकिन उसके नगर को महीनों इसकी खबर नहीं मिलेगी।
कोई शराब मांगेगा, आइसक्रीम मांगेगा, स्त्री का शरीर मांगेगा, घूस मांगेगा, कुछ भी मांगेगा। उसे नहीं मिलेगा तो गोली मार देगा । कोई कहेगा कि उसका धर्म सर्वोच्च है, यदि सामने वाले ने स्वीकार नहीं किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा।
ध्यान देने की बात यह है कि कवि, ईसाई धर्म प्रचारक, माडल, दुकानदार की हत्या हो या जयपुर में भरे बाजार स्त्री का अपहरण, बलात्कार, सभी जनसमूह के सामने दिन दहाड़े हुये। अत: यह केवल जनजीवन की असुरक्षा का मामला नहीं है।
बल्कि यह समकालीन मनुष्य की कायरता और उसकी आत्मा के अन्त का प्रसंग भी है।
हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी यह है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है। इधर हम अपनी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े ही हार रहे हैं। अपसंस्क्रति, नवसाम्राज्यवाद, सम्वेदना का विनाश- किसी से हम लड़े नहीं। यह और भी कुत्सित है कि लड़ने की कौन कहे, लोग उनका स्वागत कर रहे हैं। खुशी से चिल्ला रहे हैं, खिलखिला रहे हैं, नितम्ब मटका रहे हैं।
ऐसा शायद इसलिये हो पा रहा है कि बाजार की अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के कारण विचारधारा और विचार दोनों हाशिये पर धकेल दिये गये हैं। कम्युनिस्ट देशों के पतन के कारण नहीं बाजार की शक्तियों से यह स्थापित हुआ कि मार्क्सवाद मर चुका है। जबकि
मार्क्सवाद का जन्म समाजवादी व्यवस्था के पहले हो चुका था, इसलिये सिर्फ व्यवस्था के पतन से वह कैसे मिट सकता है।
विचारधारा के अन्त तक गनीमत है थी, क्योंकि उसकी लतरें धूप और खाद पाकर पुन: फैल जाती हैं लेकिन भूमंडलीकरण-बाजार-लोगों को विचार से बेदखल बना रहा है। विचार, ज्ञान, विवेक ये जब तक रहेंगे-बाजार का हमला अबाध नहीं रहेगा। इसलिये सबसे पहले लोगों को विचार से चिढ़ना और नफरत करना सिखाऒ। सिखाऒ कि ज्ञान का अर्थ, तमाम विषयों का अध्ययन और उनके अन्तरसम्बंधों की पड़ताल, व्याख्या नहीं, बल्कि प्रश्नोत्तरी है। सिखाऒ कि प्रतिभाशाली का अर्थ फिल्मी अंताक्षरी में अव्वल आना है। सिखाऒ कि कुछ करने के पहले ठिठककर सोचना पिछड़ापन और मूर्खता है। सिखाऒ कि पश्चाताप और प्रायश्चित कोई शब्द नहीं है। सिखाऒ कि मनुष्य कुछ भी नहीं, सबसे श्रेष्ठ मशीन है। सिखाऒ कि अंतरात्मा कुछ नहीं होती, चेतना कुछ नहीं होती।
किसी समाज में बाजार के नियामकों का वर्चस्व तब तक स्थापित नहीं हो पाता है जब तक सच्चे मनुष्य और मूल्य बचे रहते हैं। इसीलिये बाजार की ताकतें हमारे समय की थोड़ी सी बची हुयी सच्चाई, नैतिकता और इनसानियत पर घात लगा रही है। कभी टी.वी के कार्यक्रमों, कभी विज्ञापनों, कभी सूचना प्रौद्योगिकी, कभी भूमंडलीकरण के कीर्तिगान जैसे अमोघ अस्त्रों से वे वार करती हैं। लोगों के सरोकारों को उच्चवर्गीय चकाचौंध से भर दिया जाता है। टेलिविजन, सिनेमा के पर्दे पर धूसर, कत्थई और मटमैले रंगों की अनुपस्थिति अनायास नहीं है। वहां आलीशान घर और दफ्तर हैं। भव्य कारे हैं। अपराध और शेयर हैं।
अरबों-खरबों (रुपये)हैं। विवाहपूर्व और विवाहेतर शारीरिक सम्बन्धों की यश:गाथा है। सुंदर स्वस्थ बच्चे हैं। खुशहाल तथा सम्पन्न परिवार हैं। नफ़ीस ग्रहणियां हैं। मां का कैरेक्टर अब निरुपा राय नहीं, पैंतीस साल तक की जवान, हसीन और साबुत चमकीले दांतों वाली छम्मकछल्लो करती हैं जिनकी अपनी सेक्स अपील होती है। ढेर सारी पत्र-पत्रिकायें यही काम कर रही हैं।यानि कि घोषित किया जा रहा है कि वैभवपूर्ण एवं भोगमय यह संसार ही असल हकीकत है। आपके पास जो दुख, संघर्ष और असुंदर है, अपवाद है। नैतिकता, मूल्यपरकता, सच्चाई तो फैंटेसी हैं, स्वप्न हैं। यथार्थ केवल भोग है, आराम और विलास है। यदि वह आपके पास नहीं है तो आप यथार्थ के लिये एक विसंगति हैं-एक बेसुरा।
हम दूसरों को कोसें लेकिन अपने साहित्य संसार में भी झांके। जब से हमारे आसमान पर बाजारवाद ने उड़ान भरी यानी कि करीब एक दशक से, कहानियों, उपन्यासों में मामूली आदमी की हाजिरी झीण होती जा रही है। जब वे सब समाज में हैं तो साहित्य से क्यों गायब हो रही हैं? ज्यादातर रचनाऒं में उच्च मध्यवर्ग, नाटकीयता, चटख रंगों और चटखारों की प्रचुरता है। यहां तक कि यदि स्त्री विमर्श है तो अधिकांशत: बड़े शहर की धनाढ्य स्त्रियां केन्द्र में हैं। दलित कथा साहित्य में भी पढ़े-लिखे, शहरी नौकरी पेशा लोगों का प्रभुत्व है।
हमारे कथन से यह अनर्थ न निकाला जाये कि मैं शहरों के विरुद्ध हूं और ग्राम जीवन मुझे बहुत रास आता है। सच्ची बात यह है कि शहर मुझे अत्यन्त प्रिय है। बड़े और सुन्दर शहर और ज्यादा प्रिय हैं। मुझे आधुनिक स्त्रियां और रचनायें दोनों आकर्षित हैं करती हैं। विकास का गोमुख शहर है तो पतन क चेहरा भी सबसे पहले शहर के दर्पण में दिखता है। एक लेखक के रूप में इन दोनों से सम्पर्क मेरी जरूरत है, क्योंकि विकास और पतन- इन्हीं दोनों की लीला- से साहित्य रचा जाता है । शहर से मैं प्यार करता हूं लेकिन शहर के लिये मेरे मन में घृणा भी अपरम्पार है। वे पतनोन्मुख विकास के प्रतीक बन चुके हैं।
हर स्थल का विकास उसके भूगोल, समाजशास्त्र और संस्कृति के अनुरूप होना चाहिये। मगर सारा विकास इन तीनों की विनाश भूमि पर किया जा रहा है। वस्तुत: विकास नहीं विकास का भेड़ियाधसान हो रहा है। पूंजीनिवेश का क्षेत्र राष्ट्र की जरूरत नहीं तय कर रही है। समाज की स्थायी समृद्धि और रोजगार के अवसर बढ़ाना अब उद्योग धन्धों की प्रतिज्ञा नहीं बची है। प्राकृतिक सम्पदा और मानव श्रम के समुचित उपयोग का इस विकास से कोई रिश्ता नहीं है। एक अन्धी तरक्की है। अन्धे ड्राइवर विकास का वाहन दौड़ा रहे हैं। सामाजिक दुर्घटनायें, सामाजिक मृत्यु और सामाजिक बीमारियां इसके उत्पाद हैं। जैविक बीमारियां भी इफरात हैं। आने वाले समय में-मौजूदा विकास के भविष्य में-सड़कों के किनारे दुकानें होंगी और सड़कों पर आदमी नहीं केवल वाहन दिखेंगे।
यदि आदमी दिखेंगे तो वाहन उनको कुचल देंगे और घरों, वाहनों और दुकानों में जो आदमी होगा, वह कई-कई बीमारियों से घिरा होगा। ज्यादातर लोग गैस गिरा रहे होंगे। ढेर सारे लोग बहरे होंगे। कोई जर्जर फेफड़ा लिये खांस रहा होगा, कोई हांफ रहा होगा। असंख्य लोग चश्मा लगाये होंगे, असंख्य पेशमेकर, हृदयरोग, उच्च रक्तचाप, एड्स, मधुमेह, एलर्जी जैसी बीमारियां उछल रही होंगी।
चिकित्सा विज्ञान अधिकतर को मरने नहीं देगा और विकास उन्हें जीने नहीं देगा।
मानसिक रोगियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि होगी। अर्ध विकसित मस्तिष्क वाले बच्चे, तनावग्रस्त, पागल, सनकी बड़ी तादाद में पाये जायेंगे। ऐसा समाज लिये हुये इक्कीसवीं सदी में लोग किसी दूसरे ग्रह पर बसने की तैयारी करेंगे। मान लें कि उस ग्रह पर पहुंचने पर किसी कीमियागिरी के कारण सबके चेहरे थोड़े-थोड़े बदल जायें। तब निश्चय ही अधिसंख्य लोगों की शिनाख्त मुश्किल हो जायेगी। क्योंकि इस सभ्यता के अनुचरों के पास अपने चेहरे के अलावा कुछ भी मौलिक नहीं है। चेहरे में भी केवल चेहरे की बनावट मौलिक है, चेहरे की अभिव्यक्तियों में नकलचीपन है। जैसे सियार एक तरह से हुआं-हुआं करते हैं, उसी तरह ज्यादातर चेहरे एक तरह से मुस्कराते हैं। एक ही तरह से शोक और एक ही तरह से खुशी प्रकट करते हैं। उनके आश्चर्य, उत्साह और अवसाद के इजहार एक तरह से हैं।
खास तरह के वस्त्र, खास तरह के बाल, खास तरह की वक्तृता, खास तरह के श्रंगार, खास तरह की चिल्लपों और खास तरह के शिष्टाचार में लोग एक ही तरह से मगन हैं। धनाठ्य देशों का चहेता भारतीय उपभोक्ता वर्ग एक ही प्रकार की इच्छायें, स्वप्न और कर्म लिये दौड़ रहा है। जबकि आत्यंतिक समरूपता किसी भी समाज की सांस्कृतिक मृत्यु का प्रमुख चिन्ह है।
क्योंकि इसी राजनीति से बाजार विकसित होगा। बाजार यही करता है। वह लोगों को गुलाम बनाता है लेकिन अहसास देता है कि वे परम स्वतंत्र हैं। मूर्ख हैं लेकिन समझदार का भ्रम पैदा करता है। वह आपको ठगता है लेकिन आप खुद को फायदे में समझते हैं। वह आपको दुख देता है लेकिन आपको महसूस होता है कि आप सुख हासिल कर रहे हैं। वह आपको पराजित करता है लेकिन आप मानते हैं कि आप जीत रहे हैं।
विडम्बना यह है कि लोग विज्ञापनों की नकल कर रहे हैं या व्यक्तित्वों की, लेकिन उनमें बोध यह है कि वे सबसे अलग हैं। क्योंकि इसी राजनीति से बाजार विकसित होगा। बाजार यही करता है। वह लोगों को गुलाम बनाता है लेकिन अहसास देता है कि वे परम स्वतंत्र हैं।
आज के समय के बारे में कहा जाता है कि यह टेक्नोलोजी के नियंन्त्रण का युग है। टेक्नोलोजी ही अब चक्रवर्ती है। आधुनिकता,प्रकृति पर मनुष्य के विजय की गाथा थी और उत्तर आधुनिकता मनुष्य पर टेक्नोलाजी की जीत है। मशीन की मदद से मनुष्य विजेता बना था, अब मशीन स्वयं विजेता बन गयी है। किंतु वास्त्विकता है कि यह वास्तविकता नहीं है। वस्तुत: यह विचार बाजार की शक्तियों का प्रचार है। असली बादशाह स्वयं बाजार है। इस जमाने में वह ही टेक्नोलाजी का निर्माता है और नियंता भी। जिस तकनीक को वह जब चाहेगा बरबाद कर देगा, अप्रासंगिक बना देगा। यदि ऐसा नहीं कर पाया तो उसे आपकी पहुंच से गायब कर देगा। आज भारतीय समाज की कितनी उपयोगी और जरूरी तकनीकें बाजार की इसी दमनशक्ति का शिकार बनकर दम तोड़ चुकी हैं या कारावास झेल रही हैं।
बाजार एक नये ढंग का तानाशाह है। वह आपको मारेगा और कहेगा कि आपकी भलाई के लिये मार रहा है। वह आपको बरबाद करेगा और कहेगा कि आपके हित में बरबाद हो रहा है। वह निरंकुश, क्रूर और आक्रामक होगा लेकिन अभिनय लोकतांत्रिक, दयालु और विनम्रता का करेगा। वह घोषणा करेगा कि असली ताकत वह नहीं टेकनोलाजी है। मनुष्य के वश का कुछ भी नहीं। वह कठपुतली, असहाय और निहत्था है। ऐसी समझ के प्रक्षेपण के पीछे यह कुटिल चालाकी है कि धारा के विरुद्ध समाज के संघर्ष क्षमता का लोप हो जाये। तकनीक एक जड़ सत्ता है, उससे संघर्ष न सम्भव है और कोई समाज उससे मुखालिफ होकर के जिंदा नहीं रह सकता है। इसलिये सत्ता का केन्द्र तकनीक को बताऒ जिससे बाजार सहित राजनीतिक, आपराधिक आदि सत्तायें सुरक्षित रहें फिर, जब लोग अपने को टेक्नोलाजी का यन्त्रवत दास मानेंगे तो यह भी मानेंगे कि जो हो रहा है, वही उनकी नियति है, अत: विद्रोह, विरोध और प्रतिकार उनके लिये सम्भव नही है।
बाजार ने युद्ध का मैदान मनुष्यों के अन्तस्थल को बनाया, जहां मनुष्य अकेला था, इसलिये बाजार जीत गया। उसने हमारी आत्मा और चेतना को सोते में दबोचा और कुचल दिया। बाजार का सन्देश है कि सफलता ही असली मूल्य है, बाकी सारे मूल्य ढकोसले और बूढ़े हैं।उनमें सुन्दरता नहीं, चमक नहीं, शक्ति नहीं। पाना ही मोक्ष है। क्या खोकर पाया जा रहा है, समाज से इस विवेक का बाजार अपहरण कर लेता है। इसके लिये वह सामूहिकता के रत्न को नष्ट करता है। बाजार के रक्षार्थ सबसे जरूरी तत्व है मनुष्य की सामूहिकता का विनाश। क्योंकि लोग सामूहिक होंगे तो गलत के विरोध में शक्ति बनेगी। समूह में रहने में कुछ लोग आपको बता देंगे कि आप क्या-क्या खोकर कुछ पा रहे हैं। इसलिये बाजार का दर्शन आज की सभी राजनीतिक पार्टियों को प्रिय है। बाजार कहता है कि आपको समाज की, पड़ोसी देश की क्या जरूरत है? भाई की क्या जरूरत है, क्योंकि आपकी हर जरूरत का हल हमारे पास है। आप तो बस मस्त रहो। भारत में बाजार अगले चरण में कहेगा कि आपको परिवार की क्या जरूरत है। वह आपको ऐसे-ऐसे उपकरणों के जाल में फंसा देगा कि आप पड़ोस, परिवार, देश दुनिया को देखने का समय नहीं निकाल पायेंगे। केवल तस्वीरें आपके निकट होंगी। प्रकृति नहीं प्रकृति की तस्वीरें देखेगे। आप गरीबी, दुख और तबाही नहीं सिर्फ उनकी फोटो देखेंगे। आप रोज-रोज आईने में कई-कई बार अपने को देखेंगे लेकिन आप केवल अपना प्रतिबिम्ब देखेंगे। सच्चाई यह होगी कि आप खत्म हो जायेंगे और अपने को नहीं देख पायेंगे।बाजार यह भी करता है कि वह भ्रम फैलाता है कि उपभोक्ता वर्ग ही देश है।
अमरीका जैसे बाजार व्यवस्था के मसीहा देश भारत के उपभोक्तावाद की रीढ़ उच्च वर्ग और मध्य वर्ग को ही असली भारत समझते हैं। उनका समस्त भारत प्रेम इसी को लुभाने के लिये हो रहा है। इसी प्रकार भारत का शासक वर्ग भी इन्हें ही असली और एकमात्र भारत मान रहा है। अब किताबों में नहीं मिलता कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और किसान मजदूरों के श्रम से देश चल पल रहा है। अब उपभोक्ता वर्ग को यह गौरव प्रदान किया गया है कि वह कहे कि देश दो कौड़ी के किसान, मजूर नहीं टैक्स पेयर्स चलाते हैं।
लेकिन यह ठोस सच्चाई है कि बिल गेट्स, मार्डोक, पेप्सी, कोक वगैरह के प्यारे भारत के अलावा एक बड़ा भारत, भारत में रहता है। यहां अभी भी दो जून की रोटी कमाना, बेटी की शादी करना, इलाज कराना विकट है। यहां अभी भी आंसू, चीख और कराह है। इसकी पीठ पर हंटर के निशान नहीं लेकिन इनकी दीवारों पर खून के धब्बे मिलेगे और दुआर पर कारतूस के खोखे। इस भारत में अनगिनत बस्तियां ऐसी हैं जहां इक्का-दुक्का छोड़कर केवल विधवायें बसती हैं।
‘वर्तमानता’ आज के समय का बीज तत्व है। इतिहास और भविष्य से विच्छिन्न्ता इस समय की ख्वाहिश और नियति दोनों है। गरीब वर्तमान के बीहड़ के कारण इतिहास और भविष्य के रास्ते नहीं देख पाता है तो सम्पन्न तबके का वर्तमान इतना मस्त चमकीला है कि उसे इतिहास और भविष्य की याद नहीं आती।
इतिहास और भविष्य से असम्पृक्ति आज के मनुष्य को स्मृति और कल्पना से वंचित कर रही है। क्योंकि इतिहास के अभाव में स्मृति और भविष्य के अभाव में कल्पना की कल्पना की भूमि बंजर होने लगती है। जबकि स्मृति और कल्पना ऐसी नियामतें हैं जिनकी वजह से मानव समाज पशु, प्रकृति मशीन की तुलना में उच्चतर स्थान पर प्रतिष्ट हो सका है। इन नियामतों से बेदखल मनुष्य पतन के किस गन्दे अंधेरे में गर्त में गिरेगा, यह सोचने का विषय है।
जब मैं लेखक होता हूं तो, एक तरफ मैं होता हूं और दूसरी तरफ यह समय। इस समय को मुझे जानना, समझना, चित्रित करना है। किसी हद तक बदलना भी है। मगर मेरा संताप यह है कि मुझको सूरते हाल के बदलने की कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती। एक समय ऐसा था कि भूमंडलीकरण यानी कि डालर का सर्वभक्षण , यानी कि अमेरिकी सभ्यता यानी कि उपभोक्तावाद विश्वविजय पर था तो भारत की राजनीति में लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, देवीलाल, रामविलास पासवान, कांशीराम को नायकत्व प्राप्त हो रहा था। दलित, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय की एकजुटता को सफलता से लग रहा था कि मार्क्सवाद की तथाकथित मृत्यु के दौर में भी अग्रगामी शक्तियों का मकसद ध्वस्त नहीं हुआ है। लेकिन इन नेताऒं ने ऐतिहासिक परिवर्तन के लक्ष्य की पीठ में लम्बी फाल वाला छूरा भोंका।
बाजार इन्हें भी लील ले गया है। दूसरी तरफ भाजपा जैसी घोर साम्प्रदायिक, जघन्य और जाहिलों की पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ हो गयी है। हम ऐसा समय देखने की त्रासदी से गुजर रहे हैं जिसमें उत्तर आधुनिक सम्वेदनहीनता और आदिम बर्बरतायें एक साथ हाजिर हैं। यदि नहीं मिलती हैं तो पवित्र नफरत और गुस्से भरी सामूहिक गतिविधि। ये दोनों चीजें सर्वाधिक वामपंथी प्रगतिशील ताकतों में व्याप्त थीं लेकिन कितनी अवधि बीत गयी, हस्त्क्षेप की कौन कहे, उन्होंने नयी सामाजिक स्थिति के एक नारा तक नहीं गढ़ा।
मैं उम्मीद के लिये अपने कस्बे में गया, गांव गया। वहां से भी जल्दी में भागा। मुझे लगा था कि कम से कम मेरे गांव में कुछ सच्चाइयां, ईमानदारी और ढेर सारी निश्छलताएं मिलेंगी। लेकिन पाया कि वहां भे दो दूना आठ का पहाड़ा कम परिश्रम से नहीं रटा जा रहा था।
मैं सोचता हूं था स्त्रियों और बच्चों में असली हंसी और आंसू बचे हैं। जब सभी हिंसक हो जाते हैं तो तब भी स्त्रियों के पास बहुत सारी करुणा और हिचकियां सुरक्षित रहती है। इसी तरह जब समूचे समाज में अंधेरा फैल जाता है, उस समय भी बच्चों के होंठों और आंखों में हंसी बिछी होती है। लेकिन मैं आपको डराने के लिये नहीं कह रहा हूं मैंने ऐसा महसूस किया, इसलिये कह रहा हूं कि सम्वेदनशीलता का यह किला भी अभेद्य नहीं रहा । बाजार ने इसी किले को सर्वाधिक शक्तियों से घेरा। स्त्रियों और बच्चों को अपनी गिरफ्त में लेना बाजार की शक्तियों का पहला लक्ष्य था। इसमें वह कामयाब भी रहा। स्त्रियां और बच्चे ही सबसे बड़े उपभोक्ता समुदाय हैं।
एक लेखक के लिये यह समय असह्य है और यह हकीकत है कि इस समय के लिये लेखक भी असह्य है। इस समय के अनुयायी चकित होते हैं कि ये कैसे लोग हैं जो अलग डफली बजाते हैं। सम्वेदना, सरोकार, विचार, ज्ञान, रचनात्मक रूपान्तरण…क्या-क्या बकते हैं ये लोग।
मनुष्य खत्म हो रहे हैं और वस्तुएं खिली हुई हैं। कई लाख हथियार मनुष्यता को बड़ी कलात्मकता से खत्म कर रहे हैं। ये मनुष्यों को वस्तुऒं में तब्दील कर दे रहे हैं। मनुष्य की आत्मा को, उसकी इच्छाऒं को, खुशियों और आसुऒं को उसके साहस और शौर्य को सभी को वस्तुओं में बदल दे रहे हैं। इसी कार्रवाई में आत्यंतिक सुन्दरयाएं नष्ट हो रही हैं। उनके विनाश की झड़ी लग गयी है। आत्यंतिक सुन्दरतायें चेतना और हृदय में बसती हैं और आंखों, होंठों और मत्थे पर दिखाई देकर विचारों और भावनाऒं में प्रकट होती हैं। लेकिन बाजार बताता है कि सुन्दरता क्रीम, साबुन, पाउडर, बाडी लोशन, तेल, बाल सफा में बसती है। यह उसी तरह है जैसे बाजार उपदेश देता है कि दुख स्त्री, दलित और गरीबी में नहीं है, वह आपके पास रेफ्रिजरेटर या लक्जरी कार या चाकलेट न होने में है। बाजार की वसीकरण विद्या कमाल दिखाती है और लोग समझने लगते हैं कि ज्ञान चेतना में नहीं इंटरनेट में ही बसता है। कर्म मनुष्य नहीं कम्प्यूटर ही करता है।
लेखक के रूप में इसी झूठ और सौन्दर्य हत्या के विरुद्ध संघर्ष मेरा मंतव्य है।
अखिलेश
कथाकार,सम्पादक (तद्भव)
अखिलेश
जन्म: 1960, उ.प्र. के सुल्तानपुर जिले के कादीपुर कस्बे में।
शिक्षा: इलाहाबाद वि.वि. से एम.ए. हिंदी।
कृतियाँ:’आदमी नहीं टूटता’, ‘मुक्ति’, ‘शापग्रस्त’, अंधेरा (कहानी संग्रह), अन्वेषण(उपन्यास)।
अन्य संलग्नयाएं:वर्तमान साहित्य, माया,अतएव पत्रिकाऒं में समय-समय पर सम्पादन। छोटे पर्दे के लिये शोध, आलेख, पटकथा। कुछ कहानियों का प्रशिद्ध निर्देशकों द्वारा मंचन।
पुरस्कार: परिमल सम्मान, बालकृष्ण शर्मा’नवीन’ कथा पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, इंदु शर्मा कथा सम्मान, वनमाली पुरस्कार।
सम्प्रति: साहित्यिक पत्रिका ‘तद्भव’ का प्रकाशन।
सम्पर्क: 18/271, इंदिरा नगर, लखनऊ, उ.प्र.।मोबाइल: 094151 59243
[सुपरिचित कथाकार अखिलेश का नाम हिंदी कथा पाठकों के लिये जाना-पहचाना नाम है। उनकी कहानी चिट्ठी में देश के तमाम पढ़े-लिखे युवा अपने को या अपने परिवेश को किसी न किसी न रूप में मौजूद पाते हैं। अखिलेश का एक आत्मक्थ्य नुमा लेख मेरे पसंदीदा लेखों में हैं। प्रख्यात साहित्यिक कथापत्रिका, ‘कथादेश’, के फरवरी २००० के अंक में प्रकाशित यह लेख पत्रिका के नियमित स्तम्भ मैं और मेरा समय में छ्पा था। इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रसिद्ध लेखकों के अपने समय के बारे में अनुभव व विचार प्रस्तुत किये जाते हैं। हिंदी ब्लाग जगत में जब सृजन शिल्पी के एक लेख पर संजय बेंगाणी पर की टिप्पणी , उस पर अमित का लेख और फिर नीरज दीवान का बड़ी मेहनत से लिखा विचारोत्तेजक लेख प्रकाशित हुआ तो मुझे एक बार फिर यह लेख बहुत याद आया। इसलिये मैं अखिलेशजी के इस लेख को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। आशा है कि लेख अपनी पर्याप्त लंबाई के बावजूद आपको पढ़ने और सोचने के लिये मजबूर करेगा। ]
मनुष्य खत्म हो रहे हैं.. वस्तुयें खिली हुई हैं (२)
इस वक्त को व्याख्यायित करने की कोशिश करते हुये लगता है कि हम जिस समय में हैं उसमें दु:स्वप्नों की तुलना में सच अधिक भयावह है। दुर्घटनायें, न्रशंसतायें, बरबादी आदि कल्पना से ज्यादा यथार्थ में उपस्थित हैं। स्वातंत्रयोत्तर भारत में किसने आशंका की थी कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस की और उससे उपजे दंगों की, दंगों के बाद दंगों की। देश की प्रशासनिक मशीनरी ,मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, फौज सबकी इच्छानुसार सबकी मिली भगत से बाबरी मस्जिद ढहा दी जायेगी- ऐसा दु:स्वप्न किसने देखा-सोचा था? साध्वि्यां, राजनीतिज्ञ अफसर, सिपाही, और महंत उल्लास से चिल्ला रहे थे और मस्जिद तोड़ी जा रही थी, यह सपने में सम्भव था? क्या यह भी सपने में सम्भव था कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस और दंगों के अपराधी ग्रहमंत्री, शिक्षा संस्कृति मंत्री, मुख्यमंत्री बन जायेंगे।किसको इस अनहोनी की आशंका थी कि माफिया डान, बलात्कारी, हत्यारे, डकैत, लौंडेबाज, मसखरे और मूर्ख भारत की संसद तथा विधानसभाऒं को अपनी चिल्लाहट, गुंडागर्दी, साम्प्रदायिकता के वायुविकार से भर देंगे।
किसी को अंदाजा नहीं था कि हत्यारा हजारों युवकों के सम्मुख डामर के ड्रम पर हमारे एक देसी कवि का सिर रखकर काट देगा। इस वध और वधिक के प्रतिरोध में वहां एक भी हाथ नहीं उठेगा, एक भी आवाज नहीं सुनाई पड़ेगी। यह भी किसको अन्दाजा था कि दूसरा कवि एक इमारत की दसवीं मंजिल से इसलिये छ्लांग लगा लेगा कि जिन्दगी में उसकी रुचि समाप्त हो गयी थी। एक दार्शनिक सड़क दुर्घटना में मारा जायेगा लेकिन उसके नगर को महीनों इसकी खबर नहीं मिलेगी।
कोई शराब मांगेगा, आइसक्रीम मांगेगा, स्त्री का शरीर मांगेगा, घूस मांगेगा, कुछ भी मांगेगा। उसे नहीं मिलेगा तो गोली मार देगा । कोई कहेगा कि उसका धर्म सर्वोच्च है, यदि सामने वाले ने स्वीकार नहीं किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा।
ध्यान देने की बात यह है कि कवि, ईसाई धर्म प्रचारक, माडल, दुकानदार की हत्या हो या जयपुर में भरे बाजार स्त्री का अपहरण, बलात्कार, सभी जनसमूह के सामने दिन दहाड़े हुये। अत: यह केवल जनजीवन की असुरक्षा का मामला नहीं है।
बल्कि यह समकालीन मनुष्य की कायरता और उसकी आत्मा के अन्त का प्रसंग भी है।
हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी यह है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है। इधर हम अपनी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े ही हार रहे हैं। अपसंस्क्रति, नवसाम्राज्यवाद, सम्वेदना का विनाश- किसी से हम लड़े नहीं। यह और भी कुत्सित है कि लड़ने की कौन कहे, लोग उनका स्वागत कर रहे हैं। खुशी से चिल्ला रहे हैं, खिलखिला रहे हैं, नितम्ब मटका रहे हैं।
ऐसा शायद इसलिये हो पा रहा है कि बाजार की अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के कारण विचारधारा और विचार दोनों हाशिये पर धकेल दिये गये हैं। कम्युनिस्ट देशों के पतन के कारण नहीं बाजार की शक्तियों से यह स्थापित हुआ कि मार्क्सवाद मर चुका है। जबकि
मार्क्सवाद का जन्म समाजवादी व्यवस्था के पहले हो चुका था, इसलिये सिर्फ व्यवस्था के पतन से वह कैसे मिट सकता है।
विचारधारा के अन्त तक गनीमत है थी, क्योंकि उसकी लतरें धूप और खाद पाकर पुन: फैल जाती हैं लेकिन भूमंडलीकरण-बाजार-लोगों को विचार से बेदखल बना रहा है। विचार, ज्ञान, विवेक ये जब तक रहेंगे-बाजार का हमला अबाध नहीं रहेगा। इसलिये सबसे पहले लोगों को विचार से चिढ़ना और नफरत करना सिखाऒ। सिखाऒ कि ज्ञान का अर्थ, तमाम विषयों का अध्ययन और उनके अन्तरसम्बंधों की पड़ताल, व्याख्या नहीं, बल्कि प्रश्नोत्तरी है। सिखाऒ कि प्रतिभाशाली का अर्थ फिल्मी अंताक्षरी में अव्वल आना है। सिखाऒ कि कुछ करने के पहले ठिठककर सोचना पिछड़ापन और मूर्खता है। सिखाऒ कि पश्चाताप और प्रायश्चित कोई शब्द नहीं है। सिखाऒ कि मनुष्य कुछ भी नहीं, सबसे श्रेष्ठ मशीन है। सिखाऒ कि अंतरात्मा कुछ नहीं होती, चेतना कुछ नहीं होती।
किसी समाज में बाजार के नियामकों का वर्चस्व तब तक स्थापित नहीं हो पाता है जब तक सच्चे मनुष्य और मूल्य बचे रहते हैं। इसीलिये बाजार की ताकतें हमारे समय की थोड़ी सी बची हुयी सच्चाई, नैतिकता और इनसानियत पर घात लगा रही है। कभी टी.वी के कार्यक्रमों, कभी विज्ञापनों, कभी सूचना प्रौद्योगिकी, कभी भूमंडलीकरण के कीर्तिगान जैसे अमोघ अस्त्रों से वे वार करती हैं। लोगों के सरोकारों को उच्चवर्गीय चकाचौंध से भर दिया जाता है। टेलिविजन, सिनेमा के पर्दे पर धूसर, कत्थई और मटमैले रंगों की अनुपस्थिति अनायास नहीं है। वहां आलीशान घर और दफ्तर हैं। भव्य कारे हैं। अपराध और शेयर हैं।
अरबों-खरबों (रुपये)हैं। विवाहपूर्व और विवाहेतर शारीरिक सम्बन्धों की यश:गाथा है। सुंदर स्वस्थ बच्चे हैं। खुशहाल तथा सम्पन्न परिवार हैं। नफ़ीस ग्रहणियां हैं। मां का कैरेक्टर अब निरुपा राय नहीं, पैंतीस साल तक की जवान, हसीन और साबुत चमकीले दांतों वाली छम्मकछल्लो करती हैं जिनकी अपनी सेक्स अपील होती है। ढेर सारी पत्र-पत्रिकायें यही काम कर रही हैं।यानि कि घोषित किया जा रहा है कि वैभवपूर्ण एवं भोगमय यह संसार ही असल हकीकत है। आपके पास जो दुख, संघर्ष और असुंदर है, अपवाद है। नैतिकता, मूल्यपरकता, सच्चाई तो फैंटेसी हैं, स्वप्न हैं। यथार्थ केवल भोग है, आराम और विलास है। यदि वह आपके पास नहीं है तो आप यथार्थ के लिये एक विसंगति हैं-एक बेसुरा।
हम दूसरों को कोसें लेकिन अपने साहित्य संसार में भी झांके। जब से हमारे आसमान पर बाजारवाद ने उड़ान भरी यानी कि करीब एक दशक से, कहानियों, उपन्यासों में मामूली आदमी की हाजिरी झीण होती जा रही है। जब वे सब समाज में हैं तो साहित्य से क्यों गायब हो रही हैं? ज्यादातर रचनाऒं में उच्च मध्यवर्ग, नाटकीयता, चटख रंगों और चटखारों की प्रचुरता है। यहां तक कि यदि स्त्री विमर्श है तो अधिकांशत: बड़े शहर की धनाढ्य स्त्रियां केन्द्र में हैं। दलित कथा साहित्य में भी पढ़े-लिखे, शहरी नौकरी पेशा लोगों का प्रभुत्व है।
हमारे कथन से यह अनर्थ न निकाला जाये कि मैं शहरों के विरुद्ध हूं और ग्राम जीवन मुझे बहुत रास आता है। सच्ची बात यह है कि शहर मुझे अत्यन्त प्रिय है। बड़े और सुन्दर शहर और ज्यादा प्रिय हैं। मुझे आधुनिक स्त्रियां और रचनायें दोनों आकर्षित हैं करती हैं। विकास का गोमुख शहर है तो पतन क चेहरा भी सबसे पहले शहर के दर्पण में दिखता है। एक लेखक के रूप में इन दोनों से सम्पर्क मेरी जरूरत है, क्योंकि विकास और पतन- इन्हीं दोनों की लीला- से साहित्य रचा जाता है । शहर से मैं प्यार करता हूं लेकिन शहर के लिये मेरे मन में घृणा भी अपरम्पार है। वे पतनोन्मुख विकास के प्रतीक बन चुके हैं।
हर स्थल का विकास उसके भूगोल, समाजशास्त्र और संस्कृति के अनुरूप होना चाहिये। मगर सारा विकास इन तीनों की विनाश भूमि पर किया जा रहा है। वस्तुत: विकास नहीं विकास का भेड़ियाधसान हो रहा है। पूंजीनिवेश का क्षेत्र राष्ट्र की जरूरत नहीं तय कर रही है। समाज की स्थायी समृद्धि और रोजगार के अवसर बढ़ाना अब उद्योग धन्धों की प्रतिज्ञा नहीं बची है। प्राकृतिक सम्पदा और मानव श्रम के समुचित उपयोग का इस विकास से कोई रिश्ता नहीं है। एक अन्धी तरक्की है। अन्धे ड्राइवर विकास का वाहन दौड़ा रहे हैं। सामाजिक दुर्घटनायें, सामाजिक मृत्यु और सामाजिक बीमारियां इसके उत्पाद हैं। जैविक बीमारियां भी इफरात हैं। आने वाले समय में-मौजूदा विकास के भविष्य में-सड़कों के किनारे दुकानें होंगी और सड़कों पर आदमी नहीं केवल वाहन दिखेंगे।
यदि आदमी दिखेंगे तो वाहन उनको कुचल देंगे और घरों, वाहनों और दुकानों में जो आदमी होगा, वह कई-कई बीमारियों से घिरा होगा। ज्यादातर लोग गैस गिरा रहे होंगे। ढेर सारे लोग बहरे होंगे। कोई जर्जर फेफड़ा लिये खांस रहा होगा, कोई हांफ रहा होगा। असंख्य लोग चश्मा लगाये होंगे, असंख्य पेशमेकर, हृदयरोग, उच्च रक्तचाप, एड्स, मधुमेह, एलर्जी जैसी बीमारियां उछल रही होंगी।
चिकित्सा विज्ञान अधिकतर को मरने नहीं देगा और विकास उन्हें जीने नहीं देगा।
मानसिक रोगियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि होगी। अर्ध विकसित मस्तिष्क वाले बच्चे, तनावग्रस्त, पागल, सनकी बड़ी तादाद में पाये जायेंगे। ऐसा समाज लिये हुये इक्कीसवीं सदी में लोग किसी दूसरे ग्रह पर बसने की तैयारी करेंगे। मान लें कि उस ग्रह पर पहुंचने पर किसी कीमियागिरी के कारण सबके चेहरे थोड़े-थोड़े बदल जायें। तब निश्चय ही अधिसंख्य लोगों की शिनाख्त मुश्किल हो जायेगी। क्योंकि इस सभ्यता के अनुचरों के पास अपने चेहरे के अलावा कुछ भी मौलिक नहीं है। चेहरे में भी केवल चेहरे की बनावट मौलिक है, चेहरे की अभिव्यक्तियों में नकलचीपन है। जैसे सियार एक तरह से हुआं-हुआं करते हैं, उसी तरह ज्यादातर चेहरे एक तरह से मुस्कराते हैं। एक ही तरह से शोक और एक ही तरह से खुशी प्रकट करते हैं। उनके आश्चर्य, उत्साह और अवसाद के इजहार एक तरह से हैं।
खास तरह के वस्त्र, खास तरह के बाल, खास तरह की वक्तृता, खास तरह के श्रंगार, खास तरह की चिल्लपों और खास तरह के शिष्टाचार में लोग एक ही तरह से मगन हैं। धनाठ्य देशों का चहेता भारतीय उपभोक्ता वर्ग एक ही प्रकार की इच्छायें, स्वप्न और कर्म लिये दौड़ रहा है। जबकि आत्यंतिक समरूपता किसी भी समाज की सांस्कृतिक मृत्यु का प्रमुख चिन्ह है।
क्योंकि इसी राजनीति से बाजार विकसित होगा। बाजार यही करता है। वह लोगों को गुलाम बनाता है लेकिन अहसास देता है कि वे परम स्वतंत्र हैं। मूर्ख हैं लेकिन समझदार का भ्रम पैदा करता है। वह आपको ठगता है लेकिन आप खुद को फायदे में समझते हैं। वह आपको दुख देता है लेकिन आपको महसूस होता है कि आप सुख हासिल कर रहे हैं। वह आपको पराजित करता है लेकिन आप मानते हैं कि आप जीत रहे हैं।
विडम्बना यह है कि लोग विज्ञापनों की नकल कर रहे हैं या व्यक्तित्वों की, लेकिन उनमें बोध यह है कि वे सबसे अलग हैं। क्योंकि इसी राजनीति से बाजार विकसित होगा। बाजार यही करता है। वह लोगों को गुलाम बनाता है लेकिन अहसास देता है कि वे परम स्वतंत्र हैं।
आज के समय के बारे में कहा जाता है कि यह टेक्नोलोजी के नियंन्त्रण का युग है। टेक्नोलोजी ही अब चक्रवर्ती है। आधुनिकता,प्रकृति पर मनुष्य के विजय की गाथा थी और उत्तर आधुनिकता मनुष्य पर टेक्नोलाजी की जीत है। मशीन की मदद से मनुष्य विजेता बना था, अब मशीन स्वयं विजेता बन गयी है। किंतु वास्त्विकता है कि यह वास्तविकता नहीं है। वस्तुत: यह विचार बाजार की शक्तियों का प्रचार है। असली बादशाह स्वयं बाजार है। इस जमाने में वह ही टेक्नोलाजी का निर्माता है और नियंता भी। जिस तकनीक को वह जब चाहेगा बरबाद कर देगा, अप्रासंगिक बना देगा। यदि ऐसा नहीं कर पाया तो उसे आपकी पहुंच से गायब कर देगा। आज भारतीय समाज की कितनी उपयोगी और जरूरी तकनीकें बाजार की इसी दमनशक्ति का शिकार बनकर दम तोड़ चुकी हैं या कारावास झेल रही हैं।
बाजार एक नये ढंग का तानाशाह है। वह आपको मारेगा और कहेगा कि आपकी भलाई के लिये मार रहा है। वह आपको बरबाद करेगा और कहेगा कि आपके हित में बरबाद हो रहा है। वह निरंकुश, क्रूर और आक्रामक होगा लेकिन अभिनय लोकतांत्रिक, दयालु और विनम्रता का करेगा। वह घोषणा करेगा कि असली ताकत वह नहीं टेकनोलाजी है। मनुष्य के वश का कुछ भी नहीं। वह कठपुतली, असहाय और निहत्था है। ऐसी समझ के प्रक्षेपण के पीछे यह कुटिल चालाकी है कि धारा के विरुद्ध समाज के संघर्ष क्षमता का लोप हो जाये। तकनीक एक जड़ सत्ता है, उससे संघर्ष न सम्भव है और कोई समाज उससे मुखालिफ होकर के जिंदा नहीं रह सकता है। इसलिये सत्ता का केन्द्र तकनीक को बताऒ जिससे बाजार सहित राजनीतिक, आपराधिक आदि सत्तायें सुरक्षित रहें फिर, जब लोग अपने को टेक्नोलाजी का यन्त्रवत दास मानेंगे तो यह भी मानेंगे कि जो हो रहा है, वही उनकी नियति है, अत: विद्रोह, विरोध और प्रतिकार उनके लिये सम्भव नही है।
बाजार ने युद्ध का मैदान मनुष्यों के अन्तस्थल को बनाया, जहां मनुष्य अकेला था, इसलिये बाजार जीत गया। उसने हमारी आत्मा और चेतना को सोते में दबोचा और कुचल दिया। बाजार का सन्देश है कि सफलता ही असली मूल्य है, बाकी सारे मूल्य ढकोसले और बूढ़े हैं।उनमें सुन्दरता नहीं, चमक नहीं, शक्ति नहीं। पाना ही मोक्ष है। क्या खोकर पाया जा रहा है, समाज से इस विवेक का बाजार अपहरण कर लेता है। इसके लिये वह सामूहिकता के रत्न को नष्ट करता है। बाजार के रक्षार्थ सबसे जरूरी तत्व है मनुष्य की सामूहिकता का विनाश। क्योंकि लोग सामूहिक होंगे तो गलत के विरोध में शक्ति बनेगी। समूह में रहने में कुछ लोग आपको बता देंगे कि आप क्या-क्या खोकर कुछ पा रहे हैं। इसलिये बाजार का दर्शन आज की सभी राजनीतिक पार्टियों को प्रिय है। बाजार कहता है कि आपको समाज की, पड़ोसी देश की क्या जरूरत है? भाई की क्या जरूरत है, क्योंकि आपकी हर जरूरत का हल हमारे पास है। आप तो बस मस्त रहो। भारत में बाजार अगले चरण में कहेगा कि आपको परिवार की क्या जरूरत है। वह आपको ऐसे-ऐसे उपकरणों के जाल में फंसा देगा कि आप पड़ोस, परिवार, देश दुनिया को देखने का समय नहीं निकाल पायेंगे। केवल तस्वीरें आपके निकट होंगी। प्रकृति नहीं प्रकृति की तस्वीरें देखेगे। आप गरीबी, दुख और तबाही नहीं सिर्फ उनकी फोटो देखेंगे। आप रोज-रोज आईने में कई-कई बार अपने को देखेंगे लेकिन आप केवल अपना प्रतिबिम्ब देखेंगे। सच्चाई यह होगी कि आप खत्म हो जायेंगे और अपने को नहीं देख पायेंगे।बाजार यह भी करता है कि वह भ्रम फैलाता है कि उपभोक्ता वर्ग ही देश है।
अमरीका जैसे बाजार व्यवस्था के मसीहा देश भारत के उपभोक्तावाद की रीढ़ उच्च वर्ग और मध्य वर्ग को ही असली भारत समझते हैं। उनका समस्त भारत प्रेम इसी को लुभाने के लिये हो रहा है। इसी प्रकार भारत का शासक वर्ग भी इन्हें ही असली और एकमात्र भारत मान रहा है। अब किताबों में नहीं मिलता कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और किसान मजदूरों के श्रम से देश चल पल रहा है। अब उपभोक्ता वर्ग को यह गौरव प्रदान किया गया है कि वह कहे कि देश दो कौड़ी के किसान, मजूर नहीं टैक्स पेयर्स चलाते हैं।
लेकिन यह ठोस सच्चाई है कि बिल गेट्स, मार्डोक, पेप्सी, कोक वगैरह के प्यारे भारत के अलावा एक बड़ा भारत, भारत में रहता है। यहां अभी भी दो जून की रोटी कमाना, बेटी की शादी करना, इलाज कराना विकट है। यहां अभी भी आंसू, चीख और कराह है। इसकी पीठ पर हंटर के निशान नहीं लेकिन इनकी दीवारों पर खून के धब्बे मिलेगे और दुआर पर कारतूस के खोखे। इस भारत में अनगिनत बस्तियां ऐसी हैं जहां इक्का-दुक्का छोड़कर केवल विधवायें बसती हैं।
‘वर्तमानता’ आज के समय का बीज तत्व है। इतिहास और भविष्य से विच्छिन्न्ता इस समय की ख्वाहिश और नियति दोनों है। गरीब वर्तमान के बीहड़ के कारण इतिहास और भविष्य के रास्ते नहीं देख पाता है तो सम्पन्न तबके का वर्तमान इतना मस्त चमकीला है कि उसे इतिहास और भविष्य की याद नहीं आती।
इतिहास और भविष्य से असम्पृक्ति आज के मनुष्य को स्मृति और कल्पना से वंचित कर रही है। क्योंकि इतिहास के अभाव में स्मृति और भविष्य के अभाव में कल्पना की कल्पना की भूमि बंजर होने लगती है। जबकि स्मृति और कल्पना ऐसी नियामतें हैं जिनकी वजह से मानव समाज पशु, प्रकृति मशीन की तुलना में उच्चतर स्थान पर प्रतिष्ट हो सका है। इन नियामतों से बेदखल मनुष्य पतन के किस गन्दे अंधेरे में गर्त में गिरेगा, यह सोचने का विषय है।
जब मैं लेखक होता हूं तो, एक तरफ मैं होता हूं और दूसरी तरफ यह समय। इस समय को मुझे जानना, समझना, चित्रित करना है। किसी हद तक बदलना भी है। मगर मेरा संताप यह है कि मुझको सूरते हाल के बदलने की कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती। एक समय ऐसा था कि भूमंडलीकरण यानी कि डालर का सर्वभक्षण , यानी कि अमेरिकी सभ्यता यानी कि उपभोक्तावाद विश्वविजय पर था तो भारत की राजनीति में लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, देवीलाल, रामविलास पासवान, कांशीराम को नायकत्व प्राप्त हो रहा था। दलित, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय की एकजुटता को सफलता से लग रहा था कि मार्क्सवाद की तथाकथित मृत्यु के दौर में भी अग्रगामी शक्तियों का मकसद ध्वस्त नहीं हुआ है। लेकिन इन नेताऒं ने ऐतिहासिक परिवर्तन के लक्ष्य की पीठ में लम्बी फाल वाला छूरा भोंका।
बाजार इन्हें भी लील ले गया है। दूसरी तरफ भाजपा जैसी घोर साम्प्रदायिक, जघन्य और जाहिलों की पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ हो गयी है। हम ऐसा समय देखने की त्रासदी से गुजर रहे हैं जिसमें उत्तर आधुनिक सम्वेदनहीनता और आदिम बर्बरतायें एक साथ हाजिर हैं। यदि नहीं मिलती हैं तो पवित्र नफरत और गुस्से भरी सामूहिक गतिविधि। ये दोनों चीजें सर्वाधिक वामपंथी प्रगतिशील ताकतों में व्याप्त थीं लेकिन कितनी अवधि बीत गयी, हस्त्क्षेप की कौन कहे, उन्होंने नयी सामाजिक स्थिति के एक नारा तक नहीं गढ़ा।
मैं उम्मीद के लिये अपने कस्बे में गया, गांव गया। वहां से भी जल्दी में भागा। मुझे लगा था कि कम से कम मेरे गांव में कुछ सच्चाइयां, ईमानदारी और ढेर सारी निश्छलताएं मिलेंगी। लेकिन पाया कि वहां भे दो दूना आठ का पहाड़ा कम परिश्रम से नहीं रटा जा रहा था।
मैं सोचता हूं था स्त्रियों और बच्चों में असली हंसी और आंसू बचे हैं। जब सभी हिंसक हो जाते हैं तो तब भी स्त्रियों के पास बहुत सारी करुणा और हिचकियां सुरक्षित रहती है। इसी तरह जब समूचे समाज में अंधेरा फैल जाता है, उस समय भी बच्चों के होंठों और आंखों में हंसी बिछी होती है। लेकिन मैं आपको डराने के लिये नहीं कह रहा हूं मैंने ऐसा महसूस किया, इसलिये कह रहा हूं कि सम्वेदनशीलता का यह किला भी अभेद्य नहीं रहा । बाजार ने इसी किले को सर्वाधिक शक्तियों से घेरा। स्त्रियों और बच्चों को अपनी गिरफ्त में लेना बाजार की शक्तियों का पहला लक्ष्य था। इसमें वह कामयाब भी रहा। स्त्रियां और बच्चे ही सबसे बड़े उपभोक्ता समुदाय हैं।
एक लेखक के लिये यह समय असह्य है और यह हकीकत है कि इस समय के लिये लेखक भी असह्य है। इस समय के अनुयायी चकित होते हैं कि ये कैसे लोग हैं जो अलग डफली बजाते हैं। सम्वेदना, सरोकार, विचार, ज्ञान, रचनात्मक रूपान्तरण…क्या-क्या बकते हैं ये लोग।
मनुष्य खत्म हो रहे हैं और वस्तुएं खिली हुई हैं। कई लाख हथियार मनुष्यता को बड़ी कलात्मकता से खत्म कर रहे हैं। ये मनुष्यों को वस्तुऒं में तब्दील कर दे रहे हैं। मनुष्य की आत्मा को, उसकी इच्छाऒं को, खुशियों और आसुऒं को उसके साहस और शौर्य को सभी को वस्तुओं में बदल दे रहे हैं। इसी कार्रवाई में आत्यंतिक सुन्दरयाएं नष्ट हो रही हैं। उनके विनाश की झड़ी लग गयी है। आत्यंतिक सुन्दरतायें चेतना और हृदय में बसती हैं और आंखों, होंठों और मत्थे पर दिखाई देकर विचारों और भावनाऒं में प्रकट होती हैं। लेकिन बाजार बताता है कि सुन्दरता क्रीम, साबुन, पाउडर, बाडी लोशन, तेल, बाल सफा में बसती है। यह उसी तरह है जैसे बाजार उपदेश देता है कि दुख स्त्री, दलित और गरीबी में नहीं है, वह आपके पास रेफ्रिजरेटर या लक्जरी कार या चाकलेट न होने में है। बाजार की वसीकरण विद्या कमाल दिखाती है और लोग समझने लगते हैं कि ज्ञान चेतना में नहीं इंटरनेट में ही बसता है। कर्म मनुष्य नहीं कम्प्यूटर ही करता है।
लेखक के रूप में इसी झूठ और सौन्दर्य हत्या के विरुद्ध संघर्ष मेरा मंतव्य है।
अखिलेश
कथाकार,सम्पादक (तद्भव)
अखिलेश
जन्म: 1960, उ.प्र. के सुल्तानपुर जिले के कादीपुर कस्बे में।
शिक्षा: इलाहाबाद वि.वि. से एम.ए. हिंदी।
कृतियाँ:’आदमी नहीं टूटता’, ‘मुक्ति’, ‘शापग्रस्त’, अंधेरा (कहानी संग्रह), अन्वेषण(उपन्यास)।
अन्य संलग्नयाएं:वर्तमान साहित्य, माया,अतएव पत्रिकाऒं में समय-समय पर सम्पादन। छोटे पर्दे के लिये शोध, आलेख, पटकथा। कुछ कहानियों का प्रशिद्ध निर्देशकों द्वारा मंचन।
पुरस्कार: परिमल सम्मान, बालकृष्ण शर्मा’नवीन’ कथा पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, इंदु शर्मा कथा सम्मान, वनमाली पुरस्कार।
सम्प्रति: साहित्यिक पत्रिका ‘तद्भव’ का प्रकाशन।
सम्पर्क: 18/271, इंदिरा नगर, लखनऊ, उ.प्र.।मोबाइल: 094151 59243
sahii kehaa
इस आलेख में मार्क्सवाद का उल्लेख है। मार्क्सवाद हमने नाम दे दिया है क्योंकि उस दर्शन को सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप से मार्क्स ने रखा। वस्तुतः वह द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन है जो जगत को उसी तरह परिभाषित करता है जैसा वह है। जगत एक वास्तविकता है, वह अजन्मा है इसलिए मरेगा भी नहीं। इस कारण मार्क्सवाद की मृत्यु असंभव है। हाँ वह भविष्य को देखने का अवसर देता है। हम उसे देखते हैं और शीघ्र उसे लाने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन जगत और उस का हिस्सा मानव समाज तो परिस्थितियाँ बनने पर अपने समय से ही बदलेंगे। परिवर्तन के पहले जितने कष्ट मानवजाति को देखने हैं देखने ही पड़ेंगे। हाँ हम परिस्थितियाँ पकाने में अपना योगदान कर सकते हैं।
आम लोग इसीलिए कहते हैं- होहिहीं वही जो राम रचि राखा।
और अपनी विश्लेषणात्मक क्षमता की सीमायें भी नजर आती हैं।
बहुत अच्छा लिखा है।
वाकई सचबयानी एक बहुत ही बड़ा ज़ोखिम बनता जा रहा है ।
एक दूसरी त्रासदी इस स्थिति को और भी भयावह बना रही है, वह यह कि..
सुविधाप्रद लेखन को मान्यता ही नहीं, बल्कि प्रोत्साहन मिलता जा रहा है !
बेचैन कर देने वाला यह एक आलेख प्रस्तुत कर, आपने मेरा एक अनाम आदर पुनः अर्जित किया है ! अभिवादन लें !
regards
लेखक की सोच अच्छी है ……एक बार फ़िर उनसे मिलवाने का शुक्रिया
PRASTUTI KE LIYE DHANYAVAD.
VIJAY DASHMEE KEE BADHAYEE.
AKHILESH JEE ! VIJAYEE BHAV. TADBHAV.
GURU AAPKE YAHAN YE MAST MUKHAUTE KAUN LAGATA HAI ?
YAHAN TAK KEE MERA BHEE CHAUKHATA SUNDAR NAJAR AATA HAI !
saagar की हालिया प्रविष्टी..कुछ तो नाज़ुक मिजाज़ हम भी, और ये चोट नई है अभी